अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

राहत कमेटी में ट्रान्सफर करा दे बाबा

राहत कमेटी में ट्रान्सफर करा दे बाबा

नवीन चन्द्र लोहनी

जब से पहाड़ पर वर्षा और बाढ़ आई है मेरे एक मित्र की पत्नी को अचानक अपने आप पर कोप हो आया। उनको पहाड़ से उतरे बहुत दिन नहीं हुए। यह दुर्घटना भी इसी साल घटनी थी और मित्र को भी इसी वर्ष स्थानान्तरण करवाना था। लाहौल विला कूव्वत। विगत् गर्मियों में अनेक शहरों को डुबा देने वाली बाढ़ के कारण उनका मन पहाड़ से मैदान की ओर हुआ था। ये कल्याण अधिकारी तब जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर पहाड़ से मैदान उतर आये थे, पर इस ऊपर वाले से उनको हमेशा नाराजगी रही, वे जहाँ भी ‘कल्याण‘ करने गये वहॉं न कोई बाढ़ आती है, न सूखा पड़ता है और न भूकम्प आते हैं न दंगे, न झगड़े, आखिर क्या करेंगे वे ऐसे पद को हथिया कर जो कोई जुगाड़ ही न बैठा सके।
विगत् दिनों बाढ़ का प्रकरण जोरों पर चला उन्होंने अपने पढ़ने-लिखने के दिनों के साथी विधायक की ससुराल के दहेज में आये पैसे से मदद की और बाढ़ का दौर शुरू होते ही ट्रान्सफर करवा लिया, परन्तु रिलिविंग और ज्वाइनिंग का चक्कर जब खत्म होता तब तक बाढ़ उतर चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। कल्याण अधिकारी के पास फिर मेज पर ऊँघने के सिवा कोई काम न था। बड़ी मुश्किल से पत्नी को मनाया कि इस बार नहीं तो अगली बार सही, बाढ़, सूखा, दंगा कुछ न कुछ होगा, फिर कल्याण कार्य करेंगे, फिर तो विधायक और मन्त्री को दी गयी ‘सहयोग राशि‘ वसूल लेंगे और कुछ प्लाट, मकान, गाड़ी के लिए भी सोचेंगे। पर उसकी परेशानी का कारण बर्षा की यह मार इतनी जल्दी आने की कोई भनक उसे होती तो वह ईश्वर कसम पहाड़ से कतई-कतई न उतरता। पहाड़ में वर्षा क्या आई, भूकम्प उसके घर में आ गया। पत्नी कोप भवन में चली गयी। अब कहाँ वह विधायक उनके हाथ आता कि वरदान मांगती राम की तरह उसे वनवास दिया जाए जिसने तब उतनी देर स्थानान्तरण करवाने में लगा दी और अब है कि सुध नहीं ले रहा। अरे! किसी कमेटी-वमेटी में राहत-वाहत का काम दे दिला देता। कुछ उसे भी मिलता। वे उसके अनन्य मित्र थे, उस अनन्यता का कारण भी वे खुद थे जब भी ऐसी विपदाए आती मौके-बेमौके उसकी सेवाओं का लाभ लेते रहते।
वे आए। अपनी पीड़ा, जनसेवा का दर्द, अपनी ललक सब उन्होंने बताई। भाई वे तो फिर कोप भवन में हैं, मैंने लाख कहा अरे क्या हुआ कभी तो यहाँ भी ऐसा कुछ होगा। घूरे के भी दिन फिरते हैं पर वह है कि मानती नहीं, कहती है कि स्वास्थ्य खराब होने के आधार पर ही सही तुरन्त पहाड़ पर स्थानान्तरण कराओं“ मैंने कहा ‘मित्र पिछली बार भी तो सम्भवतः ऐसा ही कुछ आपने किया था’ बोले उस बार माताजी के खराब स्वास्थ्य को लेकर मैंने यहाँ स्थानान्तरण करवाया था इस बार ‘वो’ कहती हैं कि स्वास्थ्य मेरा ही खराब बता दो पर किसी तरह पहाड़ पर स्थानान्तरण करवा लो। मैं क्या करूँ? आज तीन दिन से वे अन्न-जल बिना बैठी है मुझे तो लगता है कि कहीं कुछ बुरा न कर बैठे।“
मैं मित्र की कातरता समझ गया ”बोलो क्या करें, चलो मैं चलता हूँ, भाभी को कुछ तो बताए कि इतनी जल्दी स्थानान्तरण नहीं हो सकता। हाँ वे घूमना ही चाहें तो उन्हें तुम पहाड़ पर घुमा ले आओ।“ उसने सिर पकड़ लिया बोला ”अगर वे ऐसे ही घूमना चाहती तो फिर मना क्या थी। वो तो मेरे घर वालों ने ही शादी के समय कह दी थी, जिसके बल पर दो लाख रुपये नकद दहेज लिया था वह मुझे डुबा रहा है मैं अगर समझता तो................।“
मैं उनके घर पहुँचा। वे पस्त हाल लेटी थी। मित्र की ओर देखकर गुस्से से उन्होंने आँखें उचकाईं। बोली ‘भाईसाहब, मेरा तो पल्ला ही ऐसे आदमी से पड़ा। क्या करूँ।’ मैंने सान्त्वना देते हुए कहा ‘परेशानी क्या हो गयी भाभी, ये तो मुँह लटकाए मेरे घर आया, मैं तो किसी अनिष्ट की आशंका से डरा हूँ। बताओ क्या बात हो गयी।“ वे बोली ”आपको पता नहीं है क्या, ये तो मेरी चुगली कर ही आए होंगे। देखो मैं तो कहती हूँ कि अरे जहाँ कोई काम नहीं वहाँ रहकर क्या करोगे। पिछले साल जब बाढ़ आई तो मैंने इनसे रिक्वेस्ट की कि मैदान में ट्रान्सफर कराओ, इनको जब बात समझ में आई तब तक बाढ़ जा भी चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। ये क्या करते यहाँ आकर खाक। तब मैंने कहा छोड़ो ट्रान्सफर रुका लो, अब क्या यहाँ सड़ी गर्मी में मरने आए पर ये मेरी मानते कब हैं और अब भी इन्हें होश तब आयेगा जब वर्षा की राहत और पुनर्वास का काम पूरा हो जायेगा तब से वहाँ जायेंगे। इनकी अक्ल तो मेरी समझ से पथरा गयी है।’ मैंने कहा ‘तो कोई बात नहीं अगर आपको जनसेवा का इतना शौक है तो चलते हैं, कुछ मेडिकल से लोगों की ले लेते हैं कुछ और साथी चलेंगे, थोड़ी सेवा ही हो जाये जीवन सार्थक हो जाये।“
वे मुझ पर भी बिफर गयी, ‘मैं सोच तो रही हूँ, इनको क्या हो गया है, इनके तो आप जैसे ही सलाहकार होंगे। तभी। तभी तो ये आजकल ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। अरे इस शहर में कितनी संस्थाए हैं जो गरीबों, बेसहारों, परेशान लोगों के साथ होने का दावा करती है। उत्तराखण्ड के कल्याण, सेवा के नाम पर इसी शहर में कितनी संस्थाऐं हैं कितने लोग गये वहाँ, ”हाँ अखबारों में जरूर यहीं बैठकर सरकार को कोस रहे हैं कि राहत ठीक नहीं चल रही कि उनको दुख है कि वे सबसे मदद की अपील करते हैं। अरे इस देश में कौन जन
सेवा के लिए इतना रोने लगा, किसी को अखबार से प्रचार चाहिए, किसी को वोट चाहिए, किसी को इसी बहाने पुरस्कार मिल जायेंगे, कोई पहाड़ पुत्र घोषित हो जायेगा और कोई सबसे बड़ा देश सेवक, गरीबों, असहायों का मसीहा। फिर वह चुनाव लड़ेगा, वोट मांगेगा, या फिर किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था से जुड़कर पुरस्कार लेगा या देगा दिलाएगा, कोई अपनी राहत समिति के बहाने घर, गाड़ी बना लेगा, कुछ ऐसे आप जैसे लोग भी होंगे जो अपना समय, पैसा बरबाद कर घर आयेंगे और बीबी से लड़ेंगे कि घी इतना खर्च कर दिया कि बच्ची की फ्राक अगले माह ले लेंगे, कि क्लब जाना बन्द करो या फिर इसी माह से कटौती शुरू। मैं लानत भेजती हूँ ऐसे आप जैसे लोगों पर।“
वह चादर तानकर फिर लेट गयी हैं। मेरे सिर पर अक्टूबरी प्रातःकालीन ठंड में भी पसीने की बूँदें उतर आयी हैं। मित्र भी सिर पकड़े पूर्ववत् बैठा है। मैं अकेला उसके ट्रान्सफर चिन्तन की नहीं इन सबकी चिन्ता में पड़ा वापस घर लौट जाना चाहता हूँ क्योंकि यह सच जब वे फिर बोलेंगी तो मैं चीखने लगूँगा, नोचने लगूँगा खुद को भी। आप सब कुछ के बाद भी उसके दर्द को समझें, हो सके तो उसका स्थानान्तरण फिर पहाड़ पर करवा दें, उसका भी भला हो जाए। जब डूबती गंगा में दो हाथ मारने का ही सवाल है और ज्यादातर कल्याणकर्मी यही कर रहे हैं तो मेरे इस मित्र ने ही क्या बिगाड़ा है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

किसी दिन पत्थरों की सभा होगी

अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है।अदालत का फैसला आना अभी बाकी है।और देश एक बार फिर अतिवादियों के हाथ में जाने को तैयार है।हालांकि जनता अब समझदार हो गयी है,ऎसा हम मानते हैं। लेकिन फासिस्ट ताकतें अब भी उसे तोड़ने पर आमादा हैं।ख़तरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है।इस कठिन समय में  मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है-‘किसी दिन पत्थरों की सभा होगी’।यह कविता मेरे पहले संग्रह ‘चलो कुछ खेल जैसा खेलें’ में संग्रहीत है।मुझे लगता है, इस कविता की प्रासंगिकता एक बार फिर बढ़ गयी है। पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
                                                                                                                         - महेश आलोक   

                   

                                               किसी दिन पत्थरों की सभा होगी

किसी दिन पत्थरों की सभा होगी
और वे किसी भी पूजा घर में बैठने से
इन्कार कर देंगे

वे उठेंगे और प्राण प्रतिष्ठा के तमाम मंत्र भाग जाएंगे कंदराओं में
वह पूरा दृश्य देखने लायक होगा जब मंत्रों के चीखने-चिल्लाने याकि
मित्र-मंत्रों के घातक प्रयोगों की धमकी का असर
उन पर नहीं होगा

वे अपनी सरकार से मांग करेंगे कि उस दिन को
राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाय

वे दुनिया भर की मूर्तियों को पत्र लिखेंगे कि
अगर सुरक्षित रहना है तो लौट जाएं कलाकारों के
आदिम मन में

और वह हमारे लिए कितना शर्मनाक दिन होगा जब
मलबे से तमाम पत्थर जुलूस की तरह निकलेंगे
और बरस पड़ेंगे ईश्वर पर
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बुधवार, 22 सितंबर 2010

हिन्दी भाषा और राष्ट्रीयता : किरण बजाज

स्वतन्त्रता से २७ वर्ष पूर्व हमारे देश में जो राष्ट्रीयता की भावना थी जिसमें गांधी जी, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, दादाभाई नौरोजी, आदि बहुत से देशभक्तों ने अपनी आहुति दी और जन-जन में देश प्रेम कि अलख जगाई. वह राष्ट्रीयता की भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद (१९६५) श्री लाल बहादुर शास्त्री तक रही. उसके बाद राष्ट्र में बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गईं और राष्ट्रीयता का जोश धीरे-धीरे कम होता चला गया.

सोचना यह है कि राष्ट्रीयता क्या है? यह किसी एक बात पर निर्भर नहीं करती है. राष्ट्रीयता का मतलब है राष्ट्र के प्रति अद्भुत प्रेम, समर्पण की भावना, राष्ट्र की प्रत्येक वस्तु, नागरिक, प्रकृति और धरोहर से प्रेम एवं सबसे ज्यादा राष्ट्र की भाषा और संस्कृति के प्रति निष्ठा क्योंकि भाषा और संस्कृति आपस में जुडे. हैं.

राष्ट्र भाषा हिन्दी के लिये बहुत से स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार, पत्रकार और लेखकों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. परन्तु स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी का प्रयोग संसद जगत से लेकर मनोरंजन, व्यापार और शिक्षा जगत तक बहुत कम हो गया है. छोटे बच्चों को लोरी, हिन्दी की कविता और गीत सुनाये जाते थे. जिसका स्थान अंग्रेजी की ’ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार’ ने ले लिया है. गम्भीर चिंता का विषय यह है कि अंग्रेजी के प्रयोग के साथ-साथ हमारी भावना में हिन्दी के प्रति हीनता व उदासीनता की दीमक लग गई है. "२ फ़रवरी १८३५ में लार्ड मैकाले ने भारत भ्रमण करने के बाद इंग्लैंड की संसद में भाषण देते हुए कहा कि भारत की रीढ़ की हड्डी बडी मजबूत है. अगर हमें भारत पर विजय पानी है तो सबसे पहले उसे तोड़ना होगा और हमारी संस्कृति के प्रति लुभाना होगा जो कि बहुत आसान है." रीढ़ की हड्डी से उनका अभिप्राय हमारी भाषा और संस्कृति से था.

अगर हम यह बात समझ रहे हैं कि हमारी भाषा और संस्कृति पर बहुत चालाकी से चोटें हो रही हैं तो यह जरुरी है कि बहुत जोरदार तरीके से हर स्तर पर समीक्षा की जाये और वह बाधायें जो हमारे सामने आकर हमें गिराने का भरसक प्रयास कर रही हैं उसका डटकर सामना किया जाये. मजेदार बात यह है कि राजभाषा हिन्दी के साथ इतने अन्याय होने के बावजूद वह जिस तरह आगे बढ़ रही है अगर उसे वैज्ञानिक ढंग से समझ कर उसका प्रसार किया जाये और उन्नत किया जाये तो केवल भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन जायेगी.

आज सूचना-तकनीकी और इलेक्ट्रानिक व प्रिन्ट मीडिया में क्रान्ति ला दी है और उन्होंने चाहे अपने फ़ायदे के लिये ही शुरुआत की हो किन्तु उसमें अनायास ही हिन्दी का बहुत बडा फ़ायदा अपने आप हो गया है. दूसरा मनोरंजन जगत ने हिन्दी को बहुत प्रसार व बल दिया है. हमेशा अमेरिका में रहने वाला भारतीय भी अपनी प्रेमिका को कोई हिन्दी गज़ल बोलना नहीं भूलता. विदेशी कम्पनियों ने अपने फ़ायदे के लिये अपनी सूचना विवरणिका को हिन्दी में भी मुद्रित कराया है. यह अलग बात है कि हम इस बात को पहचाने नहीं. इस तरह हिन्दी पढ़ने, लिखने व बोलने वाले के लिये भी नौकरी के अवसर पैदा हो गये हैं.

सरकार, शिक्षण संस्थायें और बुद्धिजीवी सब मिलकर कम से कम हिन्दी प्रान्तों में पूरी समझदारी से और पारदर्शिता के साथ योजना बनायें और हिन्दी प्रान्तों में सभी विषयों को अच्छी तरह हिन्दी में सिखायें. हिन्दी प्रान्तों मे जब हिन्दी सशक्त होगी तभी तो वह राष्ट्रभाषा बन सकेगी. इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं सीखनी है. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है. उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता, इस कारण अंग्रेजी को भी द्वितीय भाषा के रूप में अच्छी तरह से सीखें. जिससे कि व्यवसाय आदि में उसका भावी पीढ़ी लाभ ले सके. किन्तु हिन्दी का हृदय से सम्बन्ध मां की गोदी से धरती की गोदी तक कम नहीं होना चाहिये और जन-जन की नस नस में हिन्दी का गौरव जब हम भरेंगे तब राष्ट्रीयता उपजेगी अन्यथा राष्ट्रीयता कोरा शब्द बनकर रह जायेगा.

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

विष्णु खरे का लेख विचारोत्तेजक है

मसिजीवी के ब्लाग पर जनसत्ता में प्रकासित विष्णु खरे का लेख पढा। लगा इस पर बहस होनी चाहिए।राय नामक तथाकथित कथाकार (कथाकार कहने में शर्म आती है) इतना अनर्गल बोले और लिखे और हिन्दी का लेखक पद,पुरस्कार,छ्पास आदि के अंधमोह में फंसकर कन्नी काटता फिरे,यह भी एक अक्षम्य अपराध है। हालांकि यह बात पुरानी सी हो गयी लगती है और राय नामक साहित्यकार के क्षमा मांग लेने से, कुछ लोग कह सकते हैं,छोडो भी,इतनी उठापटक तो हिन्दी वालों के लिए आम बात है।ऎसे वही लोग हैं जो साहित्य को मर्दों का लेखन मानते हैं,और स्त्रियों को चूल्हा-चौका करने वाली और--------------------पांव की जूती।ऎसे लोगों से विनम्र निवेदन हैकि यह लेख न पढें,सनातनी शील-भंग का खतरा ज्यादा है।
अपने ब्लाग की शुरूआत करते हुए एक बार फिर मैं विष्णु खरे का लेख  जनसत्ता और मसिजीवी के ब्लाग से साभार प्रस्तुत कर रहा हूं-                 महेश आलोक


साहित्य में प्रमाद -विष्णु खरे(1)


हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में बुग्ज-ए-लिल्लाहीजैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।
छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।
उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।
यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने छिनालके इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (पतितके साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।
गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने छिनालशब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है यानी उसे कबूल किया है और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।
इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्सया बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?
इस मामले को विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएंमानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।
प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।
यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।
यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर बा मुहम्मद होशियारजैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।
लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैंवाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।
आप एक्सपर्टबन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।
हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में पुरुष-वेश्याही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही अक्षतयोनापुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से कामायनीन पढ़ा कर कुट्टनीमतं काव्यंपढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।
देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है वहां यही लोग तो एक्सपर्टबन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।
यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। अकविता आंदोलनके बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।
विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (नैक्सस’) के बिना संभव न होता। नया ज्ञानोदयके संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ज्ञानोदयदरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी वल्गरप्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।
मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के धर्मयुगऔर सारिकासे होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।
साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया। (क्रमशः)