कभी- कभी कोई पुरानी कविता या गीत, जिसे लिखने के बाद आप भूल गए हों, पुरानी कतरनों या फाइलों के बीच अचानक 18-20 साल बाद प्रकट हो जाय, तो आपको कैसी अनुभूति होगी? आपका तो नहीं पता, मैं तो आश्चर्य मिश्रित आनन्द से अभिभूत था, जब यह गीत अचानक सामने प्रकट हो गया। कई बार पढ़ गया। काटने-छांटने की हिम्मत नहीं हुई। बिना किसी बदलाव के यह गीत आपके सामने प्रस्तुत है- महेश आलोक
हवा तमककर लगी सोखने
चकमक चकमक खरी रोशनी
फिर भी बस्ती में हल्ला है
कोई एक हवा ही कुटनी
अफवाहों-सी पसर गयी है
घात लगाए
सांसों- सांसों
रहे अहेरी बुलबुल विश्वासों में पगते
ड्योढ़ी-ड्योढ़ी
कोरे-कोरे
बिछे-बिछाए अनुबन्धों के आखर चुगते
बंसवारी की घास, धूप के
थक्के भर की बाट अगोरे
करम फूट सामन्ती दर्पण में मौसम क्यों अक्स बटोरे?
क्षितिजों तक बढ़ती शंकाएं
फिर भी मन ये अभुआता है
सच्चे अर्थों की आशंका छितर गयी है।
हाथ-हाथ भर
दूरी रखकर
छू पाएंगे सम्बन्धों की देहरी कैसे?
पढ़े पहाड़ा
उत्तरमाला
गलत-गलत अंकों में कुल संज्ञाएं भी उतरीं पटरी से
मौसम को रह रह थपियाएं
आंख बिछाएं या छापें अंखियन के छापे
कौन नियम अपनाएं जिनसे जिये आदमी
तान लगाए
कल-पुर्जों के शोर-शराबों में भी
सुनदर तान लगाए
बैठ गयी है निपढ़ एषड़ा चौखट-चौखट
फिर भी लगता
धरम निभाता सूरज
किरना हौले-हौले
छत पर पग धर उतर गयी है।
1 टिप्पणियाँ:
Mahesh ji me ne apka blog dekha aur padha aap ki to baat hi nirali hai
Abhay Dixit
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