अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 30 मई 2012

शायरी मैंने ईजाद की (पाकिस्तानी कवि अफजाल अहमद सैय्यद की कविता)


अफजाल अहमद सैय्यद का जन्म गाजीपुर (उ.प्र.) में सन् 1946 में हुआ। उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - ‘छीनी हुई तारीख’ (1984), ‘दो जुबानों में सजा-ए-मौज’ (1990) तथा ‘रोकोको और दूसरी दुनियाएँ’ (2000) कविताओं के अलावा उनका एक ‘ग़ज़ल-संग्रह’ ‘खेमा-ए-सियाह’ नाम से प्रकाशित है।


शायरी मैंने ईजाद की- अफजाल अहमद सैय्यद

शायरी मैंने ईजाद की
कागज मिराकिश शहर के निवासियों ने ईजाद किया
हुरूफ फोनिश के निवासियों ने
शायरी मैंने ईजाद की

कब्र खोदने वालों ने तंदूर ईजाद किया
तंदूर पर कब्जा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई
रोटी लेने वालों ने कतार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा

रोटी की कतार में जब चींटियाँ भी आ खड़ी हो गयीं
तो फ़ाका ईजाद हुआ

शहतूत बेचने वालों ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिबास बनाये
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने अन्तःपुर ईजाद किया
जहाँ जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया

फासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किये
तेज़ रफ्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज रफ्तार के आगे लिटा दिया गया

मगर उस वक्त तक शायरी ईजाद हो चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खेमा और कश्तियाँ बनायीं
और दूर-दराज मकामात तय किये

ख्वाजासरा ने मछली पकड़ने का काँटा ईजाद किया
और सोये हुए दिल में चुभोकर भाग गया
दिल में चुभे हुए काँटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद की
और
जबर ने आखिरी बोली ईजाद की

मैंने सारी शायरी बेचकर आग खरीदी
और जबर का हाथ जला दिया।

(मलबूस = वस्त्र, लिबास। ख्वाजासरा = हरम का रखवाला हीजड़ा। जबर = अत्याचार)

काव्य- प्रसंग से साभार- प्रस्तुतकर्ता- परमेन्द्र सिंह

गुरुवार, 24 मई 2012

ब्रेख्त की कविताएँ


 ब्रेख्त की कविताएँ

(बढ़ती महंगाई और बढ़ती गरीबी ... और शासन की भूमिका ... इस पर सवाल उठाए जाते हैं, उठाए जाने चाहिए। सरकार के अपने तर्क होते हैं जो जाहिर है - पूंजीपतियों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। जनता का क्या है, वह तो मुद्रा-स्फीति की दर को कम करने के लिए बलि का बकरा बनती आई है। अपनी सरकार चलाना देश चलाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठता है। बर्तोल्त ब्रेख्त की ये कविताएँ इस संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो उठती हैं -)

शासन चलाने की कठिनाइयाँ
- 1 -
मंत्री जनता से बिना रुके कहे जाते हैं
कितना मुश्किल है राज चलाना।
मंत्रियों के बिना
अनाज की बाली ऊपर के बजाय धरती के अन्दर बढ़ने लगेगी
खान से कोयले का एक टुकड़ा भी नहीं निकलेगा
अगर चांसलर इतना होशियार न हो
प्रचार मंत्री के बिना
कोई औरत पैर भारी कराने को राजी नहीं होगी
युद्ध मंत्री के बिना
कोई युद्ध ही नहीं होगा
जी हाँ, सुबह का सूरज उगेगा या नहीं
यह भी तय नहीं है, और अगर उगता भी है,
तो गलत जगह पर।

-2-
इसी तरह मुश्किल है, जैसा कि वे कहते हैं -
कोई कारखाना चलाना / मालिक के बिना
दीवारे ढह जाएँगी और मशीनों में जंग लग जाएगा, कहा जाता है
अगर कहीं कोई हल तैयार भी कर लिया जाए
खेत तक व पहुँच ही नहीं पाएगा, अगर
कारखाने का मालिक किसानों को न बतावे: आखिर
उन्हें पता कैसे चलेगा कि हल बनाए जाते हैं ? इसी तरह
जमींदारों के बिना खेतों का क्या होगा ? बेशक
जहाँ आलू बोया गया हो, उसी खेत में बाजरा छिड़का जाएगा।

- 3 -
अगर राज चलाना आसान होता
फिर महानेता की तरह प्रतिभाओं की जरूरत ही न पड़ती
अगर कामगारों को पता होता कि मशीन कैसे चलाई जाती है
और किसान को अपने खेत का शऊर होता
फिर तो कारखाने के मालिकों और जमींदारों की
जरूरत ही न रह जाती
पर चूँकि वे इतने बेवकूफ हैं
कुछ एक की जरूरत है, जिनके दिमाग तेज हों।

- 4 -
यार फिर बात क्या ऐसी है
कि राज चलाना सिर्फ इसलिए मुश्किल है
क्योंकि लूटना और धोखा देना सीखना पड़ता है।

कलाकार के रूप में सरकार
- 1 -
महल और स्टेडियम बनाने के लिए
काफी धन खर्च किया जाता है
सरकार इस मायने में कलाकार भी होती है, जिसे
भूख की फिक्र नहीं रहती, अगर मामला
नाम कमाने का हो
बहरहाल
जिस भूख की फिक्र सरकार को नहीं
वो भूख दूसरों की है, यानी
जनता की।

- 2 -
कलाकार की तरह
सरकार की भी जादुई ताकत होती है
अगर कुछ न भी बताया जाए
हर बात का पता रहता है उसे
जो कुछ उसे आता है
उसे सीखा नहीं है उसने
उसने कुछ भी सीखा नहीं है
तालीम उसे
कतई कायदे से नहीं मिली, फिर भी अजूबा कि
हर कहीं वो बोल लेती है, हर बात तय करती रहती है
जिसे वो समझ नहीं पाती उसे भी।

- 3 -
कलाकार बेवकूफ हो सकता है और इसके बावजूद
महान् कलाकार हो सकता है
यहाँ भी
सरकार कलाकार की तरह है
कहते हैं रेम्ब्राण्ट के बारे में
ऐसी ही तस्वीरें उसने बनाई होतीं, अगर उसके हाथ न भी रहे होते
वैसे ही
कहा जा सकता है सरकार के बारे में कि उसने
बिना सिर के भी ऐसे ही राज चलाया होता।

- 4 -
मार्के की है
कलाकार की खोज की प्रतिभा
सरकार भी जब
हालत का बखान करती है, कहते हैं लोग
क्या बनाई है बात
अर्थनीति से
कलाकार को सिर्फ नफरत है, उसी तरह
सरकार को भी अर्थनीति से नफरत है
बेशक उसके कुछ मालदार भक्त हैं
और हर कलाकार की तरह
जीती है वह भी, उनसे
पैसे लेकर।


(काव्य - प्रसंग से साभार)
(ये कविताएँ ‘ब्रेख्त एकोत्तर शती’ से साभार ली गई हैं, जिनका अनुवाद उज्ज्वल भट्टाचार्य ने किया है।)