अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 16 नवंबर 2011

‘ठेठ हिन्दी गीति परंपरा’ के गीतकार नन्दलाल पाठक -- महेश आलोक

                  समर्थ कवि,चिन्तक प्रो०नन्दलाल पाठक का जन्म ३जुलाई १९२९ को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के औरिहार नामक कस्बे में हुआ।  जीवन के बयासी बसन्त देख चुके प्रो० पाठक पेशे से हिन्दी के प्राध्यापक रहे हैं। आप अध्यक्ष- हिन्दी विभाग, सोफाया महाविद्यालय,मुम्बई तथा मुम्बई विश्वविद्यालय,मुम्बई से हिन्दी के स्नातकोत्तर प्राध्यापक के पद से १९८९ में सेवानिवृत्त होकर भी रचनाकार के रूप में चिर युवा हैं। समकालीन हिन्दी कविता के बड़े कवि केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा था कि रचनाकार कभी सेवानिवृत्त नहीं होता, रचना प्रक्रिया,विचार और संवेदना के स्तर पर और परिपक्व होता है। पाठक जी के नए कविता संग्रह " फिर हरी होगी धरा " की कविताओं से गुजरते हुए केदार जी द्वारा कही गयी बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है।
       प्रो० पाठक  के अब तक तीन कविता संग्रह -"धूप की छांह" (१९७५),"जहां पतझर नहीं होता" (१९९९) तथा "फिर हरी होगी धरा "(२००९)"प्रकाशित हो चुके हैं। इन संग्रहों की व्यापक चर्चा भी हुयी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ठेठ गीति काव्य परंपरा में डा० शंभूनाथ सिंह के पश्चात जो कुछ नाम अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं ( जैसे वीरेन्द्र मिश्र, गोपालदास नीरज,सोम ठाकुर, उदयप्रताप सिंह आदि), उनमें एक ओजस्वी और प्रखर कड़ी के रूप में नन्दलाल पाठक आज भी पूरी रचनात्मक मूल्यनिष्ठा के साथ सक्रिय हैं।
        हिन्दी गज़ल आपकी प्रिय विधा है। दुष्यन्त कुमार के पश्चात हिन्दी गज़ल में अनेक प्रयोग हुए हैं। डा० शेरजंग गर्ग,बलवीर सिंह ‘रंग’, डा० कुंवर बेचैन, डा० उर्मिलेश, अदम गोंडवी, चन्द्रसेन विराट आदि रचनाकारों ने निश्चय ही हिन्दी गज़ल को एक नया रचनात्मक तेवर दिया है, लेकिन नन्दलाल पाठक अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होने हिन्दी गज़ल को "हिन्दी गीति काव्य" का महत्वपूर्ण अंग माना है और इस अर्थ में हिन्दी गज़ल   से उनका रिश्ता ‘ठेठ हिन्दी की गीति परंपरा’ से जुड़कर बिल्कुल नया हो जाता है।
       प्रो०नन्दलाल पाठक भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ पाठक हैं, विद्वान हैं। आपने ‘भगवद्‌गीता’ की आधुनिक दृष्टि से व्याख्या की है।सन्‌ २००५ में प्रकाशित आपकी बहुचर्चित भाष्य कृति ‘‘भगवद्‌गीता-आधुनिक दृष्टि ’ इस अर्थ में उल्लेखनीय है कि इसमें गीता की समकालीन प्रासंगिकता को सार्थक जीवन मूल्यों की दृष्टि के आलोक में , भाष्य की पारंपरिक अवधारणा बरकरार रखते हुए ,उसी शिल्प में पुनर्व्याख्यायित किया गया है। निश्चय ही ‘गीता भाष्य’ की परंपरा में यह कृति ‘मील का पत्थर’ है।
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मंगलवार, 17 मई 2011

कुछ समय के लिये स्थगित कर दें प्रेम - महेश आलोक

                              कुछ समय के लिये स्थगित कर दें प्रेम
        
                                                                                        - महेश आलोक
        
        चलो कुछ समय के लिये स्थगित कर दें प्रेम
    
        स्थगित कर दें इच्छायें
        कुछ वैचारिक संरचनायें

        यह समय है जब ईश्वर के पके बालों को गिरने दें
        पृथ्वी पर। स्थगित कर दें उसे गिरने से रोकना
        बाजार के नियम लागू होने दें उस पर

        दुनिया की विशाल तख्ती को थोड़ा और फैलायें
        कल्पना में। कल्पना में कल्पना को स्थगित कर दें
        कर दें स्थगित
        स्थगित होने की क्रिया को

        बहुत लंबे समय तक स्मृतियों में रहना मुश्किल है
        स्मृतियों को स्थगित कर दें

        केवल चलने दें सांसों को सांसों के भीतर
        केवल स्थगित कर दें प्रेम
        प्रेम को जीवित रखने के लिये 


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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अपराधियों से कैसे बचाए लोकतंत्र को- - नवीन चन्द्र लोहनी


अन्ना हजारे का नाम भ्रष्टाचार के विरोध के प्रतीक के रूप में इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है उन्होंने इन दिनों एक खास बात और की है जो भ्रष्टाचार की जड़ पर कुठाराघात करने वाली है और वह है किसी भी उम्मीद्वार को वोट देने से ना कहने का अधिकार ।
भारतीय राजनीति में यह समय सुधारों पर चर्चा का है तो आइए गौर करते हैं कि संसद, विधानसभा से लेकर पंचायत तक के चुनावों में किसी भी उम्मीद्वार से असहमति की दशा में असहमति के मत का प्राविधान भी हो जाना चाहिए । किसी भी उम्मीदवार पर सहमत न होने की दशा में असहमति का मत देने के अधिकार पर बहस यद्यपि अभी कानूनी गलियारों में ही सिमटी हुई है परंतु जनतंत्र की जिस वास्तविकता से हम दो चार हो रहे हैं उसमें किन्हीं चार अवांछितों में से एक को चुनने की मजबूरी के चलते मूल जनतांत्रिक अधिकारों में से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन लगातार हो रहा है। राजनीतिक दलों के मुखौटे लगाए हुए ये कथित नेतागण अपनी हरकतों से जनतंत्र को बार-बार शर्मसार करते हैं।
हाल के दिनों में आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं का संसद में सैकड़ा पार कर जाना चिंतनीय है। यह चिन्तनीय है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग कानून निर्माण की प्रक्रिया में शामिल होंगे तो वे किस तरह का चिंतन, मनन प्रस्तुत कर रहे होंगे? क्या उनके सोच में आम आदमी की सेवा होगी, देशभक्ति का जज्बा होगा। जब वे अपराध जगत से राजनीति में आते हैं और राजनीति में इसलिए बने रहते हैं ताकि अपने आपराधिक कुकृत्यों पर परदा डाले रह सकें और पुलिस प्रशासन आदि चाह कर भी उनके खिलाफ कानूनी धाराओं पर अमल न कर सके। इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि धनबल, बाहुबल के भरोसे लोकतंत्रा को हथियाने की नीयत रखने वाले इन अपराधियों को चुन कर लोकतंत्र के मंदिरों भेजने के लिए कौन जिम्मेदार है? तो हाथ केवल जनता की तरफ ही इशारा नहीं करेगा, क्योंकि जनता को किसी को भी नहीं चयन करने की आजादी नहीं है ।
आज इस मुद्दे पर बहस आवश्यक है कि अपराधी के बड़े हो जाने के बाद ही वह हेय है या उसके प्रारम्भिक अपराधों पर ऐसी रोक लगनी चाहिए कि वह भविष्य में किसी बड़े अपराध के लिए तैयारी न कर सके। भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते हुए महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू आदि राजनेताओं ने कभी नहीं चाहा था कि लोकतंत्र ऐसे हाथों में चला जाए जो कि सच्चरित्रता, सदाचार, संयम, नैतिकता आदि गुणों के खिलाफ जीवनशैली रखते हों।
गठबंधन राजनीति आने के साथ-साथ ऐसे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का महत्व और भी बढ़ रहा है। चुनाव क्षेत्रों में अपने आपराधिक दबदबे के कारण वोट हथिया लेने के बाद संसद अथवा विधानमंडल पहुंचते ही दिए गए मतों के बदले या तो स्वयं को नोटों के गिरवी कर देते हैं या फिर मंत्री पद प्राप्त करने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं। पिछले एक दशक में ऐसे सफल लोगों की लम्बी सूची है जो धन लेकर अपनी संसदीय शक्ति को बेचते-खरीदते पाए गए। स्वाभाविक है कि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ यह चिंतन भी बढ़ रहा है कि आम आदमी इन घोटालेबाजों अथवा कुर्सी व धन को गिरवी रख देने वाले लोगों से कैसे निपटे।
शुचिता की दुहाई देने वाले कई राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा भी जब अपराधी के बदले अपराधी, धनकुबेर के बदले धनकुबेर को प्रत्याशी बनाया जाने लगा तो यह चिंता बढ़ जाती है कि आम आदमी किसी तरह ऐसे मामले में अपना विरोध दर्ज कर सके, क्योंकि अगर वह अपने मताधिकार का उपयोग नहीं करता है, तब भी अपराधी उसके मत का उपयोग बूथ कैप्चरिंग अथवा अन्य तरीकों से अपने पक्ष के उम्मीदवार के लिए करवा लेते हैं। यह आवश्यक है कि अब सभी ऐसे पदों के लिए एक ऐसा विकल्प भी होना चाहिए जहां लोग राजनीतिक दलों के इस खेल में अपना साफ-साफ विरोध और असहमति दर्ज कर सकें। तब एक ऐसे मतदान की आजादी का प्रश्न ही आता है, जहां असहमति व्यक्त करते समय न केवल मत सुरक्षित हो सके अपितु उसका दुरूपयोग भी रोका जा सके। इस तरह के निश्चित संख्या में मतों के होने पर चुनाव रद्द करने की भी छूट हो। यहां यह भी कहना होगा कि मतदाताओं की सूची में न केवल समय-समय पर सही-सही संशोधन किए जाएं अपितु मतदाता सूची में हुई गलती के लिए जिला स्तर पर किसी न किसी अधिकारी को जिम्मेदार बनाया जाए।
हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति भी जोर पकड़ती जा रही है कि काफी मतदाताओं के नाम सूची से अकारण गायब पाए जाते हैं और उसके लिए कोई भी व्यक्ति जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। तब ऐसे में मतदान के लोकतांत्रिक अधिकार की प्रारम्भिक शर्त ही खत्म हो जाती है। इस गड़बड़ी को दुरूस्त करना होगा, तभी मतदान के अधिकार की रक्षा की जा सकती है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक है कि मतदान न केवल हो अपितु वह स्वेच्छा तथा स्वविवेक से किया जा सके, उसके लिए कोई दबाव न हो और उसकी गोपनीयता की रक्षा हो। उसके लिए आवश्यक होगा कि हाल के वर्षों में सुझाए गए तरीकों से अपराधियों को किसी भी दल अथवा निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने से रोका जाए।
इसके लिए चुनाव आयोग को सर्वोच्च न्यायालय के उन निर्देशों को ध्यान में रखना होगा तथा आम आदमी की इस पीड़ा को भी समझना होगा जिससे कि वह मजबूरन एक अपराधी को चुनने के लिए अभिशप्त न हो। वे ऐसे किसी व्यक्ति को अपना मत दें अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को आगे कर चुनाव लड़ाएं जिसमें फिलहाल ऐसे अपराधी से लड़ने की कूबत भले ही न हों परंतु अगर वह चुनाव लड़े तो दागियों, अपराधियों, सजायाफ्रता और उसके बीच अंतर स्पष्ट हो सके।...................


-नवीन चन्द्र लोहनी

रविवार, 17 अप्रैल 2011

अंतिम आदमी अंतिम रास्ता - - महेश आलोक

                      अंतिम आदमी अंतिम रास्ता
                                                                - महेश आलोक


        अंतिम रास्ता जहां मैदान के साथ छोड़ता है शहर
        वहीं अंतिम आदमी रास्ता बनाता है
        अंतिम आदमी के पास रास्ता बनाने के नियम हैं
        अंतिम आदमी पहले नियम में रास्ता बनाता है
        नियम में इतना कुहरा है कि कुहरा रास्ता की तरह
        दिखता है। कुहरा में सचमुच का अंतरिक्ष है। सचमुच
        का आकाश है अंतरिक्ष में। अंतरिक्ष में
        जितना आकाश है उतने आकाश में सचमुच का
        सूरज है। जितनी सूरज में रोशनी है उतना सूरज में
        रास्ता है। जितना सूरज में रास्ता है उतनी पृथ्वी
        अंतिम आदमी के पास है जहां उसका घर है जहां
        अंतिम रास्ता मैदान के साथ
        छोड़ता है शहर

       अंतिम आदमी के पास एक अंतिम रास्ता है

       मैंने सुना है जिस दिन बनायेगा वह अंतिम रास्ता
       पृथ्वी किसी लदे-फंदे ट्रक की तरह
       भाग न जाये
       अपने गर्भ में 

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सोमवार, 14 मार्च 2011

यहां बहुत गड़बड़ है - महेश आलोक

यह कविता कब लिखी थी, स्मृति में नहीं है। आज अचानक  पुरानी डायरी में एक ड्राफ़्ट में लिखी हुयी प्रकट हो गयी। मैने इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया है- आपके सामने है।
                                                                                                    - महेश आलोक

यहां बहुत गड़बड़ है  
                  
                                                                                                              - महेश आलोक

 बहुत गड़बड़ है। यहां बहुत गड़बड़ है

 संसद की अंतिम मंजिल से कोई प्रधानमंत्री किसी मोटे सपने में
 कूदता है और हवाओं में त्रिशूलों का उड़ना  किसी  सांस्कृतिक
 उत्सव में तब्दील हो उठता है। कोई तानाशाह हंसता है या रोता   
 है कोई मृत्यु किसी दक्षिणी ध्रुव पर भरतनाट्यम् का अभ्यास
 करने लगती है

 बहुत गड़बड़ है                   
         
चंद्रमा के ठंढा या गरम होने से कत्तई फर्क नहीं पड़ता किसी पर
यहां दायें हाथ की अनामिका बायें की मध्यमा से इस तरह नफरत
करती है कि उसकी सांसों को सुनना दो खिड़कियो से एक साथ
झांकना है

आंसुओं के चरित्र से आंखों की नसों में उतरना
सूरज की नसों में उतरना है
  
क्या गड़बड़झाला है कि रोशनी की प्रगतिशीलता तक संदिग्ध है
वह उन मारे गये सैनिकों पर उतरने से परहेज करती है
जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है
   
यहां तूफान की आत्मा में सन्नाटा तमाशा देखता है
किसी मस्तक में छायी कोई घनीभूत पीड़ा इतनी हास्यास्पद
हो जाती है कि संसद की अंतिम ईंट तक
प्रसन्न हो उठती है

मित्रों! बहुत गड़बड़ है। किससे कहूं कि इस समय ईश्वर
कविता में बांसुरी बजा रहा है

      
                         ’’’’’’’’’’’’’’’’’
                                        

रविवार, 6 मार्च 2011

मानव अधिकारों की अवधारणा एवं भारत की भूमिका - डा0 पुष्पा कश्यप

           मानव सभ्यता का इतिहास उत्थान व पतन के विभिन्न पहलुओं का सामना करता हुआ निरंतर प्रवाहमान है। परिवर्तन की इस संश्लेषणात्मक विकास गाथा में हर नये दर्षन व विचार का अंकुर अपनी पुरानी मान्यता के पतन पर अवस्थित है। मानवाधिकार शब्द की भी मूल संकल्पना कुछ ऐसी ही है, जिसमें 1215 का मैग्नाकार्टा, 1628 का पैटिशन आफ राइट, 1689 का बिल आफ राइट्स, 1776 का अमेरिकी घोषणा पत्र, 1789 का फ्रांसीसी मानव और नागरिक अधिकार पत्र, 1920 में राष्ट्र संघ की स्थापना, अक्टूबर 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म, मानव अधिकारों की रक्षा एवं शान्ति की स्थापना के लिए हुआ था। विश्वराज्य व्यवस्था के उद्देश्यों के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों के ध्येय को प्राप्त करने के लिए अपने एक निकाय- ‘‘आर्थिक व सामाजिक परिषद’’ को मानवाधिकारों के रक्षार्थ कोई ठोस योजना बनाने का दायित्व सौंपा। इस परिषद ने संयुक्त राष्ट्रसंघ चार्टर की धारा 68 के तहत 1946 में श्रीमती एलोनोर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया, इस आयोग ने मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा जून 1948 में की। इस घोषणा को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने हथियारों की बर्बरता के विरूद्ध शान्ति की भावना का विकास करने वाले वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबल के जन्मदिवस 10 दिसम्बर को स्वीकार कर लिया तथा इस दिवस (10 दिसम्बर) को मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। समय के साथ विश्व के लगभग सभी देशों में मानव अधिकारों को अपने-अपने संविधानों में एक आधारभूत उद्देश्यों के रूप में लिया।
    मानवाधिकार से तात्पर्य उन अधिकारों से है जो मानव जाति के विकास का मूलभूत आधार है। यह सभी समाजों में अन्तर्निहित वहु-व्यवस्था है जिसमे जाति, लिंग, वर्ण तथा राष्ट्रीयता के आधारों पर भेदभाव नहीं किया जा सकता, इसका भौतिक, नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक कल्याण के लिए व्यापक महत्व है। मानवाधिकारों की मूल अवधारणा सार्वभौमिक होने के कारण आधुनिक विश्व के लिए हमेशा महत्वपूर्ण रही है। 10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संध की महासभा द्वारा जारी किये गये सार्वभौमिक घोषणा पत्र में 30 अनुच्छेद हैं, इसमें सभी देशों के सभी लोगों के लिए सामान्य उपलब्धि स्तर रखा गया है। इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, आर्थिक सांस्कृतिक सुरक्षा एवं विकास के अधिकार को विशेष रूप से महत्व दिया गया। इन अधिकारों की सूची तैयार की गयी जिसमें राजनैतिक सामाजिक अधिकार, स्त्रियों के अधिकार, बच्चों के अधिकार, समूह के अधिकार, धर्म व जाति के आधार पर विभिन्नता के उन्मूलन का अधिकार, श्रमिक के अधिकार आदि सभी को शामिल किया गया।
सर्वविदित है कि 30 धाराओं वाली यह घोषणा लोकतान्त्रिक तथा समाजवादी शक्तियों के बढे़ हुये प्रभाव के अंतर्गत और मानव अधिकारों तथा लोकतन्त्र की रक्षा के लिए व्यापक जन साधारण की सशक्त कार्यवाहियों के फलस्वरूप ही स्वीकार की गयी थी। इसकी प्रास्तावना में ‘‘मानवजाति की जन्म जाति गरिमा व सम्मान और अधिकारों’’ पर बल दिया गया है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा प्रस्तुत 30 अनुच्छेदों वाला सार्वजनिक घोषणा पत्र इस प्रकार है-
अनुच्छेद1 - सभी मनुष्य जन्म से स्वतन्त्र हैं। अधिकार एवं मर्यादा में समान हैं। उनमें विवेक और बुद्धि है अतएव उन्हें एक दूसरे से भ्रातृभाव वाला व्यवहार रखना चाहिए।
अनुच्छेद 2- प्रत्येक व्यक्ति बिना जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म राजनीतिक अथवा सामाजिक उत्पत्ति, जन्म अथवा दूसरे प्रकार के भेदभाव के इस धोषणा में व्यक्त किये हुये सभी अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं का पात्र है। इसके अतिरिक्त किसी स्थान अथवा देश के साथ, जिसका वह नागरिक है, राजनीतिक परिस्थिति के आधार पर भेद नहीं किया जायेगा, चाहे वह स्वतन्त्र हो अथवा स्वशासनाधिकार से विहीन हो।
अनुच्छेद 3 - प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता व सुरक्षा का अधिकार है।
अनुच्छेद 4 - कोई व्यक्ति दासता या गुलामी में नही रखा जा सकेगा। दासता व दास व्यवहार सभी क्षेत्रों में सर्वथा निषिद्ध होगा।
अनुच्छेद 5 - किसी व्यक्ति को क्रूरता या अमानुषिकता पूर्ण दण्ड नहीं दिया जायेगा और अपमानजनक बर्ताव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 6 - प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार होगा कि वह  सर्वत्र कानून के अधीन व्यक्ति माना जाये।
अनुच्छेद 7 -कानून के समक्ष सभी समान हैं और कानूनी सुरक्षा के अधिकारी है। यदि इस धोषणा के विरूद्ध भेदभाव का आचरण किया उस अवस्था में समान रूप से रक्षाके अधिकारी है।
अनुच्छेद 8 - प्रत्येक व्यक्ति को संविधान या कानून द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों को भंग करने वाल कार्यो के विपरीत राष्ट्रीय न्यायालयों के  समक्ष संरक्षण पाने का अधिकार होगा।
अनुच्छेद 9 - किसी व्यक्ति का बिना जानकारी के गिरफ्तारी, कैद अथवा निष्कासन न हो सकेगा।
अनुच्छेद 10 - प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्र और निष्पक्श न्यायालय द्वारा अपने अधिकारों और कर्तव्यो के तथा अपने विरूद्ध आरोपित किसी अपराध के निर्णय के लिए उचित और खुलेआम तरीके से सुने जाने का समान अधिकार होगा।
अनुच्छेद 11 - व्यक्ति पर जिस दण्डनीय अपराध का आरोप है, उसे तब तक अपने को निर्दोष प्रमाणित करने हेतु सुविधा प्राप्त हो जब तक अपराध सिद्ध नहीं हो जाता। जो अपराध करने के समय किसी राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार दण्डनीय नहीं था, उस अपराध हेतु, अपराध के बाद बने कानून के द्वारा किसी व्यक्ति को दण्डित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 12- किसी पारिवारिक व पत्र व्यवहार की गोपनीयता में मनमाना दखल नहीं दिया जायेगा एवं न उसके सम्मान व ख्याति पर आघात पहुॅचाया जायेगा।
अनुच्छेद 13 - प्रत्येक व्यक्ति को अपने राज्य की सीमा के भीतर आवागमन और निवास की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा।
अनुच्छेद 14 - प्रत्येक व्यक्ति को प्रताड़ना से बचाने के लिए किसी भी देश में आश्रय लेने और सुख से रहने का अधिकार है। अराजनैतिक अपराध, संयुक्त राश्ट्र संध के उद्देश्यों व सिद्धान्तों के विरूद्ध होने वाले कार्यो के फलस्वरूप दंडित व्यक्ति ही इस अधिकार से वंचित रहेगें।
अनुच्छेद 15 - प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रीयता का अधिकार है। व्यक्ति को उसकी राष्ट्रीयता से मनमाने तरीके से वंचित नहीं किया जा सकेगा और उसको राष्ट्रीयता परिवर्तन करने के मान्य अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकेगा।
अनुच्छेद 16 - वयस्क पुरूष व स्त्री को जाति, राष्ट्रीयता व धर्म की सीमा से परे विवाह करने और परिवार स्थापित करने का अधिकार होगा। उन्हें विवाह करने वैवाहिक जीवन बिताने और सम्बन्ध विच्छेद करने के समय समान अधिकार है।
- विवाह के इच्छुक दम्पती की पूर्ण स्वतन्त्रता और स्वीकृति पर विवाह सम्पन्न होगा।
- उन्हें परिवार, समाज व राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है।
अनुच्छेद 17- प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का अथवा दूसरों के साथ सम्पत्ति रखने का अधिकार है। कोई भी अपने सम्पत्ति से मनमाने तौर से वंचित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 18- प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अनुभूति तथा धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है इस अधिकार के अन्र्तगत अपने धर्म या मत को परिवर्तन करने की स्वतन्त्रता और धर्म तथा मत का उपदेश, प्रयोग और परिपालन सार्वजनिक अथवा एकान्त में करने की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।
अनुच्छेद 19- प्रत्येक व्यक्ति को विचार करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। इसके अंतर्गत स्वेच्छा से मत स्थिर करने और किसी भी भौगोलिक सीमा एवं माध्यम से विचार और सूचना माॅगने, प्राप्त करने और देने की स्वतन्त्रता सम्मिलित है।
अनुच्छेद 20 - प्रत्येक व्यक्ति को शान्तिपूर्ण ढंग से एकत्रित होने और सभा करने की स्वतन्त्रता है। किसी व्यक्ति को संस्था में सम्मिलित होने के लिए विवश नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 21 - प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश के प्रशासन में स्वतन्त्रता पूर्वक निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा भाग लेने का अधिकार है।
- प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की सरकारी सेवा में पहॅुचने की समान सुविधा का अधिकार है।
- लोकमत ही प्रशासन के शासनाधिकार का आधार होगा। यह लोकमत निश्चित अवधि के बाद और सही तौर से किये गये चुनावों द्वारा प्रकट होगा। ये चुनाव सर्वसाधारण के समान मताधिकार से और गुप्त मतदान द्वारा अथवा इसीप्रकार की किसी स्वतन्त्र मतदान प्रकिया द्वारा सम्पन्न होगें।
अनुच्छेद 22 - प्रत्येक व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते समाजिक सुरक्षा का अधिकार रखता है। राष्ट्रीय प्रयत्न और अन्र्तराष्ट्रीय सहयोग के द्वारा तथा प्रत्येक राज्य के संगठन और  साधन के अनुसार आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को, जो उसके गौरव एवं व्यक्तित्व के स्वतन्त्र विकास के लिए आवश्यक है प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
अनुच्छेद 23 - व्यक्ति को कार्य करने, जीविका हेतु व्यवसाय चुनने, कार्य की उचित व अनुकूल दशा प्राप्त करने तथा बेरोजगारी से सुरक्षित रहने का अधिकार है।
- व्यक्ति को बिना भेदभाव के समान कार्य हेतु समान वेतन पाने का अधिकार है।
- व्यक्ति अपने कार्य के लिए उचित व अनुकूल वेतन पाने का अधिकारी है। जिससे अपनी तथा अपने परिवार की मानवीय प्रतिष्ठा के अनुकूल सत्ता कायम रखना सुनिश्चित हो सके साथ ही यदि आवश्यक हो तो सामाजिक संरक्षण के अन्य साधन भी प्राप्त हो सकें।
अनुच्छेद 24 - प्रत्येक व्यक्ति को विश्राम और अवकाश का अधिकार है। साथ ही साथ काम के धंटों का समुचित निर्धारण और अवधि के अनुसार सवेतन छुट्टियों का अधिकार है।
अनुच्छेद 25 - प्रत्येक व्यक्ति को एक ऐसा जीवन स्तर कायम करने का अधिकार है जो उसके और उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं सुख के लिए पर्याप्त हों। इसमें भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा की सुविधा तथा आवश्यक समाज सेवाओं की उपलब्धि तथा बेकारी, बीमारी, शारीरिक असमर्थता, वैधव्य, वृद्धावस्था या काबू के बाहर परिस्थितियों के कारण जीविका के साथ-साथ उसका ह्नास सम्मिलित है।
अनुच्छेद 26 - प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा पाने का अधिकार है। शिक्षा कम से कम प्रारम्भिक और मौलिक अवस्था में निःशुल्क होगी। प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य होगी। तकनीकी और व्यावसायिक आधार पर उच्च शिक्षा सभी समान रूप से प्राप्त कर सकेंगे। शिक्षा का लाभ मानव व्यक्तित्व का पूर्ण विकास और मानव अधिकारों एवं मौलिक स्वतन्त्रताओं की प्रतिष्ठा बढाना होगा। शिक्षा द्वारा सभी राष्ट्रों और जातियों एवं धार्मिक समूहों के सद्भाव, सहिष्णुता और मैत्री की अभिवृद्धि की जायेगी एवं शान्ति कायम रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संध के कार्यो को शिक्षा द्वारा बढाया जायेगा।
 - माता पिता को अपनी संतान हेतु शिक्षा के प्रकार को चुनने का अधिकार है।
अनुच्छेद 27 - प्रत्येक व्यक्ति एैसी सामाजिक और अन्र्तराष्ट्रीय व्यवस्था का अधिकारी है, जिससे इस धोषणा में निर्दिष्ट अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की पूर्ण प्राप्ति हो सके।
अनुच्छेद 28 - प्रत्येक व्यक्ति को समाज के सांस्कृतिक जीवन में स्वतन्त्रतापूर्वक भाग लेने व कलाओं का आनन्द लेने और वैधानिक विकास से लाभान्वित होने का अधिकार है।
अनुच्छेद 29 - समाज के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के कुछ ऐसे कर्तव्य हैं जिनसे उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास सम्भव है, अपने अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं का उपभोग करने में प्रत्येक व्यक्ति को उन सीमाओं के भीतर रहना होगा, जो कानून द्वारा इस उद्देश्य से निर्धारित की गयी है कि दूसरों के अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का  अपेक्षित सम्मान एवं प्रतिष्ठा हो सके
     उन अधिकारों और स्वतंत्रताओं का संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों के विरूद्ध किसी भी दशा में प्रयोग न किया जाये।
अनुच्छेद 30 - इस घोशणा पत्र में दिये गये किसी भी आदेश के एैसे अर्थ न लगाये जायें जिससे किसी राज्य को, समूह अथवा व्यक्ति को, किसी काम में लगाने या करने का आधार मिले जिसका इस धोषणा पत्र में वर्णित अधिकारों और स्वतंत्रताओं में से किसी को नष्ट करने का उद्देश्य हो।
    उपरोक्त वर्णित अधिकारों से यह स्पष्ट है कि 10 दिसम्बर 1948 की धोषणा में संयुक्त राष्ट्र संध की महासभा ने उन सभी अधिकारों को शामिल किया है जो मानव जीवन के उत्थान तथा कल्याण के लिए आवश्यक है। इस घोषणा पत्र को ‘‘मानवता का दमकल’’ कहा गया है। श्रीमती रूज वेल्ट ने इस घोषणा पत्र को समस्त मानव समाज के मैग्नाकार्टा का नाम दिया है।
    मानवधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पत्र के परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार ने मई 1993 में मानवधिकार आयोग का गठन कर इस दिशा में सार्थक भूमिका निभायी है। भारत के संविधान की प्रस्तावना से स्पष्ट होता है कि भारत के सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता का अधिकार देता है, तो अनु0 15 भेदभाव पर रोक लगाता ह। 16 (1) लोक सेवा में अवसर की समानता, अनुच्छेद 21 प्राण व दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार तथा अनुच्छेद 22 संरक्षण का अधिकार देता है। महिलाओं को विशेष संरक्शण प्रदान करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 15(3), 42,34,39 तथा संविधान के 73 वें एवं 75 वें संशोधन द्वारा महिलाओं को पंचायत चुनाव में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया वही सार्वभौमिक घोषणा पत्र के अनुच्छेद 25 की उपधारा 2 में अभिवर्णित है कि राज्य कल्याण की वृद्धि के लिए महिलाओं को विशेष संरक्षण प्रदान करेगा। वास्तव में भारत में मानवाधिकार की जडें हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक बनावट एवं सांस्कृतिक परम्पराओं में निहित है। प्राचीन काल से हमारा धर्म एवं संस्कृति दूसरे देशों की संस्कृतियों एवं धर्मो को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखता रहा है। हमारी वैदिक सभ्यता में सहन शीलता एवं दूसरों के प्रति आस्था का सम्मान करते हुये, मानव अधिकारों की रक्षा की गयी थी यद्यपि एक विकसित न्याय व्यवस्था का अस्तित्व था किन्तु कोई मानव अधिकार धोषणा पत्र नहीं था। हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, तथा अशोक के शिला लेखों पर उत्कीर्ण दार्षनिक, आध्यात्मिक व धार्मिक विचारों में मानव अधिकार के पुट व्याप्त थे। मौलिक अधिकारों की मान्यता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान की गयी। यह संधर्श मूल रूप से नागरिक एवं मानवाधिकारों को कुचलने के विरूद्ध था। स्वतन्त्रता संधर्श के दौरान चले स्वराज (भारतीय शासन) आन्दोलन लाखों भारतीयों में आत्म चेतना जमाने तथा उन्हें नैतिक एवं वैधानिक रूप से सजग बनाने का प्रयत्न था। आजादी के पश्चात् भारतीय संविधान में नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए ठोस प्रावधान बनाये गये तथा उन्हें न्याय, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व का दर्जा प्रदान किया गया एवं मूल अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए न्यायपालिका को इसका संरक्षक बना दिया गया। भारतीय संविधान के विभिन्न उपलन्ध मानवाधिकारों की सार्वभौमिक धोषणा पत्र के उपबन्ध एक से हैं जो इस प्रकार हैं-
सार्वभौमिक घोषणा पत्र    भारतीय संविधान
अनुच्छेद 7     अनुच्छेद 14
अनुच्छेद  7(2)     अनुच्छेद 15 (1,3)
अनुच्छेद 21(2)    अनुच्छेद 16 (1)
अनुच्छेद 19    अनुच्छेद 19 (1) (क)
अनुच्छेद 20 (1)    अनुच्छेद 19 (1) (ख)
अनुच्छेद 23 (4)    अनुच्छेद 19 (1) (ग)
अनुच्छेद 13 (1)    अनुच्छेद 19 (1) (ध)
अनुच्छेद 17 (1)    अनुच्छेद 19 (1) (च)
अनुच्छेद 11 (2)    अनुच्छेद 20 (1)
अनुच्छेद 9     अनुच्छेद 21
अनुच्छेद 4    अनुच्छेद 23
अनुच्छेद 18    अनुच्छेद 25 (1)
अनुच्छेद 22    अनुच्छेद 29 (1)
अनुच्छेद 26 (3)    अनुच्छेद 30 (1)
अनुच्छेद 17 (2)    अनुच्छेद 31
अनुच्छेद 8     अनुच्छेद 32

      भारत मानव अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध राष्ट्र है। भारतीय संविधान में नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु ठोस बनाये गये हैं, तथा उन्हें न्याय, स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व का दर्जा प्रदान किया गया है।
     वर्तमान परिप्रेक्ष्य की जब हम बात करते हैं, तो आज मानवाधिकार की अवधारणा महत्वपूर्ण हो गयी है। मानव अधिकार का मूल मकसद (अवधारणा) यह होना चाहिए कि समाज से सभी प्रकार के भेदभाव का अंत हो। वर्तमान राजनैतिक तंत्र राष्ट्रीय लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। भारत के संदर्भ में जिन मूल्यों के आधार पर स्वतंत्रता आंदोलन चलाया गया, उसकी अत्यन्त आवश्यकता है। वे मूल्य विश्लेषण और विकास के लिए उचित ढाँचा प्रदान करते हैं। भारत ने सभी उत्तम विचारों को विवेकपूर्ण दृष्टि से स्वीकार करते हुये एक राजनैतिक तंत्र विकसित किया है और संविधान निर्माताओं की दृष्टि में बुनियादी मानवाधिकर के बिना प्राप्त स्वतत्रता बेमानी है। इस कारण भारतीय संविधान में मानवाधिकारों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है।
    नागरिक स्वतन्त्रता के लिए भारत के कर्णधारों ने आरम्भ से ही ध्यान देना शुरू किया था और इसी के तहत भारत में मानवाधिकारों को शुरू से ही महत्व दिया जाता है। किन्तु हाल के वर्शो में भारतीय परिप्रेक्ष्य में मुम्बई दंगे, गुजरात के दंगे, तमिलनाडु एवं उडीसा में झींगा खेती, गोधरा काण्ड, संसद पर हमला, सार्वजनिक रूप से महिलाओं की हत्या, आनर किलिंग जैसी घटनायें मानवाधिकार के हनन के साक्ष्य हैं। इससे मानवाधिकार के फलक में विस्तार हो रहा है। हमारे भारतीय समाज की लगभग आधी आबादी गरीबी में जीवन व्यतीत कर रही है। आधे निरक्षरता के अंधकार में डूबे हैं। शोषण के कारण समाज का एक बड़ा समूह उत्पीड़ित है अर्थात मानव गरिमापूर्ण जीवन नहीं व्यतीत कर रहा है। लोगों को मानव अधिकार के प्रति सचेत तथा मानवअधिकारों के उल्लघंन को रोकने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि प्रणाली को और अधिक प्रभावी बनाया जाय, केवल आदेश व निर्देश जारी करने से कुछ नहीं हो सकता, जब तक मानवाधिकार के मुख्य नियम एवं लोगों में जागरूकता सम्बन्धी निर्देषों के पालन में राष्ट्र सचेत नहीं होगा।

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नव वर्ष की शुभ बधाई

आज एक नववर्ष की बधाई का कार्ड मिला। मेरे मित्र राजेन्द्र यादव ,  जो एक एशियन स्कूल चलाते हैं, कार्ड उनकी तरफ से था। कार्ड पर नोबेल पुरस्कार विजेता विस्लावा शिम्बोर्सका की नए वर्ष पर एक कविता छपी है।अद्भुत कविता है। इस कविता पर कोई टिप्पणी न करते हुए मैं पूरी कविता उस कार्ड से साभार पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
                                                                                                                                        - महेश आलोक

                                                       नव वर्ष की शुभ बधाई
                                                                                                     - विस्लावा शिम्बोर्सका

कितनी ही चीजें थीं
जिन्हें इस वर्ष में होना था
पर नहीं हुईं
और जिन्हें नहीं होना था, हो गयीं।
                                        
खुशी और बसन्त जैसी चीजों को
और करीब आना था
पहाड़ों और घाटियों से उठ जाना था आतंक और भय का साया
इससे पहले कि झूठ और मक्कारी हमारे घर को तबाह करते
हमें सच की नींव डाल देनी थी

हमने सोचा था कि
आखिरकार खुद को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान में
भरोसा करना होगा

लेकिन अफसोस
इस वर्ष में इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं हो सका ।


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