नवीन लोहनी ने एक गंभीर मुद्दा अपने अंदाज में उठाया है। इस पर आपके विचार आमंत्रित हैं
- महेश आलोक
२० वर्ष पूर्व हिंदी कार्यान्वयन निदेशालय की एक संगोष्ठी का जिक्र करना जरूरी है, विषय था हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की चुनौतियां . संगोष्ठी में विचार विनिमय इस प्रकार हुआ क उद्घाटन सत्र के उपरांत लगने लगा कि दो धड़ों में इस बात को लेकर घमासान अधिक है कि वे आलोचक शिरोमणि डॉ नामवर सिंह को बताएं या फिर डॉ रामविलास शर्मा को , काफी दिन बाद दोनों लोग मंच पर एक साथ थे . और दोनों तरफ के लोग विषय पर कम गुरुजनों की तारीफ में ज्यादा बोल रहे थे .एक सज्जन तो इतने ताव में थे कि उन्होंने कह दिया कि रामविलास शर्मा को समझने के लिए आपको २०० साल लगेंगे . विवाद यहाँ तक बढ़ गया था कि संवाद की कठिनाई हो गई , आलोचना के नए प्रतिमानों, आलोचना की दूसरी, तीसरी परम्परा की बात तो होती है पर आलोचना अपने परम्परागत रूप में गुरुड्मों में अधिक केन्द्रित हो जाती है इसका दुष्परिणाम यह भी हुआ कि आपसी विमर्शों, मतभेदों को साहित्य की वैचारिकी का आधार बताया जाने लगता है , जबकि कई बार वे निहायत ही व्यक्तिगत पसंद नापसंद होने के कारण उचारे गए वाक्य होते हैं . कुछ पत्रिकाओं का तो टी आर पी इसी प्रकार के बबालों के आयोजन के कारण सफल है . परिणाम है कि कई रचनाओं एवं रचनाकारों का सही मूल्यांकन समय पर नहीं हो पाता. अज्ञेय के १०० वें वर्ष में उनके साहित्य पर मंथन हो रहा है , आजीवन दुर-दुर कहने वाले अपना भूलसुधार कार्यक्रम चलाए हुए हैं . अज्ञेय जैसे समर्थ रचनाकार के साथ भी यही हुआ , चलो गुरूजी लोग तो भूलसुधार का राजनीतिक कार्यक्रम चला लेंगे पर उन दुकानों, समर्थकों , भांडों का क्या होगा जो गुरुजी लोगों के साथ आजीवन वह वह ही उचारते रहे ओर उन्हें तो गुरूजी के बयान के अलावा कुछ याद ही नहीं रहता था . आलोचक श्रेष्ठ के विचारों आ आदर करने वाले बेचारे उन लोगों का क्या होगा जिनको गुरूजी का निन्दारस भाता था अब तो बतरस का स्वाद बदल गया गुरूजी का , तो उन कई महान पुस्तकों का क्या होगा जो गुरूजी के कथन को वेदव्यास का कथन मानते थेऔर कथन को इस प्रकार बताते थे कि जब गुरूजी ने इसे बेकार कह दिया तो यह बेकार ही है , इसे इसी तरह पढ़ना होगा जैसा गुरूजी कह चुके हैं , और अब उनसे कहा जा रहा है विचार बदल डालो , वाह
- महेश आलोक
२० वर्ष पूर्व हिंदी कार्यान्वयन निदेशालय की एक संगोष्ठी का जिक्र करना जरूरी है, विषय था हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की चुनौतियां . संगोष्ठी में विचार विनिमय इस प्रकार हुआ क उद्घाटन सत्र के उपरांत लगने लगा कि दो धड़ों में इस बात को लेकर घमासान अधिक है कि वे आलोचक शिरोमणि डॉ नामवर सिंह को बताएं या फिर डॉ रामविलास शर्मा को , काफी दिन बाद दोनों लोग मंच पर एक साथ थे . और दोनों तरफ के लोग विषय पर कम गुरुजनों की तारीफ में ज्यादा बोल रहे थे .एक सज्जन तो इतने ताव में थे कि उन्होंने कह दिया कि रामविलास शर्मा को समझने के लिए आपको २०० साल लगेंगे . विवाद यहाँ तक बढ़ गया था कि संवाद की कठिनाई हो गई , आलोचना के नए प्रतिमानों, आलोचना की दूसरी, तीसरी परम्परा की बात तो होती है पर आलोचना अपने परम्परागत रूप में गुरुड्मों में अधिक केन्द्रित हो जाती है इसका दुष्परिणाम यह भी हुआ कि आपसी विमर्शों, मतभेदों को साहित्य की वैचारिकी का आधार बताया जाने लगता है , जबकि कई बार वे निहायत ही व्यक्तिगत पसंद नापसंद होने के कारण उचारे गए वाक्य होते हैं . कुछ पत्रिकाओं का तो टी आर पी इसी प्रकार के बबालों के आयोजन के कारण सफल है . परिणाम है कि कई रचनाओं एवं रचनाकारों का सही मूल्यांकन समय पर नहीं हो पाता. अज्ञेय के १०० वें वर्ष में उनके साहित्य पर मंथन हो रहा है , आजीवन दुर-दुर कहने वाले अपना भूलसुधार कार्यक्रम चलाए हुए हैं . अज्ञेय जैसे समर्थ रचनाकार के साथ भी यही हुआ , चलो गुरूजी लोग तो भूलसुधार का राजनीतिक कार्यक्रम चला लेंगे पर उन दुकानों, समर्थकों , भांडों का क्या होगा जो गुरुजी लोगों के साथ आजीवन वह वह ही उचारते रहे ओर उन्हें तो गुरूजी के बयान के अलावा कुछ याद ही नहीं रहता था . आलोचक श्रेष्ठ के विचारों आ आदर करने वाले बेचारे उन लोगों का क्या होगा जिनको गुरूजी का निन्दारस भाता था अब तो बतरस का स्वाद बदल गया गुरूजी का , तो उन कई महान पुस्तकों का क्या होगा जो गुरूजी के कथन को वेदव्यास का कथन मानते थेऔर कथन को इस प्रकार बताते थे कि जब गुरूजी ने इसे बेकार कह दिया तो यह बेकार ही है , इसे इसी तरह पढ़ना होगा जैसा गुरूजी कह चुके हैं , और अब उनसे कहा जा रहा है विचार बदल डालो , वाह
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