अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

गुरुवार, 24 मई 2012

ब्रेख्त की कविताएँ


 ब्रेख्त की कविताएँ

(बढ़ती महंगाई और बढ़ती गरीबी ... और शासन की भूमिका ... इस पर सवाल उठाए जाते हैं, उठाए जाने चाहिए। सरकार के अपने तर्क होते हैं जो जाहिर है - पूंजीपतियों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। जनता का क्या है, वह तो मुद्रा-स्फीति की दर को कम करने के लिए बलि का बकरा बनती आई है। अपनी सरकार चलाना देश चलाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठता है। बर्तोल्त ब्रेख्त की ये कविताएँ इस संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो उठती हैं -)

शासन चलाने की कठिनाइयाँ
- 1 -
मंत्री जनता से बिना रुके कहे जाते हैं
कितना मुश्किल है राज चलाना।
मंत्रियों के बिना
अनाज की बाली ऊपर के बजाय धरती के अन्दर बढ़ने लगेगी
खान से कोयले का एक टुकड़ा भी नहीं निकलेगा
अगर चांसलर इतना होशियार न हो
प्रचार मंत्री के बिना
कोई औरत पैर भारी कराने को राजी नहीं होगी
युद्ध मंत्री के बिना
कोई युद्ध ही नहीं होगा
जी हाँ, सुबह का सूरज उगेगा या नहीं
यह भी तय नहीं है, और अगर उगता भी है,
तो गलत जगह पर।

-2-
इसी तरह मुश्किल है, जैसा कि वे कहते हैं -
कोई कारखाना चलाना / मालिक के बिना
दीवारे ढह जाएँगी और मशीनों में जंग लग जाएगा, कहा जाता है
अगर कहीं कोई हल तैयार भी कर लिया जाए
खेत तक व पहुँच ही नहीं पाएगा, अगर
कारखाने का मालिक किसानों को न बतावे: आखिर
उन्हें पता कैसे चलेगा कि हल बनाए जाते हैं ? इसी तरह
जमींदारों के बिना खेतों का क्या होगा ? बेशक
जहाँ आलू बोया गया हो, उसी खेत में बाजरा छिड़का जाएगा।

- 3 -
अगर राज चलाना आसान होता
फिर महानेता की तरह प्रतिभाओं की जरूरत ही न पड़ती
अगर कामगारों को पता होता कि मशीन कैसे चलाई जाती है
और किसान को अपने खेत का शऊर होता
फिर तो कारखाने के मालिकों और जमींदारों की
जरूरत ही न रह जाती
पर चूँकि वे इतने बेवकूफ हैं
कुछ एक की जरूरत है, जिनके दिमाग तेज हों।

- 4 -
यार फिर बात क्या ऐसी है
कि राज चलाना सिर्फ इसलिए मुश्किल है
क्योंकि लूटना और धोखा देना सीखना पड़ता है।

कलाकार के रूप में सरकार
- 1 -
महल और स्टेडियम बनाने के लिए
काफी धन खर्च किया जाता है
सरकार इस मायने में कलाकार भी होती है, जिसे
भूख की फिक्र नहीं रहती, अगर मामला
नाम कमाने का हो
बहरहाल
जिस भूख की फिक्र सरकार को नहीं
वो भूख दूसरों की है, यानी
जनता की।

- 2 -
कलाकार की तरह
सरकार की भी जादुई ताकत होती है
अगर कुछ न भी बताया जाए
हर बात का पता रहता है उसे
जो कुछ उसे आता है
उसे सीखा नहीं है उसने
उसने कुछ भी सीखा नहीं है
तालीम उसे
कतई कायदे से नहीं मिली, फिर भी अजूबा कि
हर कहीं वो बोल लेती है, हर बात तय करती रहती है
जिसे वो समझ नहीं पाती उसे भी।

- 3 -
कलाकार बेवकूफ हो सकता है और इसके बावजूद
महान् कलाकार हो सकता है
यहाँ भी
सरकार कलाकार की तरह है
कहते हैं रेम्ब्राण्ट के बारे में
ऐसी ही तस्वीरें उसने बनाई होतीं, अगर उसके हाथ न भी रहे होते
वैसे ही
कहा जा सकता है सरकार के बारे में कि उसने
बिना सिर के भी ऐसे ही राज चलाया होता।

- 4 -
मार्के की है
कलाकार की खोज की प्रतिभा
सरकार भी जब
हालत का बखान करती है, कहते हैं लोग
क्या बनाई है बात
अर्थनीति से
कलाकार को सिर्फ नफरत है, उसी तरह
सरकार को भी अर्थनीति से नफरत है
बेशक उसके कुछ मालदार भक्त हैं
और हर कलाकार की तरह
जीती है वह भी, उनसे
पैसे लेकर।


(काव्य - प्रसंग से साभार)
(ये कविताएँ ‘ब्रेख्त एकोत्तर शती’ से साभार ली गई हैं, जिनका अनुवाद उज्ज्वल भट्टाचार्य ने किया है।)

2 टिप्पणियाँ:

अरुण अवध ने कहा…

क्या कहने ब्रेख्त के ..........जवाब नहीं ! चीरती हुई कवितायें ! आभार प्रस्तुति के लिए !

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

Behtreen kavitayen

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