अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

बेतरतीब - महेश आलोक



                                                      एक कवि की नोटबुक



                                                                     (50)

किसी को मेरी कविता समझ में आती है।किसी को बहुत अच्छी लगती है।कोई कहता है-अद्भुत। कोई कहता है- मेरे सिर के ऊपर से गुजर गयी आपकी कविता, वाह! क्या लिखते हैं आप। एक पढ़े लिखे अध्यापक ने कहा- वह शब्द जो आपकी कविता में आया है,शब्द-कोष में उसका अर्थ अलग है, बिल्कुल अलग।एक पाठक ने कहा नहीं, इतना सूक्ष्म है कि पकड़ में नहीं आता।आपकी उस कविता में शब्द-कोष वाले अर्थ की छाया तो मिलती है, पर लगता है,कुछ बारीक कह रहे हैं आप। कोई कहता है-यह भी कोई कविता है, कवि सम्मेलन वाले कवियों को देखो, जनता ताली बजाते नहीं थकती। और मैं चुप हूँ, अपनी कविता की दशा-दुर्दशा देखकर। मैं कविता के बाहर खड़ा हूँ,भिन्न-भिन्न टिप्पणियों की रोशनी कविता पर डालता हुआ,यह सोचते हुए कि शायद कभी ऐसी कविता लिख सकूँ जो ‘अद्भुत’ और ‘ताली बजाऊ जनता’- दोनों को समझ के स्तर पर सँतुष्ट कर सके।

                                                                    (51)

रचना तो वह अलाव है जिसे जलाने के बाद लोगों के साथ-साथ हम खुद भी उसपर अपना हाथ सेंकते हैं,पूरे शरीर में गर्माहट पैदा करने के लिये।चिन्ता इस बात की करनी है कि जब तक कड़ाके की ठँढ है,अलाव जलते रहना चाहिये।
    



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