अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अपराधियों से कैसे बचाए लोकतंत्र को- - नवीन चन्द्र लोहनी


अन्ना हजारे का नाम भ्रष्टाचार के विरोध के प्रतीक के रूप में इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है उन्होंने इन दिनों एक खास बात और की है जो भ्रष्टाचार की जड़ पर कुठाराघात करने वाली है और वह है किसी भी उम्मीद्वार को वोट देने से ना कहने का अधिकार ।
भारतीय राजनीति में यह समय सुधारों पर चर्चा का है तो आइए गौर करते हैं कि संसद, विधानसभा से लेकर पंचायत तक के चुनावों में किसी भी उम्मीद्वार से असहमति की दशा में असहमति के मत का प्राविधान भी हो जाना चाहिए । किसी भी उम्मीदवार पर सहमत न होने की दशा में असहमति का मत देने के अधिकार पर बहस यद्यपि अभी कानूनी गलियारों में ही सिमटी हुई है परंतु जनतंत्र की जिस वास्तविकता से हम दो चार हो रहे हैं उसमें किन्हीं चार अवांछितों में से एक को चुनने की मजबूरी के चलते मूल जनतांत्रिक अधिकारों में से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन लगातार हो रहा है। राजनीतिक दलों के मुखौटे लगाए हुए ये कथित नेतागण अपनी हरकतों से जनतंत्र को बार-बार शर्मसार करते हैं।
हाल के दिनों में आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं का संसद में सैकड़ा पार कर जाना चिंतनीय है। यह चिन्तनीय है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग कानून निर्माण की प्रक्रिया में शामिल होंगे तो वे किस तरह का चिंतन, मनन प्रस्तुत कर रहे होंगे? क्या उनके सोच में आम आदमी की सेवा होगी, देशभक्ति का जज्बा होगा। जब वे अपराध जगत से राजनीति में आते हैं और राजनीति में इसलिए बने रहते हैं ताकि अपने आपराधिक कुकृत्यों पर परदा डाले रह सकें और पुलिस प्रशासन आदि चाह कर भी उनके खिलाफ कानूनी धाराओं पर अमल न कर सके। इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि धनबल, बाहुबल के भरोसे लोकतंत्रा को हथियाने की नीयत रखने वाले इन अपराधियों को चुन कर लोकतंत्र के मंदिरों भेजने के लिए कौन जिम्मेदार है? तो हाथ केवल जनता की तरफ ही इशारा नहीं करेगा, क्योंकि जनता को किसी को भी नहीं चयन करने की आजादी नहीं है ।
आज इस मुद्दे पर बहस आवश्यक है कि अपराधी के बड़े हो जाने के बाद ही वह हेय है या उसके प्रारम्भिक अपराधों पर ऐसी रोक लगनी चाहिए कि वह भविष्य में किसी बड़े अपराध के लिए तैयारी न कर सके। भारतीय लोकतंत्र की कल्पना करते हुए महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू आदि राजनेताओं ने कभी नहीं चाहा था कि लोकतंत्र ऐसे हाथों में चला जाए जो कि सच्चरित्रता, सदाचार, संयम, नैतिकता आदि गुणों के खिलाफ जीवनशैली रखते हों।
गठबंधन राजनीति आने के साथ-साथ ऐसे आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का महत्व और भी बढ़ रहा है। चुनाव क्षेत्रों में अपने आपराधिक दबदबे के कारण वोट हथिया लेने के बाद संसद अथवा विधानमंडल पहुंचते ही दिए गए मतों के बदले या तो स्वयं को नोटों के गिरवी कर देते हैं या फिर मंत्री पद प्राप्त करने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं। पिछले एक दशक में ऐसे सफल लोगों की लम्बी सूची है जो धन लेकर अपनी संसदीय शक्ति को बेचते-खरीदते पाए गए। स्वाभाविक है कि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ यह चिंतन भी बढ़ रहा है कि आम आदमी इन घोटालेबाजों अथवा कुर्सी व धन को गिरवी रख देने वाले लोगों से कैसे निपटे।
शुचिता की दुहाई देने वाले कई राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा भी जब अपराधी के बदले अपराधी, धनकुबेर के बदले धनकुबेर को प्रत्याशी बनाया जाने लगा तो यह चिंता बढ़ जाती है कि आम आदमी किसी तरह ऐसे मामले में अपना विरोध दर्ज कर सके, क्योंकि अगर वह अपने मताधिकार का उपयोग नहीं करता है, तब भी अपराधी उसके मत का उपयोग बूथ कैप्चरिंग अथवा अन्य तरीकों से अपने पक्ष के उम्मीदवार के लिए करवा लेते हैं। यह आवश्यक है कि अब सभी ऐसे पदों के लिए एक ऐसा विकल्प भी होना चाहिए जहां लोग राजनीतिक दलों के इस खेल में अपना साफ-साफ विरोध और असहमति दर्ज कर सकें। तब एक ऐसे मतदान की आजादी का प्रश्न ही आता है, जहां असहमति व्यक्त करते समय न केवल मत सुरक्षित हो सके अपितु उसका दुरूपयोग भी रोका जा सके। इस तरह के निश्चित संख्या में मतों के होने पर चुनाव रद्द करने की भी छूट हो। यहां यह भी कहना होगा कि मतदाताओं की सूची में न केवल समय-समय पर सही-सही संशोधन किए जाएं अपितु मतदाता सूची में हुई गलती के लिए जिला स्तर पर किसी न किसी अधिकारी को जिम्मेदार बनाया जाए।
हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति भी जोर पकड़ती जा रही है कि काफी मतदाताओं के नाम सूची से अकारण गायब पाए जाते हैं और उसके लिए कोई भी व्यक्ति जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। तब ऐसे में मतदान के लोकतांत्रिक अधिकार की प्रारम्भिक शर्त ही खत्म हो जाती है। इस गड़बड़ी को दुरूस्त करना होगा, तभी मतदान के अधिकार की रक्षा की जा सकती है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवश्यक है कि मतदान न केवल हो अपितु वह स्वेच्छा तथा स्वविवेक से किया जा सके, उसके लिए कोई दबाव न हो और उसकी गोपनीयता की रक्षा हो। उसके लिए आवश्यक होगा कि हाल के वर्षों में सुझाए गए तरीकों से अपराधियों को किसी भी दल अथवा निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने से रोका जाए।
इसके लिए चुनाव आयोग को सर्वोच्च न्यायालय के उन निर्देशों को ध्यान में रखना होगा तथा आम आदमी की इस पीड़ा को भी समझना होगा जिससे कि वह मजबूरन एक अपराधी को चुनने के लिए अभिशप्त न हो। वे ऐसे किसी व्यक्ति को अपना मत दें अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को आगे कर चुनाव लड़ाएं जिसमें फिलहाल ऐसे अपराधी से लड़ने की कूबत भले ही न हों परंतु अगर वह चुनाव लड़े तो दागियों, अपराधियों, सजायाफ्रता और उसके बीच अंतर स्पष्ट हो सके।...................


-नवीन चन्द्र लोहनी

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