आवास व्यवस्था किसी भी संस्कृति का एक महत्व्पूर्ण अंग है। यह सर्वमान्य है कि आवासों का निर्माण एवं उसका स्वरूप उसके निर्माताओं की आवश्यकताओं एवं चतुर्दिक पर्यावरण पर आधारित होता है। इसके अतिरिक्त निर्माण हेतु उपलब्ध सामग्री एवं संस्कृतियों का तकनीकी स्तर भी आवास निवेश को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित करते हैं। वैदिक संहिताओं में इस विषय से संबन्धित सामग्री सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। हमें केवल ग्राम, गृह या पुर जैसे कुछ शब्दों के रूप में ही सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इन शब्दों को तत्कालीन पर्यावरण तथा सामाजिक आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
वैदिक सहिताएं आर्यन संस्कृति की जानकारी हेतु प्राचीनतम लिखित प्रमाण हैं। इस दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व समस्त विश्व में स्वीकार किया जाता है। मूल संहिताएं ऋक, यजु, साम एवं अथर्व, केवल चार ही हैं। किन्तु कालान्तर में कुछ उपशाखाओं का उदय हुआ जिन्होंने भिन्न सहिताओं का निर्माण किया। वाजसनेयि, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक आदि संहिताएं इनका प्रमाण हैं। यों तो वैदिक संहिताओं के काल को लेकर विद्वानों के मध्य अत्यधिक मतभेद है तथापि इस संदर्भ में जर्मन विद्वान ‘विन्टरनित्स’1 का मत अपेक्षाकृत अधिक तर्कसंगत स्वीकार किया जाता है। इसी को आधार मानकर संहिताओं का काल लगभग द्वितीय सहस्त्राब्दी ईस्वी पूर्व निर्धारित किया जा सकता है। यह तो सर्वविदित है कि ऋग्वेद संहिता अन्य वैदिक सहिताओं की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।
अबतक अधिकांश विद्वानों की प्रायः यही धारणा रही है कि आरम्भिक वैदिक संस्कृति का आर्थिक मूल आधार पशुपालन था और कालान्तर में इसके अतिरिक्त कृषि भी जीवन यापन का मुख्य साधन बन गयी। जीवन यापन की इन मौलिक आवश्यकताओं को देखते हुए यह स्वीकार किया जा सकता है कि वैदिक आर्यों ने उन्हीं स्थलों को निवास के लिये चुना होगा जहां इन दोनों से सम्बन्धित सुविधाएं उपलब्ध हों। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे समतल कृषि योग्य स्थलों को ही निवास निमित्त चुना गया होगा जिसमें पर्याप्त वर्षा होती हो अथवा नदी झील या तालाब का जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो। इस प्रकार के वातावरण या पर्यावरण में न तो चरागाहों का अभाव होगा और न ही ऐसे जंगलों का जिनमें आखेट योग्य पशु काफी संख्या में उपलब्ध हों।
संहिताओं में आखेट के उल्लेख स्पष्ट करते हैं कि यह न केवल मनोविनोद का साधन था वरन् वैदिक अर्थव्यवस्था का भी एक महत्वपूर्ण अंग था। इसी प्रकार ऐसे भी उल्लेख हैं जिनमें पशुओं के ‘चरागाह’ (व्रजम्) एवं गोष्ठ ( गायों के खड़े होने का स्थान ) हैं।2 वैदिक मन्त्रों में इन्द्र, वरूण आदि देवताओं से वर्षा की प्रार्थना की गयी है,3 इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है कि कभी कभी वैदिक आर्यों के निवास क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा नहीं होती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जलवायु लगभग उसी प्रकार की थी जैसी उत्तरी भारत में वर्तमान समय में होती है।
जैसा कि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वैदिक संस्कृत संहिता काल में पशुपालन आधारित आर्थिक व्यवस्था सीमित कृषि पर आधारित थी। ऐसी स्थिति में छोटी छोटी बस्तियों का यत्र- तत्र विद्यमान होना ही अघिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। संहिताओं का ग्राम ( मन्$ग्रस्) शब्द इन्हीं का द्योतक है। नगरों के विकास के लिये , जैसा कि आज समझा जाता है, विकसित उद्योग, समुचित व्यापार व्यवस्था एवं सुव्यवस्थित राजनैतिक प्रणाली का होना आवश्यक है। इसके अभाव में हम नगरों की कल्पना नहीं कर सकते। संहिताओं का ‘पुर’ शब्द स्वाभाविक रूप से नगरों का न होकर अन्य सुरक्षा सम्बन्धी निर्माण का द्योतक प्रतीत होता है। यही बात ‘दुर्ग’ के सम्बन्ध में नहीं कही जा सकती। गांवों में निवास निमित्त विविध आवश्यकताओं के अनुरूप ‘गृह’ निर्मित किये जाते थे। वस्तुतः आवास व्यवस्था से सम्बन्धित ‘ग्राम’, ‘गृह’, ‘पुर’ जैसे प्रचलित शब्द ही वैदिक संहिताओं में उपलब्ध हैं।
..........................................................
संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. विन्टरनित्स एम0- ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर (अंग्रेजी अनुवाद)- कलकत्ता- 1959
2. व्रजम् ऋ0 10।26।3, 10।97।10 एवं 10।101।8,
गोष्ठ ऋ0 1।191।4, 6।28।1, 8।3।17,
सेंट पीटर्स बुर्ग कोष के अनुसार ‘गोष्ठ’ का अर्थ है-पशुओं या गायों के खड़े होने का स्थान
3. ऋ0 4।57।7-9
1 टिप्पणियाँ:
Acha lekh hai.vadik lal par sochne ll jarorat hai
एक टिप्पणी भेजें