मैं सचमुच चिन्तित हूं। क्या मेरी पीढ़ी की युवा कविता रैखिक आग्रह या सामयिकता के रैखिक दबाव में लिखी जा रही है कि उसे जीवन में सुख-उल्लास का निरंतर अभाव शुष्क से शुष्कतर किए जा रहा है। ऐसा कहते हुए मैं स्वयं को कटघरे में खड़ा पाता हॅू ।क्या हम उल्लास, राग और उत्सव को कविता के लिए त्याज्य विषय मानने लगे हैं? क्या इससे कविता का जीवन बहुत छोटा नहीं हो गया है? क्या हम यांत्रिक, रूढ और एकरैखिक दृष्टि के शिकार हो रहे हैं? क्या हम सचमुच मानने या स्वीकार करने लगे हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच के रागात्मक सम्बन्ध और संपर्क को दूर करके, कविता में हम ‘आधुनिक’ होने का हक अदा कर पा रहे हैं? क्या हम ऐसा करके तथाकथित यांत्रिक आधुनिकता का शिकार नहीं हो रहे हैं? जबकि इसी ‘सम्बन्ध और संपर्क’ को सर्जनात्मक स्तर पर ज्यादा ‘रेडिकल’ होने के लिए ‘कलात्मक टूल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था।
मेरा सचमुच मानना है कि आज की समकालीन हिन्दी कविता में - ‘ पंत का सहज भोलापन, औत्सुक्य, बाल सुलभ मासूमियत, प्रकृति के साथ की रागात्मक अद्वितीयता और शब्दों की ध्वन्यात्मक अर्थ सघनता की समझ एवं सांगीतिक लय’ का , उसके वर्तमान सर्जनात्मक रूपाकार में सहज समावेश हो जाए, तो उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थवता एक नयी सौन्दर्य दृष्टि से जगमगा उठेगी।
1 टिप्पणियाँ:
sachmuch kawitaa ko bachaaye rakhne ke liye aap ki chinta sahi hai
- reeta pathak
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