अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

                                                        (1)

मैं दुखी नहीं हूँ।कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है। समाज उसकी कविता में हँसे, उछले, कूदे, करवटें ले, गाये-गुनगुनाए, संवेदना जगाये, संघर्ष करे।समाज से उसका रागात्मक सम्बन्ध बना रहे,टूटे नहीं,कविता में उसे अपना चेहरा साफ-साफ दिखाई दे,बिगड़े बाल संवारने लायक जगह बची रहे कविता में।वह सड़क दिखाई दे, जिस पर उसे चलना है।यही तो उसका अभीष्ठ है। सचमुच कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है।

                                                   (2)
अगर मैं कविता सुनाऊँ और लोग प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते रहें,तो मुझे क्या समझना चाहिये। एक- लोग मेरी कविताएं समझ रहे हैं और दूसरा- समझ तो नहीं रहे हैं लेकिन तालियाँ बजा रहें हैं कि श्रोता यह न समझें कि हाय-हाय, कितने मूरख हैं, इन्हे इतनी अच्छी कविता समझ में नहीं आ रही है। वहीं एक तीसरा वर्ग भी है, जिसके चेहरे पर सन्नाटा खिंचा है और वह गुस्से में देख रहा है ताली बजाऊ जनता की तरफ।कौन समझ रहा है मेरी कविताएं? 

                                                (3)

सारी समस्या की जड़ किसी भी वस्तु या विचार या भावना को उसके अधूरेपन में देखना है।किसी भी धर्म की उदारता और उसका वैचारिक खुलापन अंधश्रद्धा और मूर्खतापूर्ण फतवे में तब्दील तभी होता है जब देख़ने की दृष्टि इतनी संकुचित हो जाती है क़ि खान-पान जैसी निजी या वैयक्तिक स्वतन्त्रता को भी तथाकथित बेवकूफ़ाना, जड़ परंपराओं के नाम पर कटघरे में खड़ा करके उसका दम घोंट दिया जाता है और कुछ लोग नपुंसको की तरह खड़े होकर गर्व से ताली बजाते हैं और यह मानते हैं कि  हम अहिंसक हैं। समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य मूलतः हिंसक प्राणी है। हम सभी निरंतर हिंसा में लिप्त रहते हैं भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो।यही स्थिति भावनात्मक हिंसा की भी है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं ज्यादा खतरनाक है। धर्म की आड़ में आज जितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है,वह मांसाहार के धवन्यात्मक अर्थ को वहाँ तक ले जाता है जहां किसी प्रगतिशील साहित्यकार की उन्हीं धार्मिक फतवेदारो द्वारा निर्मम हत्या कर दी जाती है और वे ही संघीय ढांचे में बजरंगी बनकर समाज को मांसाहारियों से कही ज्यादा खतरनाक रूप से तोड़ रहे हैं।
                         
                                              (4)

युद्ध का कोई चेहरा नहीं होता।वहाँ तो सिर्फ मृत्यु है।ठीक यही बात मृत्यु के बारे में भी कह सकते हैं। हिंसक हिन्दू हो या मुसलमान,क्या फर्क पड़ता है। चेहरा अहिंसक का होता है और जब वह सही मायने में बनता है तो व्यक्ति या तो बुद्ध बनता है या गाँधी।

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