कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)
(1)
एक कवि मित्र ने कहा- बहुत दिन हुए,तुम्हारा नया लिखा कुछ पढ़ा नहीं। मैने कहा- लिख तो रहा हूँ निरंतर, अगर तुम्हारा अर्थ प्रकाशन से है, तो सही है, प्रकाशन के लिये भेज नहीं रहा हूँ कविताएं। 14 वर्ष बीत गये। कविताएं प्रकाशित नहीं हुयीं। लगभग दो नयी पीढ़ी आ गयी इस बीच। लोग भूलने भी लगे हैं। हिन्दी में सबसे बड़ी समस्या यही है।वह सिर्फ वर्तमान में जीती है।भले ही लेखक अपने लिखे हुए को दुहरा रहा हो,उसे प्रिय है।मेरी समस्या दूसरी है।अगर मैं नया कुछ नहीं कर पा रहा हूँ तो केवल प्रकाशित होने और याद किये जाने के लिये क्यों आऊँ जनता के सामने।अब आ रहा हूँ 14 वर्ष बाद।कुछ नया लेकर। और सबसे बड़ी बात- मुझे लगता है कि मैं अपने को दुहरा नहीं रहा हूँ। लेकिन क्या इस भेंड़चाल में उसे डूबती हुई हिन्दी आलोचना स्वीकार कर सकेगी, क्योंकि तन्त्र पर तो उन्ही का कब्जा है जो एक बने बनाए मॉडल में ही चीजों को देखने के अभ्यस्त हैं।
(2)
मै सब्जी मंडी में सब्जी खरीद रहा हूँ। भिंडी और गोभी के साथ जाने कैसे वह कीड़ा आ गया जो कविता बनने के लिये उतावला हो रहा है। मैं मँडी से थैले में कविता लेकर आ रहा हूँ।अब पकाउँगा उसे सँवेदना की आँच पर।वह कीड़ा ही तो है जिसे कोई नहीं खरीदता। कवि के लिये सबसे ज्यादा काम की चीज वही है,जो कुलबुला रहा है मष्तिष्क में।
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