अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

बेतरतीब- महेश आलोक


   एक कवि की नोटबुक(कुछ कवितानुमा टिप्पणियां)                                       



                                                           (1)


एक बहुत पुराना,लिखने के शुरुआती वर्षों में लिखे गये गीत की कुछ पँक्तियाँ याद आ रहीं हैं-

‘अनबींधे आसक्तिहीन अनुभाव नयन में डोल रहे हैं
ऊँची नीची टूटी-फूटी स्मृतियों को खोल रहे हैं
जाने किस घटनाक्रम ने इनको टुकड़ों में बाँट दिया है
जीवन के अनभोगे पृष्ठों को बिन समझे छाँट दिया है

कौन नये अध्यायों वाले पृष्ठों को फिर जोड़ सकेगा
कौन सुधा मिश्रित जल लेकर बँजर मन को गोंड़ सकेगा।’


                                                                   (2)

कल एक स्त्री नदी में गिरी और मर गयी।क्यों मर गयी स्त्री? क्या नदी में गिरने से या इसलिये कि उसे तैरना नहीं आता था।मैने अपनी बेटी से पूछा- इससे क्या बात निकल कर सामने आती है। उसने उत्तर दिया- ‘परिस्थितियाँ कभी समस्या नहीं बनतीं, समस्या तभी बनती हैं जब हमें उनसे निपटना नहीं आता।’मुझे पहली बार लगा कि मेरी बेटी बड़ी और समझदार हो गयी है।उसके उत्तर से निश्चिन्त होने की तरफ एक कदम तो मैने बढ़ा ही दिया था।

                                                               (3)


उस समय जब दँगा हुआ, मैं दँगाइयों को मारना चाहता था। उनकी सँख्या बहुत थी और मेरे पास सिर्फ दो हाथ। कैसे निपट पाता उनसे। तभी खयाल आया कि मारकर नहीं, दो हाथ जोड़कर तो करोड़ों लोगों का दिल जीता जा सकता है।विनय सबसे बड़ा मूल्य है, अगर समाज के भीतर सद्भाव कायम करना है तो।


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