अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बेतरतीब- महेश आलोक

एक कवि की नोटबुक- महेश आलोक


                                                                  (1)


मैं जिस क्षेत्र (शिकोहाबाद)में रह रहा हूँ वह ब्रज क्षेत्र में आता है। ब्रज वैसे भी मँचीय कविता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लोगों की स्मृति में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि वे हैं जो मँचों पर जमते हैं।गाने-बजाने,चीखने,राष्ट्रवाद और देश भक्ति के नाम पर घनाक्षरी,सवैयों और कवित्त में पड़ोसी मुल्क को गाली देने,चुटकुले सुनाकर भड़ैंती करके,फूहड़ हास्य परोसकर जनता का मनोरंजन करना ही उनका तथाकथित कवि-धर्म है। अब अगर वे मेरी कविता नहीं समझते या उसे कविता ही नहीं मानते, तो बेचारी जनता का क्या दोष! मैं तो उनको समझता हूँ,इसीलिये रचता हूँ।

                                                                 (2)

हजारों पंक्तियों के बीच अचानक कोई पँक्ति पढ़कर उसने कहा कि अरे,यह तो कविता है।आश्चर्य और विस्मय से उछलकर अचानक आ गयी वह पंक्ति कविता कैसे बन गयी?क्या लक्षणा या व्यँजना जैसा दिखा उसमें कुछ-कुछ या पढ़ते-पढ़ते ऊबकर, रुककर उसने विश्राम करने के लिये लम्बे झूठ में सच और सँदेह का विस्तर बना लिया।क्या सचमुच कविता सच और सँदेह के बीच डोलती है?

                                                                 (3)

निराला ने अज्ञेय से कहा- ‘मैं कविता में सँगीत की ध्वनियों में प्रयोग कर रहा हूँ और तुम अर्थ की ध्वनियों में’- अब मैं क्या कर रहा हूँ कविता में।क्या दोनो को मिलाकर किसी रासायनिक क्रिया को अँजाम दे रहा हूँ कि तीसरी सार्थक ध्वनि का सँवाहक बन सकूँ।शायद कविता की तीसरी परँपरा।


0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें