अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

रविवार, 10 जनवरी 2016

बेतरतीब- (एक कवि की नोटबुक)- महेश आलोक



                                            महेश आलोक की डायरी


                                                              (1)

सहित्य, संस्कृति और कला को जन भावनाओं का मुखर पक्षधर होना ही चाहिये।इस पक्षधरता में नैतिकता,मर्यादा,पवित्रता,कर्मयोग, प्रतिरोध का साहस और सत्य जैसे विशिष्ट कोटि के भाव को,प्रत्यय को सर्जनात्मक स्तर पर चरितार्थ करना, मानवीय स्वप्न और सरोकारों को गहरे स्तर पर पकड़ना एक सजग रचनाकार का रचनात्मक दायित्व होना चाहिये।


                                                              (2)

 साहित्य और कला का अन्तिम सत्य मनुष्य की आत्यन्तिक पहचान को सार्वजनिक करना है।

                                                              (3)

क्या कविता हमारी जानी-पहचानी दुनिया को इस तरह रचती है कि ऐसा लगे जैसे हम किसी बिल्कुल नयी दुनिया से संवेदनात्मक साक्षात्कार कर रहे हों? क्या कविता इस अर्थ में एक असजग परिचय से सजग अपरिचय की दुनिया की संवेदनात्मक यात्रा का दूसरा नाम है?शायद!

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