बेतरतीब
(54)
कभी कभी सोचता हूँ, हमारे समाज में जब-जब साम्प्रादायिक दँगे होते हैं,समाज में समरसता पैदा करने के लिये,सद्भाव पैदा करने के लिये कबीर की कविता याद आती है।आधुनिक हिन्दी कविता का कोई कवि क्यों याद नहीं आता।आठ सौ वर्षों के समय को लाँघकर एक मध्यकाल का कवि हमारे लिये प्रासँगिक हो जाता है। और तो और मध्यकाल का ही कोई दूसरा कवि सहसा याद नहीं आता। अगर ‘समकालीनता’ को समय सीमा में न बाँधें, तो क्या कबीर हमारे लिये समकालीन कवि हैं? प्रासँगिकता और समकालीनता क्या एक दूसरे के पूरक नहीं हैं? तो क्या हिन्दी कविता परम्परा में कबीर को छोड़कर किसी कवि ने देश,काल,परिस्थिति का अतिक्रमण नहीं किया? इस अर्थ में कबीर से बड़ा कोई दूसरा कवि हिन्दी कविता परम्परा ने दिया ही नही?क्या ‘लोकमँगल की भावना’,तुलसी से अधिक कबीर में दिखलाई पड़ती है?
अगर इस सोच में अतिवाद है तब भी हमें सोचना तो पड़ेगा ही।
(55)
हजारों शब्द विभिन्न भाषाओं में कविता बन चुके हैं,एक ही शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयुक्त होकर,अलग-अलग ध्वनियों में प्रयुक्त होकर अपनी अर्थवत्ता प्रमाणित कर चुके हैं। मैं जिस शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, अगर इससे पूर्व उसका इस अर्थ-बोध में प्रयोग नहीं हुआ है,तभी उसकी सार्थकता है।अन्यथा मैं सिर्फ लिखता हूँ, रचता नहीं हूँ।मेरी सैकड़ों कविताओं में ऐसा कितनी बार सँभव हुआ है जब मैने रचा है।दुनिया के बड़े से बड़े कवि की कविताएं क्या सौ दो सौ शब्दों में ही सिमटी हुई नहीं हैं? हम अपनी भाषा का सत्तर प्रतिशत भी अभी तक रचना में खर्च नहीं कर पाए है। कवि का काम यह भी है कि तलाश करे किन शब्दों का इस्तेमाल अभी तक कविता में नहीं हुआ है।उनकी अर्थ ध्वनियों का परीक्षण करे,उन्हे कविता बनाए।शब्द तभी जीवित रहेंगे,अन्यथा मर जायेंगे।शब्दों की आयु कविता में ही बढ़ती है। सैकड़ों शब्द, शब्द-कोष में अन्तिम साँसें गिन रहे हैं।
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