अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

बेतरतीब- महेश आलोक



                                                        एक कवि की नोटबुक




(56)
आज मन बहुत उदास है। बेटी को पहली बार अपने से दूर भेज रहा हूँ। बनारस, उसके दादा-दादी के पास छोड़ कर आ रहा हूँ। वहीं  सनबीम सन सिटी में कक्षा- 11 में उसका दाखिला करा दिया है।
बेटियाँ कविता की तरह होती हैं।ऐसी कविता जो आपकी सँवेदना को भी निरन्तर परिष्कृत करती रहती हैं। वह कविता जो आपको अत्यन्त अत्यन्त प्रिय हो लेकिन आप उसका प्रकाशन न करवाना चाहते हों। बार बार पढ़ते हों और चमत्कृत होते हों लेकिन प्रकाशन से डरते हों।
क्यों? इस रहस्य को रहस्य ही बने रहने दें तो अच्छा है।


(57)

मैं कविता नहीं लिखता, कविता मुझे लिखती है और हर बार मुझे मुक्त करती है।
बँधना और मुक्त होना - क्या एक रचनाकार की यही नियति है? नियति नहीं, सर्जनात्मक विवशता?

आज सुबह से बैठा हूँ कविता लिखने के लिये
लिख नहीं पा रहा हूँ
जैसे शब्द रुठ गये हों

हाथ ही नहीं रखने देते
अपनी पीठ पर

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