अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

गुरुवार, 19 मई 2016

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ- महेश आलोक






                                         महेश आलोक की बेतरतीब डायरी




(61)

आतँक का साया इस कदर बढ़ता जा रहा है कि लोग अब खामोश रहकर बोल रहे हैं।अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर पहरा है। कोई भी रचनात्मक प्रतिक्रिया फासिस्टों द्वारा जरुरत से ज्यादा शोर मचाकर दबाई जा रही है। हत्या की धमकियों के साथ दक्षिणपन्थ अपने चरम पर है। उन्हे अब असहिष्णु कहना भी बहुत कम लगने लगा है।मनुष्य कहना अब गाली है।या तो आप हिन्दू हैं या मुसलमान या सिख या ईसाई और वह भी कट्टर हिन्दू, कट्टर मुसलमान, कट्टर सिख या कट्टर ईसाई।धर्मान्धता का विषैला धुआँ हवा को जहरीला बना रहा है। स्थितियाँ ये बनती जा रही हैं कि ‘ जो बचेगा, वही रचेगा’।

(62)

मैं अनुभव के सत्य में विश्वास करता हूँ। बिना उसके कोई भी कविता मात्र तथ्य है।यह बात हर समय की कविता पर लागू होती है। आज तमाम कविताएं मात्र तथ्यात्मक हैं। कवि ने उसे अनुभव जगत का सत्य नहीं बनाया है। उसे रागात्मकता, अनुभव की परिपक्वता, अर्थ और सँगीत की ध्वनियों के परस्पर सह-सँवाद, यथार्थ और कल्पना के कलात्मक युग्म की रचना-प्रक्रिया से गुजरना ही पड़ेगा, तभी वह पाठक के लिये उपयोगी है,अन्यथा कूड़ा है।

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