अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 22 सितंबर 2010

हिन्दी भाषा और राष्ट्रीयता : किरण बजाज

स्वतन्त्रता से २७ वर्ष पूर्व हमारे देश में जो राष्ट्रीयता की भावना थी जिसमें गांधी जी, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, दादाभाई नौरोजी, आदि बहुत से देशभक्तों ने अपनी आहुति दी और जन-जन में देश प्रेम कि अलख जगाई. वह राष्ट्रीयता की भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद (१९६५) श्री लाल बहादुर शास्त्री तक रही. उसके बाद राष्ट्र में बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गईं और राष्ट्रीयता का जोश धीरे-धीरे कम होता चला गया.

सोचना यह है कि राष्ट्रीयता क्या है? यह किसी एक बात पर निर्भर नहीं करती है. राष्ट्रीयता का मतलब है राष्ट्र के प्रति अद्भुत प्रेम, समर्पण की भावना, राष्ट्र की प्रत्येक वस्तु, नागरिक, प्रकृति और धरोहर से प्रेम एवं सबसे ज्यादा राष्ट्र की भाषा और संस्कृति के प्रति निष्ठा क्योंकि भाषा और संस्कृति आपस में जुडे. हैं.

राष्ट्र भाषा हिन्दी के लिये बहुत से स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार, पत्रकार और लेखकों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. परन्तु स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी का प्रयोग संसद जगत से लेकर मनोरंजन, व्यापार और शिक्षा जगत तक बहुत कम हो गया है. छोटे बच्चों को लोरी, हिन्दी की कविता और गीत सुनाये जाते थे. जिसका स्थान अंग्रेजी की ’ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार’ ने ले लिया है. गम्भीर चिंता का विषय यह है कि अंग्रेजी के प्रयोग के साथ-साथ हमारी भावना में हिन्दी के प्रति हीनता व उदासीनता की दीमक लग गई है. "२ फ़रवरी १८३५ में लार्ड मैकाले ने भारत भ्रमण करने के बाद इंग्लैंड की संसद में भाषण देते हुए कहा कि भारत की रीढ़ की हड्डी बडी मजबूत है. अगर हमें भारत पर विजय पानी है तो सबसे पहले उसे तोड़ना होगा और हमारी संस्कृति के प्रति लुभाना होगा जो कि बहुत आसान है." रीढ़ की हड्डी से उनका अभिप्राय हमारी भाषा और संस्कृति से था.

अगर हम यह बात समझ रहे हैं कि हमारी भाषा और संस्कृति पर बहुत चालाकी से चोटें हो रही हैं तो यह जरुरी है कि बहुत जोरदार तरीके से हर स्तर पर समीक्षा की जाये और वह बाधायें जो हमारे सामने आकर हमें गिराने का भरसक प्रयास कर रही हैं उसका डटकर सामना किया जाये. मजेदार बात यह है कि राजभाषा हिन्दी के साथ इतने अन्याय होने के बावजूद वह जिस तरह आगे बढ़ रही है अगर उसे वैज्ञानिक ढंग से समझ कर उसका प्रसार किया जाये और उन्नत किया जाये तो केवल भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन जायेगी.

आज सूचना-तकनीकी और इलेक्ट्रानिक व प्रिन्ट मीडिया में क्रान्ति ला दी है और उन्होंने चाहे अपने फ़ायदे के लिये ही शुरुआत की हो किन्तु उसमें अनायास ही हिन्दी का बहुत बडा फ़ायदा अपने आप हो गया है. दूसरा मनोरंजन जगत ने हिन्दी को बहुत प्रसार व बल दिया है. हमेशा अमेरिका में रहने वाला भारतीय भी अपनी प्रेमिका को कोई हिन्दी गज़ल बोलना नहीं भूलता. विदेशी कम्पनियों ने अपने फ़ायदे के लिये अपनी सूचना विवरणिका को हिन्दी में भी मुद्रित कराया है. यह अलग बात है कि हम इस बात को पहचाने नहीं. इस तरह हिन्दी पढ़ने, लिखने व बोलने वाले के लिये भी नौकरी के अवसर पैदा हो गये हैं.

सरकार, शिक्षण संस्थायें और बुद्धिजीवी सब मिलकर कम से कम हिन्दी प्रान्तों में पूरी समझदारी से और पारदर्शिता के साथ योजना बनायें और हिन्दी प्रान्तों में सभी विषयों को अच्छी तरह हिन्दी में सिखायें. हिन्दी प्रान्तों मे जब हिन्दी सशक्त होगी तभी तो वह राष्ट्रभाषा बन सकेगी. इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं सीखनी है. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है. उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता, इस कारण अंग्रेजी को भी द्वितीय भाषा के रूप में अच्छी तरह से सीखें. जिससे कि व्यवसाय आदि में उसका भावी पीढ़ी लाभ ले सके. किन्तु हिन्दी का हृदय से सम्बन्ध मां की गोदी से धरती की गोदी तक कम नहीं होना चाहिये और जन-जन की नस नस में हिन्दी का गौरव जब हम भरेंगे तब राष्ट्रीयता उपजेगी अन्यथा राष्ट्रीयता कोरा शब्द बनकर रह जायेगा.

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