अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 25 नवंबर 2015

महेश आलोक की बेतरतीब डायरी


कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)


                                                            (1)
एक कवि मित्र ने कहा- बहुत दिन हुए,तुम्हारा नया लिखा कुछ पढ़ा नहीं। मैने कहा- लिख तो रहा हूँ निरंतर, अगर तुम्हारा अर्थ प्रकाशन से है, तो सही है, प्रकाशन के लिये भेज नहीं रहा हूँ कविताएं। 14 वर्ष बीत गये। कविताएं प्रकाशित नहीं हुयीं। लगभग दो  नयी पीढ़ी आ गयी इस बीच। लोग भूलने भी लगे हैं। हिन्दी में सबसे बड़ी समस्या यही है।वह सिर्फ वर्तमान में जीती है।भले ही लेखक अपने लिखे हुए को दुहरा रहा हो,उसे प्रिय है।मेरी समस्या दूसरी है।अगर मैं नया कुछ नहीं कर पा रहा हूँ तो केवल प्रकाशित होने और याद किये जाने के लिये क्यों आऊँ जनता के सामने।अब आ रहा हूँ 14 वर्ष बाद।कुछ नया लेकर। और सबसे बड़ी बात- मुझे लगता है कि मैं अपने को दुहरा नहीं रहा हूँ। लेकिन क्या इस भेंड़चाल में उसे डूबती हुई हिन्दी आलोचना स्वीकार कर सकेगी, क्योंकि तन्त्र पर तो उन्ही का कब्जा है जो एक बने बनाए मॉडल में ही चीजों को देखने के अभ्यस्त हैं।

 
                                                           (2)

मै सब्जी मंडी में सब्जी खरीद रहा हूँ। भिंडी और गोभी के साथ जाने कैसे वह कीड़ा आ गया जो कविता बनने के लिये उतावला हो रहा है। मैं मँडी से थैले में कविता लेकर आ रहा हूँ।अब पकाउँगा उसे सँवेदना की आँच पर।वह कीड़ा ही तो है जिसे कोई नहीं खरीदता। कवि के लिये सबसे ज्यादा काम की चीज वही है,जो कुलबुला रहा है मष्तिष्क में।


बुधवार, 18 नवंबर 2015

महेश आलोक की बेतरतीब डायरी



कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)


                                                               (1)

मैं सचमुच चिन्तित हूं। क्या मेरी पीढ़ी की युवा कविता रैखिक आग्रह, या सामयिकता के रैखिक दबाव में लिखी जा रही है कि उसे जीवन में सुख-उल्लास का निरंतर अभाव शुष्क से शुष्कतर किए जा रहा है। ऐसा कहते हुए मैं स्वयं को कटघरे में खड़ा पाता हॅू ।क्या हम उल्लास, राग और उत्सव को कविता के लिए त्याज्य विषय मानने लगे हैं? क्या इससे कविता का जीवन बहुत छोटा नहीं हो गया है? क्या हम यांत्रिक, रूढ और एकरैखिक दृष्टि के शिकार हो रहे हैं? क्या हम सचमुच मानने या स्वीकार करने लगे हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच के रागात्मक सम्बन्ध और संपर्क को दूर करके, कविता में हम ‘आधुनिक’ होने का हक अदा कर पा रहे हैं? क्या हम ऐसा करके तथाकथित यांत्रिक आधुनिकता का शिकार नहीं हो रहे हैं? जबकि इसी ‘सम्बन्ध और संपर्क’ को सर्जनात्मक स्तर पर ज्यादा ‘रेडिकल’ होने के लिए ‘कलात्मक टूल’ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था।
मेरा सचमुच मानना है कि आज की समकालीन हिन्दी कविता में - ‘ पंत का सहज भोलापन, औत्सुक्य, बाल सुलभ मासूमियत, प्रकृति के साथ की रागात्मक अद्वितीयता और शब्दों की ध्वन्यात्मक अर्थ सघनता की समझ एवं सांगीतिक लय’ का , उसके वर्तमान सर्जनात्मक रूपाकार में सहज समावेश हो जाए, तो उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थवत्ता एक नयी सौन्दर्य दृष्टि से जगमगा उठेगी।

                                                               (2)

मेरठ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग(अध्यक्ष- प्रो0नवीन चन्द्र लोहनी(चर्चित व्यंग्यकार,साहित्यकार)  द्वारा बिल्कुल नए कवियों को आमंत्रित कर एक गोष्ठी आयोजित की गयी। लगभग तीस अति युवा कवि आमंत्रित किये गये।मुझ जैसे प्रौढ़ को भी आमंत्रित किया गया टिप्पणी करने के लिये। मैने इतना अतिरेक और गुस्सा अपनी पीढ़ी के कवियों में नहीं देखा। युवा कवि कविता में यथार्थ के नाम पर, निर्भीकता के नाम पर निपट गाली गलौज वाली भाषा तक उतर आये हैं।दलील यह है कि बिना इस भाषा के यथार्थ के दोहरे चरित्र को अंकित नहीं किया जा सकता। वही पुराना  तथाकथित प्रगतिशील तर्क कि हम ‘कन्टेन्ट’ को ज्यादा महत्व देते हैं, शिल्प तो उसी के अनुसार ढल जाता है। यह केवल दस से बीस प्रतिशत सही है। बिना शिल्प या अन्दाजे-बयानी में प्रयोग किये एक ही साँचे में ढली कविता ही लिखी जा सकती है और उसके यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा होगा कि एक ही तरह का मास्क लगाये जोकरों की टोली नजर आयेगी तमाम कविता,जैसा उस दिन नजर आयी।
तुलसी,गालिब और निराला इसीलिये बार-बार पढे जाने चाहिये कि ये मौलिक कहाँ हैं?  

                                                         (3)

आज भी गोष्ठियों में अज्ञेय और मुक्तिबोध को लेकर तलवारें खिंच जाती हैं।हम यह क्यों नहीं समझते कि हिन्दी कविता के विकास को समझने के लिये दोनो का समान महत्व के साथ बने रहना ही नहीं, दो पैरलल रेखाओं की तरह हमारी समझ में विकसित होना भी जरुरी है।कब तक वादग्रस्त आलोचना की लाठी से अज्ञेय को पीटते रहेंगे। मैं शानी की इस बात से सहमत हूँ कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद इतनी विराट प्रतिभा लेकर कोई दूसरा साहित्यकार पैदा नहीं हुआ ,जिससे जुड़ना और जिसका रचनात्मक विरोध करना, दोनो साहित्य के विकास के लिये जरुरी हो। असल में अज्ञेय का मूर्खतापूर्ण विरोध उन्ही उत्साही वादी लेखकों या संघों ने ज्यादा किया है, जिन्होने अज्ञेय को अधूरा पढ़ा है या बिल्कुल नहीं पढ़ा है। हमारे आका विरोध कर रहे हैं इसलिये हमें भी विरोध करना चाहिये- ‘अज्ञेय विरोध’ में यही प्रवृत्ति ज्यादा दिखलाई पड़ती रही है।



   

शनिवार, 14 नवंबर 2015

एक बोध कविता-कथा- महेश आलोक

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

एक कविता जिसे आप बोध कविता-कथा कह सकते हैं-


एक राजा को उपहार में बाज के दो बच्चे  मिले । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे। राजा ने देखभाल के लिए एक आदमी को नियुक्त कर दिया। कुछ समय बीत जाने पर राजा बाजों को देखने उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था। दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे। राजा ने कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । “ इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे , पर एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था , दूसरा कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया जिससे वो उड़ा था। ये देख राजा ने सवाल किया। ” जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।” राजा  दोनों को ही उड़ना देखना चाहते थे।राजा ने ऐलान कराया कि जो इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा। एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे,  पर बाज थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता। फिर एक दिन एक व्यक्ति ने दोनों बाज आसमान में उडा दिया। अगले दिन दरबार में हाजिर हुआ। उसे स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा , ” मैं बहुत प्रसन्न हूँ ,बस तुम बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया “ “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का बाज आदी हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।
“ इसलिए मैं अपने दोस्तों से कहता हूँ कि हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदी हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की , कुछ बड़ा करने की काबिलियत को भूल जाते हैं। यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं जो आपकी शक्ति के मुताबिक नहीं है तो एक बार ज़रूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल को काटने की ज़रुरत तो नहीं जिसपर आप बैठे हैं ?

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

                                                        (1)

मैं दुखी नहीं हूँ।कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है। समाज उसकी कविता में हँसे, उछले, कूदे, करवटें ले, गाये-गुनगुनाए, संवेदना जगाये, संघर्ष करे।समाज से उसका रागात्मक सम्बन्ध बना रहे,टूटे नहीं,कविता में उसे अपना चेहरा साफ-साफ दिखाई दे,बिगड़े बाल संवारने लायक जगह बची रहे कविता में।वह सड़क दिखाई दे, जिस पर उसे चलना है।यही तो उसका अभीष्ठ है। सचमुच कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है।

                                                   (2)
अगर मैं कविता सुनाऊँ और लोग प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते रहें,तो मुझे क्या समझना चाहिये। एक- लोग मेरी कविताएं समझ रहे हैं और दूसरा- समझ तो नहीं रहे हैं लेकिन तालियाँ बजा रहें हैं कि श्रोता यह न समझें कि हाय-हाय, कितने मूरख हैं, इन्हे इतनी अच्छी कविता समझ में नहीं आ रही है। वहीं एक तीसरा वर्ग भी है, जिसके चेहरे पर सन्नाटा खिंचा है और वह गुस्से में देख रहा है ताली बजाऊ जनता की तरफ।कौन समझ रहा है मेरी कविताएं? 

                                                (3)

सारी समस्या की जड़ किसी भी वस्तु या विचार या भावना को उसके अधूरेपन में देखना है।किसी भी धर्म की उदारता और उसका वैचारिक खुलापन अंधश्रद्धा और मूर्खतापूर्ण फतवे में तब्दील तभी होता है जब देख़ने की दृष्टि इतनी संकुचित हो जाती है क़ि खान-पान जैसी निजी या वैयक्तिक स्वतन्त्रता को भी तथाकथित बेवकूफ़ाना, जड़ परंपराओं के नाम पर कटघरे में खड़ा करके उसका दम घोंट दिया जाता है और कुछ लोग नपुंसको की तरह खड़े होकर गर्व से ताली बजाते हैं और यह मानते हैं कि  हम अहिंसक हैं। समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य मूलतः हिंसक प्राणी है। हम सभी निरंतर हिंसा में लिप्त रहते हैं भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो।यही स्थिति भावनात्मक हिंसा की भी है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं ज्यादा खतरनाक है। धर्म की आड़ में आज जितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है,वह मांसाहार के धवन्यात्मक अर्थ को वहाँ तक ले जाता है जहां किसी प्रगतिशील साहित्यकार की उन्हीं धार्मिक फतवेदारो द्वारा निर्मम हत्या कर दी जाती है और वे ही संघीय ढांचे में बजरंगी बनकर समाज को मांसाहारियों से कही ज्यादा खतरनाक रूप से तोड़ रहे हैं।
                         
                                              (4)

युद्ध का कोई चेहरा नहीं होता।वहाँ तो सिर्फ मृत्यु है।ठीक यही बात मृत्यु के बारे में भी कह सकते हैं। हिंसक हिन्दू हो या मुसलमान,क्या फर्क पड़ता है। चेहरा अहिंसक का होता है और जब वह सही मायने में बनता है तो व्यक्ति या तो बुद्ध बनता है या गाँधी।