अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

बेतरतीब- (एक कवि की नोटबुक)- महेश आलोक


                                              महेश आलोक की डायरी



                                                                  (1)

उसे आग बहुत पसन्द है।जीवन हो या कविता या गद्य- हर जगह उसे आग चाहिये। वह निरन्तर भाग रहा है उस आग के पीछे जो जीवन को सँघर्ष करने की प्रेरणा देता है। मैने पत्नी से कहा- देखो, उसने अपने जीवन को कितना तपा लिया है सँघर्ष की आग में।लोगों के लिये प्रेरणा-स्रोत,एक तपकर निकला हुआ खरा सोना।पत्नी ने शान्त स्वर में उत्तर दिया- ऐसे लोग ठँढ में मर जाते हैं।
मैं अवाक और चुप। ऐसे वाक्य किस अनुभव से निकलते हैं?


                                                                 (2)

प्यार क्या है? मुझे हुआ कि नहीं, कैसे कहूँ। आज पचास की उम्र में जब पीछे देखता हूँ, उन पलों को स्मृति में लाने की कोशिश करता हूँ तो उदास नहीं होता।उस समय जब उसकी प्रतीक्षा में शेव नहीं कर पाता था और दाढ़ी घनी हो जाती थी, तब भी बुरा नहीं दिखता था। माँ कहती थीं-तेरे ऊपर दाढ़ी अच्छी लगती है और मैं अकेला होने से बच जाता था। कभी कभी उसके साथ होते हुए,उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए, केदारनाथ सिंह की कविता याद आती थी- ‘इस दुनिया को इसी तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिये।’और तब मैं बहुत अकेला होता था किसी अँधेरी सुरँग में रोशनी को तलाशता हुआ,उसके साथ होते हुए भी अकेला। क्या प्यार बहुत आत्मीय क्षणों में आपको अकेला कर देता है? आखिर इस रहस्य का रहस्य क्या है? क्या एक पल में मृत्यु का क्षणिक बोध है? या मुक्ति के अनुभव में बन्धन का अनुशासन! क्या है प्यार? या सँभव और असँभव के बीच तनी हुई रस्सी पर चलते हुए मध्य में खड़े होकर ऊपर और नीचे की अनन्त ऊँचाई और अनन्त गहराई का वह अनुभव है जो भय और आसक्ति के अद्भुत सँतुलन से बना है।  


                                                                     (3)

जब मैं कविता नहीं लिख रहा होता हूँ, क्या कर रहा होता हूँ उस समय? क्या शब्दों को पिकनिक पर भेज देता हूँ ?कलम और कागज क्या सोचते हैं उस समय मेरे बारे में। क्या जब मैं कविता नहीं लिख रहा होता हूँ, उस समय सही मायने में रचता हूँ अपने लिये,जीता हूँ अपने लिये अवरोधमुक्त रचाव के साथ।क्या मैं सही मायने में उसी समय रचता हूँ? शब्दों के भीतर भर गये प्रदूषण को साफ करने में ही आधा जीवन निकल गया। क्या वे तमाम कविताएं जो शब्दों के साथ लिखी गयीं, वे मेरे रचाव का एक अँश भी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं? क्या मैं मुक्ति के बन्धन में बँधता चला गया? क्यों कागज पर उतारने के बाद भी छटपटाता रहता हूँ मैं?क्या लिखने के बाद शब्द मर जाते हैं? या मरकर नया जन्म लेते हैं वे।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

एक कवि की नोटबुक - महेश आलोक



                         महेश आलोक की डायरी

                                                           (1)

आज महाविद्यालय में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ। फूहड़ हास्य और ओज के नाम से सांस्कृतिक पुनरुत्थान की गलाफाडू कविताएं सुनाई गयीं। श्रोता मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे। अपनी समझ से वे हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं सुन रहे थे। उन्हें हिंदी कविता की परम्परा का,उसके विकास का ज्ञान नहीं है, इसलिए इन कविताओं को ही वे हिंदी की प्रतिनिधि कविता मान रहे थे, यहाँ तक तो समझा जा सकता है, लेकिन हिंदी के महाविद्यालयी अध्यापक भी उसे ही प्रतिनिधि कविता मान रहे थे, इसे देखना और सुनना किसी कठिन यंत्रणा से गुजरने से कम पीड़ादायक नहीं था।श्यामनारायण पांडे, दिनकर और नवीन की फूहड़ नक़ल वाली तथाकथित कविताएं हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं घोषित की जा रहीं थीं और मैं चुपचाप यह तमाशा देख रहा था। न उगलते बन रहा था न निगलते। मंचीय कविता , कविता के नाम पर जिस तरह की कविता परोस रही है उसे देखकर लगता है कि मुख्यधारा के रचनाकारों को संगठित प्रयास करके आम श्रोताओं के मध्य कविता की सही समझ का संस्कार डालना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब अज्ञेय,मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, विनोदकुमार शुक्ल, राजेश जोशी, आलोक धन्वा आदि महज पुस्तकालयों में धूल खा रहे होंगे या कहीं कोर्स में लगकर अपने को धन्य समझ रहे होंगे। आम जनता के बीच तो वही कवि माना जाएगा जो लाल किले पर आयोजित कवि सम्मेलन में गलाफाडू कविताएं पढ़कर आया हो और आयोजकों से मोटी रकम वसूलकर बिना कर चुकाए देश-विदेश की उसी के बल पर यात्रा करा रहा हो और वहाँ भी हिंदी कविता की भोंडी समझ विकसित कर उसकी मंचीय दुर्दशा का प्रचार प्रसार कर रहा हो। सोचकर ही आतंकित हो जाता हूँ कि विश्व मंच पर श्रोताओं के समक्ष हिंदी कविता की कैसी छवि प्रस्तुत की जा रही है।
     इसी मंच पर समर जी जैसे समर्थ रचनाकार भी कविता पढ़कर गए, जिन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव था। पारम्परिक कविता के बड़े कवि।उन्हें कोटिशः नमन।अगर मंच पर कविता जीवित है तो उसका प्रमुख कारण उदय दा(उदयप्रताप सिंह), समर जी, लाखनसिंह भदौरिया, सोम ठाकुर, कुँअर बेचैन, बुद्धिनाथ मिश्र, माहेश्वर तिवारी आदि रचनाकारों की वजह से।
   क्या लंबे समय से इस तरह के विदूषकी कर्म का परिणाम यह नहीं है कि हिंदी बोलने और पढ़ने वालों को लोग गंभीरता से नहीं लेते? मुझे लगता है कि तमाम कारणों में से एक कारण यह भी है। यह तो सही है कि इस चर्चा में मैं अकेला पड़ गया हूँ। महाविद्यालय के अधिकांश लोग मुझे सभ्य भाषा में गाली ही दे रहे हैं। हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं में ये स्थिति नहीं है इसे मैं अपने अनुभव से जानता हूँ। कम से कम बांगला, मराठी और मलयालम के सन्दर्भ में तो कह ही सकता हूँ। उनके अध्यापको ,रचनाकारों और साहित्य प्रेमी जनता से मेरा संवाद रहा है अपने रिसर्च के दौरान।मंच पर पारंपरिक कविता ही पढ़ी जाती है लेकिन वह कविता तो हो। हाँ, अब अगर मेरी कविता समझने की समझ पर ही प्रश्नचिन्ह विद्वान साथी लगाएं तो बात अलग है। अगर हिंदी कविता मजा लेने की चीज है तब तो पूरी चर्चा ही बेकार है।
     समस्या वहां खड़ी होती है जब आपके आसपास के लोग यह समझने लगते हैं कि कविता और उसके फार्म की समझ,समकालीनता की समझ, कविता की समझ और कविता के नाम पर अनर्गल प्रलाप की समझ सिर्फ महेश आलोक और अखिलेश श्रोत्रिय को है और बाकी लोग क्या बेवकूफ है।वे भी तो हिंदी पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं। तुकबन्दियाँ वे भी करते हैं , कविता लिखते हैं भले ही 70 साल पहले की भाषा में मंचीय कविता की तरह प्रलाप कर रहे हों। उन्हें सुझाव या सलाह देना उनके ज्ञान को धता दिखाने की तरह होता है जो उनके ‘इगो’ को ठेस पहुंचाता है क्योंकि वे हिंदी के सम्माननीय अध्यापक हैं, कविता पढ़ाते है, उन्हें हम और आप ये बताएंगे कि कविता क्या है? और तब हम अहंकारी और अपमान करने वाले निकृष्ट जन घोषित कर दिए जाते हैं।चूंकि उनकी संख्या ज्यादा है तो वे आपके आसपास का वातावरण इतना कलुषित कर देंगे , व्यंग्य करेंगे कि आपको सांस लेना मुश्किल होने लगे। हिंदी के अध्यापक की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह सर्वज्ञ है और चूंकि हिंदी का अध्यापक है इसलिए वह कवि तो जन्मजात है। उसे ये बेवकूफ, जड़ समझाएंगे कि कविता क्या है?
   हिंदी मात्र सस्ते मनोरंजन की भाषा नहीं है और न ही हिंदी कविता।सस्ते मनोरंजन के और भी साधन उपलब्ध हैं।


                                                                     (2)
   कुछ शेर याद आ रहे हैं



सिर्फ हमको पता नहीं होता,
कोई इतना बुरा नहीं होता.

प्यार करता है टूट कर मुझसे,
वरना इतना खफा नहीं होता,

सरहदें लाख खींच दे दुनिया,
कोई दिल से जुदा नहीं होता.

मंज़िलें और पास लगती हैं,
जब कोई रास्ता नहीं होता.

मेरा अपना ही कोई है वरना,
दूर जा कर खड़ा नहीं होता.

यूं ही दिल टूट टूट जाते हैं,
और शिकवा गिला नहीं होता.

ज़िद है मेरी भी देखता हूँ मैं,
दर्द कब तक दवा नहीं होता.

इतनी उम्मीद पालना भी मत,
कोई इंसां ख़ुदा नहीं होता.


           --------------

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

बेतरतीब- महेश आलोक


   एक कवि की नोटबुक(कुछ कवितानुमा टिप्पणियां)                                       



                                                           (1)


एक बहुत पुराना,लिखने के शुरुआती वर्षों में लिखे गये गीत की कुछ पँक्तियाँ याद आ रहीं हैं-

‘अनबींधे आसक्तिहीन अनुभाव नयन में डोल रहे हैं
ऊँची नीची टूटी-फूटी स्मृतियों को खोल रहे हैं
जाने किस घटनाक्रम ने इनको टुकड़ों में बाँट दिया है
जीवन के अनभोगे पृष्ठों को बिन समझे छाँट दिया है

कौन नये अध्यायों वाले पृष्ठों को फिर जोड़ सकेगा
कौन सुधा मिश्रित जल लेकर बँजर मन को गोंड़ सकेगा।’


                                                                   (2)

कल एक स्त्री नदी में गिरी और मर गयी।क्यों मर गयी स्त्री? क्या नदी में गिरने से या इसलिये कि उसे तैरना नहीं आता था।मैने अपनी बेटी से पूछा- इससे क्या बात निकल कर सामने आती है। उसने उत्तर दिया- ‘परिस्थितियाँ कभी समस्या नहीं बनतीं, समस्या तभी बनती हैं जब हमें उनसे निपटना नहीं आता।’मुझे पहली बार लगा कि मेरी बेटी बड़ी और समझदार हो गयी है।उसके उत्तर से निश्चिन्त होने की तरफ एक कदम तो मैने बढ़ा ही दिया था।

                                                               (3)


उस समय जब दँगा हुआ, मैं दँगाइयों को मारना चाहता था। उनकी सँख्या बहुत थी और मेरे पास सिर्फ दो हाथ। कैसे निपट पाता उनसे। तभी खयाल आया कि मारकर नहीं, दो हाथ जोड़कर तो करोड़ों लोगों का दिल जीता जा सकता है।विनय सबसे बड़ा मूल्य है, अगर समाज के भीतर सद्भाव कायम करना है तो।


बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बेतरतीब- महेश आलोक

एक कवि की नोटबुक- महेश आलोक


                                                                  (1)


मैं जिस क्षेत्र (शिकोहाबाद)में रह रहा हूँ वह ब्रज क्षेत्र में आता है। ब्रज वैसे भी मँचीय कविता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लोगों की स्मृति में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि वे हैं जो मँचों पर जमते हैं।गाने-बजाने,चीखने,राष्ट्रवाद और देश भक्ति के नाम पर घनाक्षरी,सवैयों और कवित्त में पड़ोसी मुल्क को गाली देने,चुटकुले सुनाकर भड़ैंती करके,फूहड़ हास्य परोसकर जनता का मनोरंजन करना ही उनका तथाकथित कवि-धर्म है। अब अगर वे मेरी कविता नहीं समझते या उसे कविता ही नहीं मानते, तो बेचारी जनता का क्या दोष! मैं तो उनको समझता हूँ,इसीलिये रचता हूँ।

                                                                 (2)

हजारों पंक्तियों के बीच अचानक कोई पँक्ति पढ़कर उसने कहा कि अरे,यह तो कविता है।आश्चर्य और विस्मय से उछलकर अचानक आ गयी वह पंक्ति कविता कैसे बन गयी?क्या लक्षणा या व्यँजना जैसा दिखा उसमें कुछ-कुछ या पढ़ते-पढ़ते ऊबकर, रुककर उसने विश्राम करने के लिये लम्बे झूठ में सच और सँदेह का विस्तर बना लिया।क्या सचमुच कविता सच और सँदेह के बीच डोलती है?

                                                                 (3)

निराला ने अज्ञेय से कहा- ‘मैं कविता में सँगीत की ध्वनियों में प्रयोग कर रहा हूँ और तुम अर्थ की ध्वनियों में’- अब मैं क्या कर रहा हूँ कविता में।क्या दोनो को मिलाकर किसी रासायनिक क्रिया को अँजाम दे रहा हूँ कि तीसरी सार्थक ध्वनि का सँवाहक बन सकूँ।शायद कविता की तीसरी परँपरा।


शनिवार, 5 दिसंबर 2015

महेश आलोक की बेतरतीब डायरी

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

                                                             (1)

मैं नियति पर विश्वास नहीं करता। लेकिन अगर इस शब्द का इस्तेमाल करना ही पड़े तो क्या इस तरह कहा जा सकता है क्या कि मेरे द्वारा देखे गये सपने की परिणिति है नियति। मेरे घर के बगल में रहने वाले रसूल चाचा जो टेलर मास्टर हैं और दो जून की रोटी बमुश्किल कमा पाते हैं, अक्सर हँस कर कहते हैं बेटा- हम जैसे लोग तो पूरी जिन्दगी सपने देखने में काट देते हैं।सपने देखना ही हमारी नियति है।ऊपरवाला भी यहीं तक की इजाजत देता है हमें। मेरी सारी ‘रेशनेलिटी’ धरी रह जाती है यहाँ पर।

                                                            (2)

वह जो सूरज है हर शाम अपने कीचड़ सने पाँव मेरी कविता में धोता है और प्रवेश कर जाता है किसी अत्यन्त सुरक्षित कमरे में सोने के लिए।एक ही काम रोज रोज।ऊबता नहीं है वह। सोचता हूँ, मेरी कविता में आने के पहले इतना कीचड़ लगता कैसे है उसके पैर में।पूछता हूँ तो हँस कर टाल देता है मेरी बात। हालाँकि कभी कभी देखने लगता है नदी और सँसद की तरफ।

                                                            (3)

मैने महसूस किया कि लम्बे समय से मैं किसी ज्यामितिक आकार में ढलता जा रहा हूँ।त्रिभुज,षटभुज,वृत्त- क्या-क्या बनता जा रहा हूँ बिना किसी प्रतिरोध के। पत्नी ताने देती है कि तुम गणित के प्रश्नों की तरह जटिल से जटिलतर होते जा रहे हो। तुम्हे समझना तुम्हारी कविता से ज्यादा कठिन है। ऐसी कविता कब लिखूँगा जब पूरा परिवार एक सीधी सरल रेखा समझने लगे मुझे और मेरा बेटा सरपट साइकिल दौड़ाता हुआ बिना किसी गतिरोधक के कल्लू मिस्त्री को पिछली सीट पर बैठाकर कर आए मेरी कविताओं में सैर।

                                                           (4)
कभी आपने ऐसा दृश्य देखा है जिसमें आकाश में एक चिड़िया उड़ रही है और परेशान है कि कोई चील या बाज झपट्टा मारकर दबोच न ले।आखिर चिड़िया का स्वतन्त्र होकर घूमना,उड़ना क्यों खल रहा है उसे? क्या ऐसा ही कुछ उस स्त्री के साथ नहीं हो रहा है जो उड़ तो रही है लेकिन डरी हुई है उस पुरुष रुपी बाज से जो कह रहा है कि उसके अधिकार क्षेत्र में स्वतन्त्र होकर घूमना मृत्यु को दावत देना है।मैं उस समय बहुत खुश हुआ जब किसी बेटी ने गली के एक गुन्डे को चप्पलों से पीटा और कुछ और लड़्कियाँ जो उस गुन्डे से परेशान थीं, साहस करके सामने आयीं, और उसे ऐसा सबक सिखाया कि पुलिस भी देखती रह गयी।साहस! आत्मबल! प्राथमिक स्तर पर तो यही अस्त्र है उस बाज से लड़ने के लिये। अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिये।

बुधवार, 25 नवंबर 2015

महेश आलोक की बेतरतीब डायरी


कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)


                                                            (1)
एक कवि मित्र ने कहा- बहुत दिन हुए,तुम्हारा नया लिखा कुछ पढ़ा नहीं। मैने कहा- लिख तो रहा हूँ निरंतर, अगर तुम्हारा अर्थ प्रकाशन से है, तो सही है, प्रकाशन के लिये भेज नहीं रहा हूँ कविताएं। 14 वर्ष बीत गये। कविताएं प्रकाशित नहीं हुयीं। लगभग दो  नयी पीढ़ी आ गयी इस बीच। लोग भूलने भी लगे हैं। हिन्दी में सबसे बड़ी समस्या यही है।वह सिर्फ वर्तमान में जीती है।भले ही लेखक अपने लिखे हुए को दुहरा रहा हो,उसे प्रिय है।मेरी समस्या दूसरी है।अगर मैं नया कुछ नहीं कर पा रहा हूँ तो केवल प्रकाशित होने और याद किये जाने के लिये क्यों आऊँ जनता के सामने।अब आ रहा हूँ 14 वर्ष बाद।कुछ नया लेकर। और सबसे बड़ी बात- मुझे लगता है कि मैं अपने को दुहरा नहीं रहा हूँ। लेकिन क्या इस भेंड़चाल में उसे डूबती हुई हिन्दी आलोचना स्वीकार कर सकेगी, क्योंकि तन्त्र पर तो उन्ही का कब्जा है जो एक बने बनाए मॉडल में ही चीजों को देखने के अभ्यस्त हैं।

 
                                                           (2)

मै सब्जी मंडी में सब्जी खरीद रहा हूँ। भिंडी और गोभी के साथ जाने कैसे वह कीड़ा आ गया जो कविता बनने के लिये उतावला हो रहा है। मैं मँडी से थैले में कविता लेकर आ रहा हूँ।अब पकाउँगा उसे सँवेदना की आँच पर।वह कीड़ा ही तो है जिसे कोई नहीं खरीदता। कवि के लिये सबसे ज्यादा काम की चीज वही है,जो कुलबुला रहा है मष्तिष्क में।


बुधवार, 18 नवंबर 2015

महेश आलोक की बेतरतीब डायरी



कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)


                                                               (1)

मैं सचमुच चिन्तित हूं। क्या मेरी पीढ़ी की युवा कविता रैखिक आग्रह, या सामयिकता के रैखिक दबाव में लिखी जा रही है कि उसे जीवन में सुख-उल्लास का निरंतर अभाव शुष्क से शुष्कतर किए जा रहा है। ऐसा कहते हुए मैं स्वयं को कटघरे में खड़ा पाता हॅू ।क्या हम उल्लास, राग और उत्सव को कविता के लिए त्याज्य विषय मानने लगे हैं? क्या इससे कविता का जीवन बहुत छोटा नहीं हो गया है? क्या हम यांत्रिक, रूढ और एकरैखिक दृष्टि के शिकार हो रहे हैं? क्या हम सचमुच मानने या स्वीकार करने लगे हैं कि प्रकृति और मनुष्य के बीच के रागात्मक सम्बन्ध और संपर्क को दूर करके, कविता में हम ‘आधुनिक’ होने का हक अदा कर पा रहे हैं? क्या हम ऐसा करके तथाकथित यांत्रिक आधुनिकता का शिकार नहीं हो रहे हैं? जबकि इसी ‘सम्बन्ध और संपर्क’ को सर्जनात्मक स्तर पर ज्यादा ‘रेडिकल’ होने के लिए ‘कलात्मक टूल’ के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता था।
मेरा सचमुच मानना है कि आज की समकालीन हिन्दी कविता में - ‘ पंत का सहज भोलापन, औत्सुक्य, बाल सुलभ मासूमियत, प्रकृति के साथ की रागात्मक अद्वितीयता और शब्दों की ध्वन्यात्मक अर्थ सघनता की समझ एवं सांगीतिक लय’ का , उसके वर्तमान सर्जनात्मक रूपाकार में सहज समावेश हो जाए, तो उसकी सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थवत्ता एक नयी सौन्दर्य दृष्टि से जगमगा उठेगी।

                                                               (2)

मेरठ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग(अध्यक्ष- प्रो0नवीन चन्द्र लोहनी(चर्चित व्यंग्यकार,साहित्यकार)  द्वारा बिल्कुल नए कवियों को आमंत्रित कर एक गोष्ठी आयोजित की गयी। लगभग तीस अति युवा कवि आमंत्रित किये गये।मुझ जैसे प्रौढ़ को भी आमंत्रित किया गया टिप्पणी करने के लिये। मैने इतना अतिरेक और गुस्सा अपनी पीढ़ी के कवियों में नहीं देखा। युवा कवि कविता में यथार्थ के नाम पर, निर्भीकता के नाम पर निपट गाली गलौज वाली भाषा तक उतर आये हैं।दलील यह है कि बिना इस भाषा के यथार्थ के दोहरे चरित्र को अंकित नहीं किया जा सकता। वही पुराना  तथाकथित प्रगतिशील तर्क कि हम ‘कन्टेन्ट’ को ज्यादा महत्व देते हैं, शिल्प तो उसी के अनुसार ढल जाता है। यह केवल दस से बीस प्रतिशत सही है। बिना शिल्प या अन्दाजे-बयानी में प्रयोग किये एक ही साँचे में ढली कविता ही लिखी जा सकती है और उसके यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा होगा कि एक ही तरह का मास्क लगाये जोकरों की टोली नजर आयेगी तमाम कविता,जैसा उस दिन नजर आयी।
तुलसी,गालिब और निराला इसीलिये बार-बार पढे जाने चाहिये कि ये मौलिक कहाँ हैं?  

                                                         (3)

आज भी गोष्ठियों में अज्ञेय और मुक्तिबोध को लेकर तलवारें खिंच जाती हैं।हम यह क्यों नहीं समझते कि हिन्दी कविता के विकास को समझने के लिये दोनो का समान महत्व के साथ बने रहना ही नहीं, दो पैरलल रेखाओं की तरह हमारी समझ में विकसित होना भी जरुरी है।कब तक वादग्रस्त आलोचना की लाठी से अज्ञेय को पीटते रहेंगे। मैं शानी की इस बात से सहमत हूँ कि रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद इतनी विराट प्रतिभा लेकर कोई दूसरा साहित्यकार पैदा नहीं हुआ ,जिससे जुड़ना और जिसका रचनात्मक विरोध करना, दोनो साहित्य के विकास के लिये जरुरी हो। असल में अज्ञेय का मूर्खतापूर्ण विरोध उन्ही उत्साही वादी लेखकों या संघों ने ज्यादा किया है, जिन्होने अज्ञेय को अधूरा पढ़ा है या बिल्कुल नहीं पढ़ा है। हमारे आका विरोध कर रहे हैं इसलिये हमें भी विरोध करना चाहिये- ‘अज्ञेय विरोध’ में यही प्रवृत्ति ज्यादा दिखलाई पड़ती रही है।



   

शनिवार, 14 नवंबर 2015

एक बोध कविता-कथा- महेश आलोक

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

एक कविता जिसे आप बोध कविता-कथा कह सकते हैं-


एक राजा को उपहार में बाज के दो बच्चे  मिले । वे बड़ी ही अच्छी नस्ल के थे। राजा ने देखभाल के लिए एक आदमी को नियुक्त कर दिया। कुछ समय बीत जाने पर राजा बाजों को देखने उस जगह पहुँच गए जहाँ उन्हें पाला जा रहा था। दोनों बाज काफी बड़े हो चुके थे। राजा ने कहा, ” मैं इनकी उड़ान देखना चाहता हूँ , तुम इन्हे उड़ने का इशारा करो । “ इशारा मिलते ही दोनों बाज उड़ान भरने लगे , पर एक बाज आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा था , दूसरा कुछ ऊपर जाकर वापस उसी डाल पर आकर बैठ गया जिससे वो उड़ा था। ये देख राजा ने सवाल किया। ” जी हुजूर , इस बाज के साथ शुरू से यही समस्या है , वो इस डाल को छोड़ता ही नहीं।” राजा  दोनों को ही उड़ना देखना चाहते थे।राजा ने ऐलान कराया कि जो इस बाज को ऊँचा उड़ाने में कामयाब होगा उसे ढेरों इनाम दिया जाएगा। एक से एक विद्वान् आये और बाज को उड़ाने का प्रयास करने लगे,  पर बाज थोडा सा उड़ता और वापस डाल पर आकर बैठ जाता। फिर एक दिन एक व्यक्ति ने दोनों बाज आसमान में उडा दिया। अगले दिन दरबार में हाजिर हुआ। उसे स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने के बाद राजा ने कहा , ” मैं बहुत प्रसन्न हूँ ,बस तुम बताओ कि जो काम बड़े-बड़े विद्वान् नहीं कर पाये वो तुमने कैसे कर दिखाया “ “मालिक ! मैं तो एक साधारण सा किसान हूँ , मैं ज्ञान की ज्यादा बातें नहीं जानता , मैंने तो बस वो डाल काट दी जिस पर बैठने का बाज आदी हो चुका था, और जब वो डाल ही नहीं रही तो वो भी अपने साथी के साथ ऊपर उड़ने लगा।
“ इसलिए मैं अपने दोस्तों से कहता हूँ कि हम सभी ऊँचा उड़ने के लिए ही बने हैं। लेकिन कई बार हम जो कर रहे होते है उसके इतने आदी हो जाते हैं कि अपनी ऊँची उड़ान भरने की , कुछ बड़ा करने की काबिलियत को भूल जाते हैं। यदि आप भी सालों से किसी ऐसे ही काम में लगे हैं जो आपकी शक्ति के मुताबिक नहीं है तो एक बार ज़रूर सोचिये कि कहीं आपको भी उस डाल को काटने की ज़रुरत तो नहीं जिसपर आप बैठे हैं ?

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

कुछ कवितानुमा टिप्पणियाँ(महेश आलोक की बेतरतीब डायरी)

                                                        (1)

मैं दुखी नहीं हूँ।कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है। समाज उसकी कविता में हँसे, उछले, कूदे, करवटें ले, गाये-गुनगुनाए, संवेदना जगाये, संघर्ष करे।समाज से उसका रागात्मक सम्बन्ध बना रहे,टूटे नहीं,कविता में उसे अपना चेहरा साफ-साफ दिखाई दे,बिगड़े बाल संवारने लायक जगह बची रहे कविता में।वह सड़क दिखाई दे, जिस पर उसे चलना है।यही तो उसका अभीष्ठ है। सचमुच कवि अपने आप से दुखी हो ही नहीं सकता।वह तो समाज के दुखी होने से दुखी होता है।

                                                   (2)
अगर मैं कविता सुनाऊँ और लोग प्रसन्न होकर तालियाँ बजाते रहें,तो मुझे क्या समझना चाहिये। एक- लोग मेरी कविताएं समझ रहे हैं और दूसरा- समझ तो नहीं रहे हैं लेकिन तालियाँ बजा रहें हैं कि श्रोता यह न समझें कि हाय-हाय, कितने मूरख हैं, इन्हे इतनी अच्छी कविता समझ में नहीं आ रही है। वहीं एक तीसरा वर्ग भी है, जिसके चेहरे पर सन्नाटा खिंचा है और वह गुस्से में देख रहा है ताली बजाऊ जनता की तरफ।कौन समझ रहा है मेरी कविताएं? 

                                                (3)

सारी समस्या की जड़ किसी भी वस्तु या विचार या भावना को उसके अधूरेपन में देखना है।किसी भी धर्म की उदारता और उसका वैचारिक खुलापन अंधश्रद्धा और मूर्खतापूर्ण फतवे में तब्दील तभी होता है जब देख़ने की दृष्टि इतनी संकुचित हो जाती है क़ि खान-पान जैसी निजी या वैयक्तिक स्वतन्त्रता को भी तथाकथित बेवकूफ़ाना, जड़ परंपराओं के नाम पर कटघरे में खड़ा करके उसका दम घोंट दिया जाता है और कुछ लोग नपुंसको की तरह खड़े होकर गर्व से ताली बजाते हैं और यह मानते हैं कि  हम अहिंसक हैं। समाज वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य मूलतः हिंसक प्राणी है। हम सभी निरंतर हिंसा में लिप्त रहते हैं भले ही वह मानसिक ही क्यों न हो।यही स्थिति भावनात्मक हिंसा की भी है जो प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं ज्यादा खतरनाक है। धर्म की आड़ में आज जितना खतरनाक खेल खेला जा रहा है,वह मांसाहार के धवन्यात्मक अर्थ को वहाँ तक ले जाता है जहां किसी प्रगतिशील साहित्यकार की उन्हीं धार्मिक फतवेदारो द्वारा निर्मम हत्या कर दी जाती है और वे ही संघीय ढांचे में बजरंगी बनकर समाज को मांसाहारियों से कही ज्यादा खतरनाक रूप से तोड़ रहे हैं।
                         
                                              (4)

युद्ध का कोई चेहरा नहीं होता।वहाँ तो सिर्फ मृत्यु है।ठीक यही बात मृत्यु के बारे में भी कह सकते हैं। हिंसक हिन्दू हो या मुसलमान,क्या फर्क पड़ता है। चेहरा अहिंसक का होता है और जब वह सही मायने में बनता है तो व्यक्ति या तो बुद्ध बनता है या गाँधी।