अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

साहित्य में ’प्रभाव की सार्थकता’ - महेश आलोक

                  आज मैं साहित्य में ’प्रभाव की सार्थकता’ के बारे में सोच रहा था। क्या साहित्य में मौलिक कुछ भी नहीं है?क्या साहित्य रचना एक सांस्कृतिक क्रिया है? जैसा कि ‘मुक्तिबोध’ ने कहा और जब मैं मुक्तिबोध’ के शब्दों में सांस्कृतिक क्रिया कह रहा हूं,तो यह नहीं भूल रहा हूं कि बिना मूल्यदृष्टि के संस्कृति का कोई अर्थ नहीं है और यह मूल्यदृष्टि संस्कृति को हर स्तर पर समय के साथ अपनी परिवर्तनकारी क्रिया-अन्तःक्रिया के साथ प्रभावित करती चलती है।मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन याद आ रहा है-शुद्ध संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं होती।समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर टकराहट या मुठभेड़ के फलस्वरूप अपनी जड़ों में गहराई तक फैली प्राणवान संस्कृति विभिन्न प्रकार के प्रभावों को अपने प्राकृतिक चरित्र में खपाकर,अपने अनुरूप ढालकर, निरंतर गत्यात्मक ऊर्जा के द्वारा समाज को,परिवार को,सबके आपसी संबन्धों को,श्रम और संपत्ति के विभाजन और उपभोग को प्राणिमात्र से ही नहीं,वस्तुमात्र से हमारे संबन्धों को निरूपित और निर्धारित करती है।’इस तरह संस्कृतियां भी लगातार बदलती हैं।और हम सभी जानते हैं कि केवल भौतिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप संस्कृति का निर्माण नहीं हुआ है,वह अनिवार्य रूप से मानव जगत,जीव जगत,भौतिक जगत के साथ अंतःसम्बन्धों की क्रिया-अन्तःक्रिया-प्रतिक्रिया में निर्मित हुआ है।और निश्चय ही इसमें बदलाव आता है।ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के विस्तार के साथ,परस्पर सम्बन्धों के विस्तार के साथ बदलाव आता है और इस बदलाव का सीधा सम्बन्ध भाषा से है और भाषा साहित्य का अनिवार्य माध्यम है। चूंकि साहित्य में संस्कृति के इस  संपूर्ण क्रिया ब्यापार का  संवेदनात्मक  प्रतिबिम्ब प्रतिलक्षित होता है,इसलिये ‘मुक्तिबोध’ को कहना पड़ा कि ‘ साहित्य एक सांस्कृतिक क्रिया है ’।
      

रविवार, 12 दिसंबर 2010

चन्द्रकान्त वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि - महेश आलोक

                                                                      
         डा. चन्द्रकान्त वांदिवडेकर हिन्दी एवं मराठी साहित्य के समर्थ आलोचक के रूप में ख्यात हैं। साहित्य में प्रचलित तमाम खेमेबन्दी से अलग, वादों-प्रतिवादों से दूर चुपचाप साहित्य साधना में रत डा. वांदिवडेकर ने आलोचना के लिए अपने प्रतिमान खुद गढे़ हैं। रचना के प्रति तत्वग्राही दृष्टि, एक अनिवार्य रचनात्मक संवेदनशीलता, सर्जनात्मक कृति को केन्द्र में रखकर ‘पाठ केन्द्रित आलोचना’ के साथ ही ऐतिहासिक विवेक और ‘स्वतन्त्रता’ जैसे बडे़ मानवीय मूल्य के साथ खडे़ होने का दुर्लभ साहस, जातीय और प्रतिबद्ध लेखन के प्रति पूर्वग्रहरहित उदार दृष्टि, रचना के यथार्थ और उसके कलात्मक सौन्दर्य को रचनाकार की आस्था के साथ समझने की कोशिश, यथार्थ सम्प्रेषण की बुनियादी समस्याओं को संरचनात्मक तथा संवेदना की बनावट और बुनावट के स्तर पर पकड़ने की सार्थक पहल- यह सब डा. वांदिवडेकर की सजग आलोचना का अनिवार्य हिस्सा है।


                           चन्द्रकान्त वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि 
                                                                                                               - महेश आलोक
 
         असल में समकालीन हिन्दी और मराठी साहित्य में स्वचेतना, निर्वैयक्तिकता, स्वाधीन व्यक्तित्व के निर्माण, विकास और रक्षण के बीच जो द्वंद है और जो आधुनिक साहित्य का प्रमुख लक्षण भी है, उसे डा. वांदिवडेकर पूरे आलोचनात्मक विवेक के साथ पकड़ते हैं और एक नई उत्सुकता, स्वायत्तता और प्रासंगिकता के साथ मूल्यांकन के स्तर पर चरितार्थ कर देते हैं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ‘स्वायत्तता और प्रासंगिकता’, ‘स्वतंत्रता और प्रतिबद्धता’ के रिश्ते रचना की बनावट में कहीं ज्यादा जटिल होते हैं।
            डा. वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि किसी कृति की स्थूल प्रासंगिकता को नकारती है क्योंकि कृति की ताकत उसकी द्विविधात्मक प्रकृति में निहित होती है। रचनात्मक आलोचना इसीलिए निर्णय नहीं लेती, निर्णय लेने की प्रक्रिया में संघर्ष और साहस जैसे बडे़ जीवनमूल्य की ओर उन्मुख कर देती है। उनका आलोचक इसी समझ का इस्तेमाल करता हुआ रचना के भीतर बहुवस्तुस्पर्षी संवेदना और स्वभाव को अपनी आलोचना का प्रमुख हथियार या ‘टूल्स’ बना लेता है।  उनका स्पष्ट मानना है कि ‘‘समीक्षा का आधार यही नही होना चाहिए कि समीक्ष्य कृति से किस तात्कालिक प्रयोजनीयता की सिद्धि हो रही है, बल्कि यह होना चाहिए कि जीवन के जिस पक्ष को रचनाकार ने प्रस्तुत करना चाहा है, उसमें कहां तक सफल हुआ है। होमर और शेक्सपीयर की श्रेष्ठता के जो निकष हैं, टॅालस्टाय, बालज़ाक या गोर्की के लिए वे उपयुक्त न होंगे। इसी प्रकार आधुनिक साहित्य की समीक्षा सरणियों से बाल्मीकि, व्यास, कालीदास, भास या तुलसीदास का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसलिए साहित्य समीक्षा में ऐतिहासिक दृष्टि, आलोचनात्मक विवेक और मर्मस्पर्शी सहृदयता का सम्यक समन्वय होना आवश्यक है।’’
          डा. वांदिवडेकर की समीक्षा दृष्टि व्यापक, उदार और समावेशी है तथा आलोचना,  अस्मिता और अभिव्यक्ति की तलाश का सशक्त माध्यम। उनकी आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदनहीनता के विरूद्ध लगातार संघर्ष है। वे साहित्य में स्मृतिहीनता का निरंतर निषेध करते है। इसी निषेध से यह मूल्य-दृष्टि विकसित होती है कि बड़ा साहित्य देश और काल का अतिक्रमण करता हुआ हमारे अपने समय में भी उतना ही प्रासंगिक हो उठता है, जितना अपने रचनाकाल के समय था। इस अर्थ में डा. वांदिवडेकर की आलेाचनतात्मक दृष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय की आलोचना दृष्टियों का रासायनिक प्रतिफलन है।
इसी रासायनिक प्रतिफलन से वह मौलिक दृष्टि निःसृत होती है, जिसके आधार पर वे पूरे भारतीय साहित्य में अटूट जीवनधर्मिता, जीवनानुभूति की समग्रता, गहनता और व्यापकता को लक्षित कर पाते है, जो एक दूसरे स्तर पर भारतीय संस्कृति की अटूट पहचान भी है।
          और अन्त में डा. वांदिवडेकर की आलोचना की एक जरूरी और उल्लेखनीय विशेषता की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा, बल्कि इसे रेखांकित करना चाहूंगा अर्थात उसकी पठनीयता और प्रेषणीयता को, जो हमें अज्ञेय, रामविलास शर्मा, अशोक वाजपेयी, देवीशंकर अवस्थी की आलोचना का स्मरण करा जाती है। वह है उनकी सघन, प्रखर, आत्मीय, और धूमिल की तरह सूक्तिपरक नाटकीय भाषा, जहां पारिभाषिक शब्दावली और चमकदार वाक्यविन्यास के साथ सहजता का चमत्कारिक प्रभाव दुर्लभ संयोग की तरह उपस्थित है।

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शनिवार, 4 दिसंबर 2010

‘आमलेट पर गंगाजल छिडकने जैसे पाखण्ड से हिन्दी की दशा नहीं सुधर सकती’ - चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

सांस्कृतिक एवं राजनैतिक जागरण के प्रतीक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी 
                                                                         -  महेश आलोक

      पद्मभूषण, प्रख्यात गांधीवादी चिंतक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में न्यायनिष्ठता, आचरणगत शुचिता तथा गांधीवादी मूल्यों की समकालीन प्रासंगिता एक साथ मौजूद है। हिन्दी भाषा के प्रति अटूट लगाव तथा भारतीय होने का गौरवबोध उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है। स्वतन्त्रता संग्राम की कठिन लड़ाई व संघर्ष में हिन्दी भाषा को जातीय हथियार के रूप में प्रयोग करके श्री धर्माधिकारी ने गांधी जी के स्वराज की कल्पना को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत सरकार ने श्री धर्माधिकारी का नाम प्रतिष्ठित स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की सूची में सम्मिलित कर आपके महती योगदान के दशांश को ही रेखांकित करने का प्रयास किया है। आपका कद इससे कहीं बडा है। आप सिर्फ राष्ट्रवादी नहीं है, आपके भीतर राष्ट्र की सजीव कल्पना निरंतर अपने प्रगतिशील रूप में साकार होती रही है।
      स्वतंत्र भारत में हिन्दी की गरिमा और सम्मान को अक्षुण्ण रखने, उसकी दशा और दिशा में निरंतर सुधार के लिए कृतसंकल्पित धर्माधिकारी अपने ही घर में अपनी भाषा अर्थात हिन्दी के सार्वजनिक अपमान से आहत हैं। उन्हें लगता है कि बिना सांस्कृतिक और राजनैतिक जागरण के हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित नहीं हो सकती। हिन्दी विश्व की विराट भाषा है। उसकी ऐतिहासिक गरिमा को याद करके खुश और गौरवान्वित हुआ जा सकता है लेकिन इस समय उसका वर्तमान ज्यादा सोचनीय है। अगर वर्तमान नहीं सुधरा तो भविष्य चैपट हो जाएगा। धर्माधिकारी मानते है कि सच्ची हिन्दी की सेवा हिन्दी के पाखण्ड से सम्भव नही है। हमें अपने विचार और संवेदना दोनों में हिन्दी को आत्यंतिक रूप से न सिर्फ शामिल करना होगा बल्कि चरित्र के स्तर पर जीना भी होगा।
     उनका एक चर्चित मुहावरा है कि ‘आमलेट पर गंगाजल छिडकने जैसे पाखण्ड से हिन्दी की दशा नहीं सुधर सकती’ । असल में हिन्दी भारतीय चरित्र की भाषा है, सोच और संवेदना की भाषा है, जातीय स्मृति की भाषा है। इन सबसे कटकर हम अपंग हो जाएंगे। धर्माधिकारी यह मानते है कि यदि हमारा हिन्दी चरित्र उज्जवल रहा, हम चरित्रवान रहे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने से कोई नहीं रोक सकता। वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन की नींव में ही हिन्दी है, इसलिए हिन्दी हमारी ‘मां’ है और यह याद दिलाना शायद गलत होगा कि हमें अपनी ‘मां’ का सम्मान करना चाहिए। हमारी नियति यह है कि हम अपनी स्वाभाविक स्थितियों, गतियों और मूल्य निष्ठाओं से पीछे हट रहे है, नहीं तो यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि हिन्दी हमारी ‘मां’ है और उसका हमें सम्मान करना चाहिए। धर्माधिकारी की पीड़ा उस समय ज्यादा मुखरित हो जाती है जब हिन्दी भाषी प्रदेश में ही वे हिन्दी का अपमान होते देखते है।

     धर्माधिकारी पर्यावरणविद भी हैं। वे ‘संस्कृति’ और ‘प्रकृति’ को एक साथ लेकर चलने के हिमायती हैं। दोंनों के बीच में उचित सामंजस्य बैठाते हुए उनका व्यक्तित्व लगभग इसी का एक विराट प्रतीक बन गया है। सामाजिक न्याय, स्वदेशी, जातीय भाषा हिन्दी, नारी सशक्तीकरण और वैश्विक मूल्यों को अपनी संदवेना में निरंतर जीवित रखे हुए धर्माधिकारी न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अजस्र प्रेरणा स्रोत हैं।
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो बात गांधी जी के संदर्भ में कही थी, उसी को थोड़ा बदलकर अगर हम यह कहें कि ‘‘आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगीं कि इस पृथ्वी पर चन्द्रशेखर धर्माधिकारी जैसा विलक्षण व्यक्तित्व भी चला था।’’ तो गलत नहीं होगा।


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