अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

साहित्य में ’प्रभाव की सार्थकता’ - महेश आलोक

                  आज मैं साहित्य में ’प्रभाव की सार्थकता’ के बारे में सोच रहा था। क्या साहित्य में मौलिक कुछ भी नहीं है?क्या साहित्य रचना एक सांस्कृतिक क्रिया है? जैसा कि ‘मुक्तिबोध’ ने कहा और जब मैं मुक्तिबोध’ के शब्दों में सांस्कृतिक क्रिया कह रहा हूं,तो यह नहीं भूल रहा हूं कि बिना मूल्यदृष्टि के संस्कृति का कोई अर्थ नहीं है और यह मूल्यदृष्टि संस्कृति को हर स्तर पर समय के साथ अपनी परिवर्तनकारी क्रिया-अन्तःक्रिया के साथ प्रभावित करती चलती है।मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन याद आ रहा है-शुद्ध संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं होती।समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर टकराहट या मुठभेड़ के फलस्वरूप अपनी जड़ों में गहराई तक फैली प्राणवान संस्कृति विभिन्न प्रकार के प्रभावों को अपने प्राकृतिक चरित्र में खपाकर,अपने अनुरूप ढालकर, निरंतर गत्यात्मक ऊर्जा के द्वारा समाज को,परिवार को,सबके आपसी संबन्धों को,श्रम और संपत्ति के विभाजन और उपभोग को प्राणिमात्र से ही नहीं,वस्तुमात्र से हमारे संबन्धों को निरूपित और निर्धारित करती है।’इस तरह संस्कृतियां भी लगातार बदलती हैं।और हम सभी जानते हैं कि केवल भौतिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप संस्कृति का निर्माण नहीं हुआ है,वह अनिवार्य रूप से मानव जगत,जीव जगत,भौतिक जगत के साथ अंतःसम्बन्धों की क्रिया-अन्तःक्रिया-प्रतिक्रिया में निर्मित हुआ है।और निश्चय ही इसमें बदलाव आता है।ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के विस्तार के साथ,परस्पर सम्बन्धों के विस्तार के साथ बदलाव आता है और इस बदलाव का सीधा सम्बन्ध भाषा से है और भाषा साहित्य का अनिवार्य माध्यम है। चूंकि साहित्य में संस्कृति के इस  संपूर्ण क्रिया ब्यापार का  संवेदनात्मक  प्रतिबिम्ब प्रतिलक्षित होता है,इसलिये ‘मुक्तिबोध’ को कहना पड़ा कि ‘ साहित्य एक सांस्कृतिक क्रिया है ’।
      

रविवार, 12 दिसंबर 2010

चन्द्रकान्त वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि - महेश आलोक

                                                                      
         डा. चन्द्रकान्त वांदिवडेकर हिन्दी एवं मराठी साहित्य के समर्थ आलोचक के रूप में ख्यात हैं। साहित्य में प्रचलित तमाम खेमेबन्दी से अलग, वादों-प्रतिवादों से दूर चुपचाप साहित्य साधना में रत डा. वांदिवडेकर ने आलोचना के लिए अपने प्रतिमान खुद गढे़ हैं। रचना के प्रति तत्वग्राही दृष्टि, एक अनिवार्य रचनात्मक संवेदनशीलता, सर्जनात्मक कृति को केन्द्र में रखकर ‘पाठ केन्द्रित आलोचना’ के साथ ही ऐतिहासिक विवेक और ‘स्वतन्त्रता’ जैसे बडे़ मानवीय मूल्य के साथ खडे़ होने का दुर्लभ साहस, जातीय और प्रतिबद्ध लेखन के प्रति पूर्वग्रहरहित उदार दृष्टि, रचना के यथार्थ और उसके कलात्मक सौन्दर्य को रचनाकार की आस्था के साथ समझने की कोशिश, यथार्थ सम्प्रेषण की बुनियादी समस्याओं को संरचनात्मक तथा संवेदना की बनावट और बुनावट के स्तर पर पकड़ने की सार्थक पहल- यह सब डा. वांदिवडेकर की सजग आलोचना का अनिवार्य हिस्सा है।


                           चन्द्रकान्त वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि 
                                                                                                               - महेश आलोक
 
         असल में समकालीन हिन्दी और मराठी साहित्य में स्वचेतना, निर्वैयक्तिकता, स्वाधीन व्यक्तित्व के निर्माण, विकास और रक्षण के बीच जो द्वंद है और जो आधुनिक साहित्य का प्रमुख लक्षण भी है, उसे डा. वांदिवडेकर पूरे आलोचनात्मक विवेक के साथ पकड़ते हैं और एक नई उत्सुकता, स्वायत्तता और प्रासंगिकता के साथ मूल्यांकन के स्तर पर चरितार्थ कर देते हैं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ‘स्वायत्तता और प्रासंगिकता’, ‘स्वतंत्रता और प्रतिबद्धता’ के रिश्ते रचना की बनावट में कहीं ज्यादा जटिल होते हैं।
            डा. वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि किसी कृति की स्थूल प्रासंगिकता को नकारती है क्योंकि कृति की ताकत उसकी द्विविधात्मक प्रकृति में निहित होती है। रचनात्मक आलोचना इसीलिए निर्णय नहीं लेती, निर्णय लेने की प्रक्रिया में संघर्ष और साहस जैसे बडे़ जीवनमूल्य की ओर उन्मुख कर देती है। उनका आलोचक इसी समझ का इस्तेमाल करता हुआ रचना के भीतर बहुवस्तुस्पर्षी संवेदना और स्वभाव को अपनी आलोचना का प्रमुख हथियार या ‘टूल्स’ बना लेता है।  उनका स्पष्ट मानना है कि ‘‘समीक्षा का आधार यही नही होना चाहिए कि समीक्ष्य कृति से किस तात्कालिक प्रयोजनीयता की सिद्धि हो रही है, बल्कि यह होना चाहिए कि जीवन के जिस पक्ष को रचनाकार ने प्रस्तुत करना चाहा है, उसमें कहां तक सफल हुआ है। होमर और शेक्सपीयर की श्रेष्ठता के जो निकष हैं, टॅालस्टाय, बालज़ाक या गोर्की के लिए वे उपयुक्त न होंगे। इसी प्रकार आधुनिक साहित्य की समीक्षा सरणियों से बाल्मीकि, व्यास, कालीदास, भास या तुलसीदास का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसलिए साहित्य समीक्षा में ऐतिहासिक दृष्टि, आलोचनात्मक विवेक और मर्मस्पर्शी सहृदयता का सम्यक समन्वय होना आवश्यक है।’’
          डा. वांदिवडेकर की समीक्षा दृष्टि व्यापक, उदार और समावेशी है तथा आलोचना,  अस्मिता और अभिव्यक्ति की तलाश का सशक्त माध्यम। उनकी आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदनहीनता के विरूद्ध लगातार संघर्ष है। वे साहित्य में स्मृतिहीनता का निरंतर निषेध करते है। इसी निषेध से यह मूल्य-दृष्टि विकसित होती है कि बड़ा साहित्य देश और काल का अतिक्रमण करता हुआ हमारे अपने समय में भी उतना ही प्रासंगिक हो उठता है, जितना अपने रचनाकाल के समय था। इस अर्थ में डा. वांदिवडेकर की आलेाचनतात्मक दृष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय की आलोचना दृष्टियों का रासायनिक प्रतिफलन है।
इसी रासायनिक प्रतिफलन से वह मौलिक दृष्टि निःसृत होती है, जिसके आधार पर वे पूरे भारतीय साहित्य में अटूट जीवनधर्मिता, जीवनानुभूति की समग्रता, गहनता और व्यापकता को लक्षित कर पाते है, जो एक दूसरे स्तर पर भारतीय संस्कृति की अटूट पहचान भी है।
          और अन्त में डा. वांदिवडेकर की आलोचना की एक जरूरी और उल्लेखनीय विशेषता की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा, बल्कि इसे रेखांकित करना चाहूंगा अर्थात उसकी पठनीयता और प्रेषणीयता को, जो हमें अज्ञेय, रामविलास शर्मा, अशोक वाजपेयी, देवीशंकर अवस्थी की आलोचना का स्मरण करा जाती है। वह है उनकी सघन, प्रखर, आत्मीय, और धूमिल की तरह सूक्तिपरक नाटकीय भाषा, जहां पारिभाषिक शब्दावली और चमकदार वाक्यविन्यास के साथ सहजता का चमत्कारिक प्रभाव दुर्लभ संयोग की तरह उपस्थित है।

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शनिवार, 4 दिसंबर 2010

‘आमलेट पर गंगाजल छिडकने जैसे पाखण्ड से हिन्दी की दशा नहीं सुधर सकती’ - चन्द्रशेखर धर्माधिकारी

सांस्कृतिक एवं राजनैतिक जागरण के प्रतीक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी 
                                                                         -  महेश आलोक

      पद्मभूषण, प्रख्यात गांधीवादी चिंतक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में न्यायनिष्ठता, आचरणगत शुचिता तथा गांधीवादी मूल्यों की समकालीन प्रासंगिता एक साथ मौजूद है। हिन्दी भाषा के प्रति अटूट लगाव तथा भारतीय होने का गौरवबोध उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है। स्वतन्त्रता संग्राम की कठिन लड़ाई व संघर्ष में हिन्दी भाषा को जातीय हथियार के रूप में प्रयोग करके श्री धर्माधिकारी ने गांधी जी के स्वराज की कल्पना को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत सरकार ने श्री धर्माधिकारी का नाम प्रतिष्ठित स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की सूची में सम्मिलित कर आपके महती योगदान के दशांश को ही रेखांकित करने का प्रयास किया है। आपका कद इससे कहीं बडा है। आप सिर्फ राष्ट्रवादी नहीं है, आपके भीतर राष्ट्र की सजीव कल्पना निरंतर अपने प्रगतिशील रूप में साकार होती रही है।
      स्वतंत्र भारत में हिन्दी की गरिमा और सम्मान को अक्षुण्ण रखने, उसकी दशा और दिशा में निरंतर सुधार के लिए कृतसंकल्पित धर्माधिकारी अपने ही घर में अपनी भाषा अर्थात हिन्दी के सार्वजनिक अपमान से आहत हैं। उन्हें लगता है कि बिना सांस्कृतिक और राजनैतिक जागरण के हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित नहीं हो सकती। हिन्दी विश्व की विराट भाषा है। उसकी ऐतिहासिक गरिमा को याद करके खुश और गौरवान्वित हुआ जा सकता है लेकिन इस समय उसका वर्तमान ज्यादा सोचनीय है। अगर वर्तमान नहीं सुधरा तो भविष्य चैपट हो जाएगा। धर्माधिकारी मानते है कि सच्ची हिन्दी की सेवा हिन्दी के पाखण्ड से सम्भव नही है। हमें अपने विचार और संवेदना दोनों में हिन्दी को आत्यंतिक रूप से न सिर्फ शामिल करना होगा बल्कि चरित्र के स्तर पर जीना भी होगा।
     उनका एक चर्चित मुहावरा है कि ‘आमलेट पर गंगाजल छिडकने जैसे पाखण्ड से हिन्दी की दशा नहीं सुधर सकती’ । असल में हिन्दी भारतीय चरित्र की भाषा है, सोच और संवेदना की भाषा है, जातीय स्मृति की भाषा है। इन सबसे कटकर हम अपंग हो जाएंगे। धर्माधिकारी यह मानते है कि यदि हमारा हिन्दी चरित्र उज्जवल रहा, हम चरित्रवान रहे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने से कोई नहीं रोक सकता। वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन की नींव में ही हिन्दी है, इसलिए हिन्दी हमारी ‘मां’ है और यह याद दिलाना शायद गलत होगा कि हमें अपनी ‘मां’ का सम्मान करना चाहिए। हमारी नियति यह है कि हम अपनी स्वाभाविक स्थितियों, गतियों और मूल्य निष्ठाओं से पीछे हट रहे है, नहीं तो यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि हिन्दी हमारी ‘मां’ है और उसका हमें सम्मान करना चाहिए। धर्माधिकारी की पीड़ा उस समय ज्यादा मुखरित हो जाती है जब हिन्दी भाषी प्रदेश में ही वे हिन्दी का अपमान होते देखते है।

     धर्माधिकारी पर्यावरणविद भी हैं। वे ‘संस्कृति’ और ‘प्रकृति’ को एक साथ लेकर चलने के हिमायती हैं। दोंनों के बीच में उचित सामंजस्य बैठाते हुए उनका व्यक्तित्व लगभग इसी का एक विराट प्रतीक बन गया है। सामाजिक न्याय, स्वदेशी, जातीय भाषा हिन्दी, नारी सशक्तीकरण और वैश्विक मूल्यों को अपनी संदवेना में निरंतर जीवित रखे हुए धर्माधिकारी न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अजस्र प्रेरणा स्रोत हैं।
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो बात गांधी जी के संदर्भ में कही थी, उसी को थोड़ा बदलकर अगर हम यह कहें कि ‘‘आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगीं कि इस पृथ्वी पर चन्द्रशेखर धर्माधिकारी जैसा विलक्षण व्यक्तित्व भी चला था।’’ तो गलत नहीं होगा।


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शनिवार, 6 नवंबर 2010

हम खुश हैं कि ताकतवर आदमी खुश है

              दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी उतर गया हमारी धरती पर
                             (अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन पर)
                                                                                                     
                                                                                                              -महेश आलोक


दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी उतर गया हमारी धरती पर
और हम खुश हैं

वह हमें देखेगा। छुएगा। हम
सोना हो जाएंगे

धन है। बल है। छल है। कल है
हर समस्या का हल है उसके पास

उसके चलते ही हमारी सड़कें नयी हो जाएंगी
जैसे गांधी नए हो जाएंगे
उनकी समाधि नयी हो जाएगी
हमारे समुद्र हमारी नदियां हमारे पेड़
हमारी संसद नयी हो जाएगी

उसकी दबंगई से हमारे ईश्वर नए हो जाएंगे

 हम खुश हैं कि ताकतवर आदमी खुश है
 हम खुश हैं कि हम अपनी नागरिकता का शुल्क
 अदा कर रहे हैं

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सोमवार, 1 नवंबर 2010

भारतीय लोकतंत्र, नाटक और नाट्य-आलोचना-कुछ नोट्स


                        अभी हाल ही में ( 19,20 और  21 अक्तूबर )  इटावा के कर्मक्षेत्र महाविद्यालय में ‘भारतीय लोकतंत्र और हिन्दी साहित्य’ विषय पर एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन हुआ। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक पर भारतीय लोकतंत्र के प्रभाव-कुप्रभाव की खुलकर चर्चा हुई।डा०रमेशकुन्तल मेघ, डा०रविभूषण, डा०हेतु भारद्वाज, डा०वेदप्रकाश अमिताभ, डा०वीरेन्द्र यादव, डा०अजय तिवारी, डा०सूर्यप्रकाश दीक्षित, डा०चौथीराम यादव, डा०सत्यकाम, डा०अश्वनी पाराशर, डा०जितेन्द्र रघुवंशी, डा०महेश आलोक डा०रवि श्रीवास्तव,डा० पंकज चतुर्वेदी,डा०मंजुल उपाध्याय,संयोजिका डा०पुष्पलता श्रीवास्तव आदि ने विचारोत्तेजक बहसों के माध्यम से लोकतंत्र की मूल अवधारणा की ब्याख्या करते हुए साहित्य की मूल संवेदना पर उसके प्रभाव और रचना प्रक्रिया से गहरे स्तर पर जुड़ाव की चर्चा की।हालांकि कुछ सरलीकृत स्टेट्मेंट्स भी आए जैसे ‘भारतीय लोकतंत्र बीमार और भ्रष्ट हो गया है’।हमेशा से दुहराया जाने वाला वाक्य कि‘ भारतीय लोकतंत्र को जनसमस्याओं से कोई मतलब नहीं है।मूल्यों में गिरावट आई है।लोक चिन्ताएं खत्म हो गयी हैं आदि। लेकिन इसके साथ ही यह निष्कर्ष भी निकल कर सामने आया कि साहित्य ने ही मूल्यों को सुरक्षित रखा है और लोकतंत्र की मूल अवधारणा को बचाए रखने का, समाज को संस्कारित करने का, भ्रष्ट समाज चूंकि भ्रष्ट चिंतन पैदा करता है इसलिए  प्रगतिशील विचारों को अनुभव और संस्कारों में सत्य की पहचान के साथ रूपान्तरित करने का जटिल एवं सार्थक कार्य साहित्य के माध्यम से ही सम्भव है।बिना प्रतिरोध और असहमति के लोकतंत्र का विकास संभव नहीं है। बुद्धिजीवी चुप रहेंगे तो सत्ता बहरी और निरंकुश हो जायेगी। वास्तव में लोकतंत्र की रक्षा जीवन की रक्षा है और यह कार्य साहित्यकारों को पूरी जिम्मेदारी और इमानदारी के साथ करना होगा।
 प्रेमचन्द ने इसीलिए कहा था कि ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’।
सेमीनार में उपस्थित सभी साहित्यकार,महाविद्यालय के प्रबन्धक,प्राचार्य तथा अन्य शिक्षकगण


    मेरा आलेख(शोध- पत्र) नाटक के संदर्भ में था,जिसका शीर्षक था ‘ भारतीय लोकतंत्र, नाटक और नाट्य-आलोचना-कुछ नोट्स’। मैं वह पूरा आलेख यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
                                                                                                                     -महेश आलोक
             भारतीय लोकतंत्र, नाटक और नाट्य-आलोचना-कुछ नोट्स
                                                                                                               -महेश आलोक
      नाट्य-साहित्य ने लोकतंत्र के उस समाजवादी गणराज्य की कल्पना को जीवित रखा है, जिसमें ‘विचार की स्वतत्रंता हो और व्यक्ति की गरिमा का सुनिश्चय।’ भारतीय संविधान की स्थापना से बहुत पहले ‘भारतेन्दु’ से लेकर ‘प्रसाद’ तक के नाटकों में इस मूल्य-व्यवस्था को बखूबी चरितार्थ किया गया है। तो क्या साहित्य अपने आत्यंतिक चरित्र में ही लोकतंत्र की समाजवादी अवधारणा का सर्जनात्मक प्रवक्ता रहा है? इस प्रश्न को संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के बरक्स खड़ा करके सोचने की अनिवार्यता महसूस होने लगी है।
     जाहिर है साहित्य में या हमारे आलोच्य विषय नाट्य-साहित्य में लोकतंत्र, ‘विचारों और मूल्यों का ही लोकतंत्र’ हो सकता है। बरसों पहले जब महात्मा गाँधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ की बात की थी, तब उनके समकालीन विचारकों ने उसके समकक्ष और उसे एक सुदृढ़ दार्शनिक और बौद्धिक आधार देने की कोशिश- ‘विचारों का स्वराज्य’ के माध्यम से की थी। आचार्य शुक्ल ने तो इस अवधारणा के बहुत पहले ही ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ जैसी सार्थक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी। तात्पर्य यह है कि साहित्य भविष्य की राजनैतिक और सांस्कृतिक अवधारणा के बीज पहले ही बो देता है। तत्कालीन नाटककारों ‘प्रसाद’, ‘सुदर्शन’, ‘रामकुमार वर्मा’, ‘उदयशंकर भट्ट’ आदि के नाटकों या एकांकी नाटकों में मूल्य-व्यवस्था की सर्जनात्मक चरित्र-प्रस्तुतियों में इसे चरितार्थ होते देखा जा सकता है।
    स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटककारों के नामों की फेहरिश्त बहुत लम्बी है। यहां मैं उन्हीं नाटककारों का उल्लेख कर रहा हॅू, जिनके नाटकों के सफल मंचन ने लोकतांत्रिक विमर्श को रंग-परिदृश्य और रंग-शिल्प की सर्जनात्मक अंतःक्रिया और संवाद को नयी जमीन पर व्याख्यापित किया है- इसमें प्रमुख हैं- मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे), जगदीशचन्द्र माथुर (कोणार्क) , लक्ष्मीनारायण लाल (सूर्यमुख, अब्दुल्ला-दीवाना, यक्ष-प्रश्न, उत्तर-युद्ध), सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (बकरी), धर्मवीर भारती का गीतिनाट्य (अंधा-युग), भीष्म साहनी (हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी) काशीनाथ सिंह (धोआस), सुरेन्द्र वर्मा (द्रौपदी, कैदे-हयात, सूर्य की अंतिम किारण से सूर्य की पहली किरण तक, आठवां सर्ग), मणिमधुकर (रस-गंधर्व, खेला पोलमपुर का), मुद्राराक्षस (मरजीवा, तिलचट्टा), शंकर शेष (घरौंदा, पोस्टर), मृणाल पांडे (आदमी जो मछुआरा नहीं था) आदि। यह फेहरिश्त और लंबी हो़ सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि ये हिन्दी के प्रतिनिधि नाटककार हैं, जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक या समकालीन हिन्दी नाटक की जमीन को अपने विस्मयकारी सर्जनात्मक शिल्प और कथावस्तु के स्तर पर नयी सामाजिक-सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक चिंताओं से लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण और समृद्धिगत संवेदना से, ‘नए मनुष्य की पहचान से’ रूबरू किया है।
                                                                  (2)
     मैं कुछ नाटकों की अंतरवस्तु और उसकी रंग प्रस्तुतियों के माध्यम से इस विमर्श पर अपने आरंभिक विचार प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। मैंने अपनी स्थापना में लोकतंत्र के प्रमुख तत्व ‘विचार की स्वतंत्रता’ और ‘व्यक्ति की गरिमा का सुनिश्चय’- का नाट्य-साहित्य और नाट्य-आलोचना में चरितार्थ होने की बात की थी। ये दो बड़े लोकतांत्रिक मूल्य साहित्य में जिस बड़े सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्य की स्थापना करते हैं- वह है ‘स्वाधीनता की अवधारणा’। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी नाटकों में यह मूल्य बोध कई अन्य शाखाओं में ‘ट्रांसमिट’ होकर अलग-अलग चिंताओं के साथ विकसित हुआ है।
HABEEB-TANVEER
हबीब तनवीर
    मैं यहाँ एक समर्थ नाटककार, रंगकर्मी और बड़े निर्देशक हबीब तनवीर के नाटकों को बतौर उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हॅू। हबीब अपने नाटकों में इसी ‘स्वाधीनता’ और ‘स्वतत्रता’ को ‘लोक-कल्याण’ और ‘लोक-मंगल’ की भावना में तब्दील कर देते हैं। हम याद करें आचार्य शु क्ल को, जिन्होंने ‘लोक-मंगल’ को ह्रिन्दी आलोचना का मुख्य हथियार बना दिया। हबीब तनवीर उसी ‘लोक-मंगल’ के भाव  को अपने नाटकों की ताकत बना देते हैं। उनके नाटकों में समग्र जीवन का सत्य दिखलाई पड़ता है। ‘प्रेम’ और ‘संघर्ष’ जैसे जीवन-मूल्य, जो ‘स्वाधीनता’ और ‘स्वतंत्रता’ जैसे लोकतांत्रिक मूल्य की धुरी हैं, उसे उनके पात्र आधुनिक मनुष्य के तमाम अंतर्विरोधों और विसंगतियों के साथ जीते हैं और पाठकीय तथा दर्शकीय संवेदना के स्तर पर इन श्रेष्ठ मानव मूल्यों को स्थापित कर देते हैं।
    1954 में ‘‘आगरा बाजार’’ से लेकर 1958 में ‘‘मिट्टी की गाड़ी’’, 1975 में ‘चरनदास चोर’, 2002 में ‘जहरीली हवा’’ तथा 2008 के ‘विसर्जन’ तक, सभी नाटकों में लोक कल्याण की अनुगूंज सुनी जा सकती है। भारतीय लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता उसकी प्रश्नाकुलता है, जिसे उसने अपनी प्रगतिशील सांस्कृतिक परंपरा से ‘‘एडाप्ट’’ किया है। हबीब के नाटकों में यह ‘‘प्रश्नाकुलता’’ किसी न किसी रूप में मौजूद है। ‘‘बहादुर कलारिन’’ इसी प्रकार का नाटक है, जहां वैयक्तिक अनुभूति और सामाजिक मान्यताओं के बीच का द्वन्द पूरी सतर्कता से उभर कर आया है। एक ‘समझौताविहीन संघर्ष’ ‘बहादुर कलारिन’ में दिखायी देता है। असल में लोकनाट्य परंपरा और आधुनिक रंगमंच के ‘फ्यूजन’ से बना हबीब तनवीर का रंगमंच, रंग-शिल्प के क्षेत्र में चमत्कार बन कर सामने आया। ध्वन्यात्मक अर्थो में ‘लोक-तंत्र’ का ‘लोक’, सही मायने में उनके नाटकों का आधारतंत्र रहा है। वे ‘‘हिरमा की अमर कहानी’ में आदिवासियेां पर होने वाले अत्याचार को उठाते हैं। आदिवासी समाज की ‘कठिनाईयेां और उनके विकास’ के प्रश्न को पूरे तथ्यों के साथ सामने रखते हैं। स्वाधीनता और संघर्ष जैसे मूल्य को उनके भीतर इस तरह उतारते हैं कि वह समाज अपने हक के लिए खड़ा हो जाता है। तथाकथित सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधी चुनौती देता यह नाटक अद्भुत है।
आगरा बाजार के एक दॄश्य में हबीब तनवीर
आगरा बाजार के एक दॄश्य में हबीब तनवीर
     उनके सभी नाटकों में सामाजिक और लोकतांत्रिक दृष्टि का विस्तार साफ सुनायी पड़ता है। ‘‘जिन लाहौर नहीं देख्या’’ में एक हिन्दू और एक मुसलमान का जनाजा एक साथ उठा और इसी के साथ दंगे का दृश्य भी दिखाया गया। फिर ‘वेणी संहार’ नाटक, जिसमें समकालीन राजनैतिक परिवेश पर बेखौफ टिप्पणी करते हुए जटिल विसंगतियों को उद्घाटित किया गया। हर जगह मनुष्य को उसकी पूरी गरिमा के साथ, उसकी पूरी ‘‘टोटैलिटी’’ में देखने की समझ, लोकमंगल और लोक-कल्याण की प्रक्रिया में मनुष्य विरोधी ताकतों से सजग और सतर्क संघर्ष करते उनके पात्र अपनी आजादी, अपनी स्वाधीनता पहचानने की समझ पूरी संवेदनशीलता से विकसित करते हैं।
    हबीब तनवीर प्रयोगधर्मी हैं। उनका पहला नाटक ‘‘आगरा बाजार’’ जब 1953-54 में छत्तीसगढ़ के लोककलाकारों के साथ, इब्राहिम अलका जी के भव्य और आधुनिक रंग-शिल्प के समक्ष खड़ा हुआ, तो उसने रंग-शिल्प की परिभाषा ही बदल दी। आगरा के मशहूर शायर ‘नजीर अकबराबादी’ की 16 नज्मों के माध्यम से तत्कालीन समसामयिक, सामाजिक राजनैतिक आर्थिक वातावरण का ऐसा ‘‘डाक्यूमेंटेशन’’ हिन्दी रंगमंच ने देखा ही नहीं था। लोक तत्वों से भरपूर एक ऐसी लोक शैली का विकास हबीब तनवीर ने किया जो ‘मनुष्य’ को ‘मनुष्य बनाए रखने की जद्दोजहद’ में विकल्पों की संभावनाओं को खोलकर अपने जनतांत्रिक मूलाधार में सहज विवेक के साथ खड़ा है।
                                                                     (3)
    इस चर्चा के अन्तिम हिस्से में नाटक के ‘पात्र’, उसकी ‘ मौलिक स्वतंत्रता’ तथा ‘लेखकीय अधिनायकवाद’ के एकतंत्रात्मक, सृजन-प्रक्रिया पर कुछ आरंभिक शंकाएं प्रस्तुत कर रहा हॅू।
    ‘लेखकीय स्वतंत्रता’ के साथ-साथ ‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ का प्रश्न समकालीन नाट्य-आलोचना में बार-बार उठाया जाता रहा है।
    ‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ क्या है? वास्तविक जीवन में व्यक्ति को मौलिक स्वतंत्रता के जो संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, क्या वैसे ही अधिकार पात्रों को भी रचना में प्राप्त होते हैं? क्या रचना जगत में कोई निश्चित संविधान है?
    उपर्युक्त धरातल पर ‘पात्रों की स्थिति’, वास्तविक जीवन के पात्रों से अलग हो जाती है। उनकी यंत्रणा और यातना के नरक द्वार, मानवीय नरक द्वार से कहीं अधिक भीषण और भयंकर हैं।
    आज जबकि हम अवधारणात्मक स्तर पर वास्तविक जीवन में एक धर्म-निरपेक्ष संविधान में सुरक्षित है, एक ‘लोकतांत्रिक गणतंत्र’ के आकाश में संवैधानिक दृष्टि से उन्मुक्त सांस ले रहे हैं। हमारे नाटक के पात्र, जो सर्जनात्मक पात्र अधिक हैं, इस पूरी बोध-प्रक्रिया से अलग हैं, वंचित हैं। वे अपनी मौलिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्या पात्रों को भी वैसे ही मौलिक अधिकार प्राप्त करने के लिए अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद गढ़ना पड़ेगा? पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता की दिशा क्या है? लेखकीय मर्यादा, अनुशासन का प्रत्याख्यान?
    मेरा अपना मानना है कि अब बहुत हो चुका। न्यायोक्ति स्थिति की मांग यह है कि पात्रों को मानवीय व्यवहार दिया जाय, उन्हें मानवोचित गरिमा के साथ, कुछ दलगत लेखकीय अधिनायकत्व से बाहर निकालकर ऐसा चरित्र दिया जाय, जहां वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, अपने अधिकारों के लिए स्वयं संघर्ष कर सकें। आरोपित लेखकीय अधिकानायकवाद एक दूसरे स्तर पर पात्रों के निरंकुश आचरण की भी पैरवी करने लगता है। समकालीन नाट्य-आलोचना के उपकरणों को इस असहनीय स्थिति पर अंकुश लगाना ही होगा।  केवल अनाचार, भ्रष्टाचार, अविचार, कुंठा, असंगति, दमन, मनुष्य की दुर्बलताएं, उसका नैतिक पतन, नाना स्तरों पर अतंरविरोधों का चित्रण-अब इनकी कोई प्रतिक्रिया पाठकों पर नहीं होती। अब ये विषय और इनमें लिप्त पात्र लेखकीय अधिनायकवाद के शिकार हो गए हैं। पात्रों को उन्मुक्त जीवन जीने के पर्याप्त अवसर हमें देने ही होंगे, जिससे वे अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद रच सकें। रचनात्मक पात्र और वास्तविक जीवन के पात्र एक दूसरे से बोल-बतिया सकें
    लोकतांत्रिक विमर्श के संदर्भ में नाट्य-आलोचना से इतनी जरूरी और तुच्छ मांग क्या ज्यादा है? इसका निर्णय मैं आप पर छोड़ता हॅू।

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

उस दिन तक चाहिये आग

पूर्व प्रकाशित कविता
उस दिन तक चाहिये आग



लोहार के आँफर१ सी धधकती
तेरी छाती
अभी हो भी क्यों ठण्डी।
अभी, जबकि तुम्हारा
द्रोपदी की तरह होता हो चीरहरण सरे आम
और सीता की तरह
फिर गुजरना पड़ता हो अग्नि परीक्षा से।


तुझे तो अभी सजानी हैं
कुदाल ओर दराँती की
पूरी की पूरी जमात
और खोद, कूट, पीट, काट-छाँट कर
बसाना है एक नया संसार।

जहाँ भडुएं२ में खदबदाती दाल-सी
तेरी आत्मा फिर चाहती हो शान्ति।

तू रच बस सके पूरी तरह
उगा सके अपनी पसन्द के फूल-फल
बीन सके काँटे और खरपतवार।

वहाँ,
वहाँ तक है तेरी यात्रा
जहाँ तू पूरी तरह हो सकेगी
अपने आप में पूर्ण
तब,
तब तक तो बरकरार रखनी है यह आग


जो माँग सके हिसाब इन सब से
जो कहीं राम हैं, कहीं कृष्ण
कहीं कंस और कहीं रावण।



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१-आँफर ;भट्टी

२ भडुआ भड्डू ;एक बर्तन


प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया और स्त्री विमर्श

पूरी मानवजाति भूमंडलीकरण के दबावों तले एक जुट होने और बाजारों द्वारा अनुशासित, विस्थापित होने को आज बाध्य है। राज्यसत्ता के परिसीमन तथा भूमंडलीकृत बाजारों के सहृदय पैरोकारों द्वारा तर्क जरूर दिया जा रहा है कि इस नयी व्यवस्था में मानव जीवन में राज्य और राज्य के संस्थानों का अवांक्षित हस्तक्षेप हटेगा और उन्मुक्त होकर पूंजी जब अधिक तेजी से प्रवाहित होगी, तो वह हमें लालफीताशाही से मुक्त करेगी और इस प्रक्रिया में हर किसिम के विकास को बल मिलेगा। इससे क्या पुरूष, क्या स्त्री, सभी का जीवन बेहतर होगा। इस तरह भूमंडलीकरण शब्द का मुख्य वैचारिक कार्य सारी दुनिया में राजनीति और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ संस्कृति के परिदृश्य में भी हस्तक्षेप करना है।
    कुछ सीमित वर्गो को छोडकर यहाँ ही नहीं, दुनिया के हर देश में सबसे निचली श्रेणी की नागरिक स्त्री है। ज्यों-ज्यों उद्योग जगत में पढे लिखे हुनर का कब्जा और कम्पयूटरीकृत ज्ञान का संरक्षरण बढ़ा है,वे संगठित क्षेत्रों से बेदखल होती गयी हैं। उधर इस बात के भी ठोस प्रमाण हैं कि कृषि,तकनीकी प्रधान होती गयी है। बुनकरों तथा निर्माण कार्यों में भी,पारस्परिक क्षेत्रों में कहीं भी औरतों के लिए खास कामकाज नहीं बचा है। हुनरबंद बुनकरों या खेतिहरों के ओहदे से गिरकर आज वे चिंदी-चिथडे बीनने वाली, फेरीवालियां या भूमिहीन मजदूर बनकर रह गई हैं। उनकी आमदनी और स्वास्थ्य-स्तर दोनों घटे हैं और असुरक्षा बढ़ी है । बाजारवाद के इस दशक में औरतों के लिए यदि कोई कार्य क्षेत्र फैला है तो वह है देह व्यापार का, और यह अनायास ही नहीं है कि थाईलैण्ड से भारत तथा विकासशील देशों में स्त्री देह की मालदार पुरूषों द्वारा नितान्त अमानवीय और धृणित खरीद फरोख्त को अब उनके चंद स्वयंभू विदेशी पैरोकार स्वीकृत नारीवादी शब्दों के मुलम्में में लपेटकर कानून मान्य बनाने की चेष्टा कर रहे हैं।  कहा जाता है कि अपनी देह पर हक सिर्फ स्त्री का है। यदि वह खुद इसे बेचना चाहे तो सम्मानित कामगार की तरह खुलकर क्यों न बेचे? सम्मानजनक ढंग से रोजी-रोटी कमानेवाली स्वायŸा और सम्पन्न कामगार के रूप में मीडिया में भी उसे खूब बेचा जा रहा है और यही नहीं उसके लिए वैसी खास छूटों, रियायतों की भी पेशकश की जा रही है जैसी सामान्य मजदूरों को मिलती है।
     भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया में नारीवाद के झूठे  नारे उछालकर उनके पीछे स्त्री स्वत्व और सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ऐसा ही चतुर अस्वीकार हमें कई प्रजनन, स्वास्थ्य संबंधी योजनाओं , प्रयासों में भी देखने को मिल रहा है। भूमंडलीकरण की आड़ में यह खतरनाक खेल जारी है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में कोख को पहले निजी धन बनाकर प्रचारित किया जाय और फिर औरत को फुसलाकर पश्चिम में अस्वीकृत गर्भ निरोधकों के ताबड़तोड़ प्रयोग से बंध्या बना लिया जाय अर्थात स्पष्ट है कि हम स्त्रियों के हित और प्रगति को भौतिक आधार पर ही देखने का कार्य कर रहे हैं।
    स्त्रियों के मानसिक आधार, एक लम्बी जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ावों में बदलती हुई उनकी रिश्तेदारियों, उनकी निजी भावनाओं, प्रेम अनुभूति वात्सल्य, आशंका दुविधा- इन सबको लेकर हमारे योजनाकारों और काफी हद तक नारीवादी लाबी के सरकारी और राजनैतिक प्रवक्ताओं में किसी भी तरह की गहरी दिलचस्पी या आदर का अभाव दीखता है। स्त्रियाँ पूरे समाज को जितनी आत्यंतिकता से और जितने सारे स्तरों पर ऊष्मा और साहचर्य देती रही हैं, उन सबको क्या हम मात्र रोटी कपड़ा और मकान एवं जाति आधारित प्रतिनिधित्व से ही जोड़ कर समेट या व्याख्यायित कर सकते हैं?
    इस बिन्दु पर आकर नयी सदी में भारत में नारीवादी सोच और अभिव्यक्ति की वर्तमान स्थिति पर तटस्थ और निर्मम विचार करना जरूरी हो गया है। वस्तुतः अपने मूल में नारीवाद एक विचारधारा से कहीं आगे जाकर एक स्त्री द्वारा अपने और दुनिया के बारे में अलग तरह से सोचने का ऐसा तरीका है, जो स्त्री तथा पुरूष दोनों के लिए मात्र पुरूषों की बनाई परम्परा के समानान्तर नया सोचने और समझने की नई-नई राहें खोलता है। बिडंबना ही है कि सदी के अन्त तक आते-आते (कुछ स्त्रियों की ना- समझी और कुछ राजनेताओं और संदिग्ध समाजसेवियों की समझदारी के कारण) नारीवादी विमर्श प्रायः हर जगह वाद-विवाद, पक्ष-विपक्ष, मेरा-तेरा और ममत्वहीन दुर्धर्ष भाषा का इस्तेमाल करता दीखने लगा है, यह गहरी बीमारी का लक्षण है।

    इस सदी में औरतों के हक में एक ही बात जाती है कि विश्व के किसी एक सरकार अथवा राजनैतिक विचारधारा के पास युगांतकारी दबाव लाने का माद्दा नहीं बचा है। आज सियेटल में अमरीका के अपने ही नागरिक सड़क पर उतरकर राज समाज को, अत्यांतिक पूॅंजीवादी अवधारणाओं को सरेआम पलीता लगा रहे हैं और यूरोप के किसान भी बहुराष्ट्रीय कम्पनी कारगिल द्वारा परखनली में गढे़ हुए खतरनाक टर्मिनेटर बाजों को समुन्दर में फेंक चुके हैं। नारी न तो राजनीति की चेरी है न ही उसकी दुश्मन! उसकी चिन्ता के मूल में वे जीवनमूल्य है जो स्त्रियों समेत पूरी मानव जाति के हित में है, जो स्त्रियों और उनके समर्थक सभी गुटों को न सिर्फ राज समाज की ज्यादती से बल्कि कई बार खुद अपने ही अतिवादी स्वरूपों से भी बचा सकते हैं। हम उम्मीद करेंगे कि आने वाले समय में नारीवाद नकली नाटकीय जुझारूपन के तेवर त्यागकर एक उदार संवेदनशील और संतुलित बुद्धि से अपने चारो ओर उस परिवेश का जायजा लेगा, जो आज ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की छाती-फाड़ अमानवीय और जीवन विरोधी स्पर्श में पगलाया हुआ है। इसके लिए जरूरी होगा कि नारीवाद सिर्फ राजनीति ही नहीं, अर्थ जगत, तकनीकी विज्ञान और मीडिया सभी के प्रतिनिधयों से जुड़े अपने लिए कुछ झूठे पूर्वग्रहों को साहस पूर्वक त्यागे और पूरी मानवजाति के पक्ष में खड़े होने और विहंगम पड़ताल करने का ठोस आधार बनाये।
    आज भी स्थिति बहुत बदली नहीं हैं। पढ़ी लिखी तेजस्वी स्त्रियां बहुधा आजीवन अकेली रह जाती है। लोग उनसे खार खाते हैं और उनके साथ कटखनी कटुता का जो मिथ जोड़ दिया जाता है, वह डायनपने के आरोप से बहुत भिन्न तो नहीं है। आज यह बात चर्चा में है कि बहुत जल्द विज्ञान पुरूषों को उस प्रविधि से भूषित कर देगा, जिससे वे अपना एक्स फैक्टर जब्तकर सिर्फ वाई-फैक्टर स्त्रियों के गर्भ में भेज सके। न आये एक्स फैक्टर न पैंदा होंगी लड़कियॉ। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मगर सोचिये! बाँसुरी का बजना क्या इतना बुरा है? जरूरी है कि हर बांस का फट्टा ही बन जाए?
    हमारी त्रासदी है कि हम आज तक अतिरेकों में जी रहे हैं, लेकिन हमारा जो आने वाला कल है वह, विशेषकर स्त्रियों के सन्दर्भ में, सारे प्रचलित मिथक ऐसे तोड़ेगा, जैसे कभी निराला की नायिका ने पत्थर तोड़े थे।
    स्त्रियों सेे सम्बद्ध बहुत सारे मिथक तो पहले ही टूट चुके हैं, पर जो होने वाला है वह बहुत ही रोचक है। परिवार तेजी से टूट रहे हैं। आधुनिकता के पहले दौर में संयुक्त परिवार टूटे, टूटने ही थे। आज न्ूयक्लियर परिवार के इलेक्ट्रान, प्रोटान, न्यूट्रान (पति-पत्नी और बच्चे) भी अक्सर तीन दिशाओं में छिटक गये से दीखते हैं। जो अपने आप में बहुत बड़ा विस्फोट है।
    हो सकता है कि वह स्थिति बहुत दिन न चले और मातृत्व के मिथ पर शहीद होना स्त्रियाँ भी छोड दें, तो क्या पुरूष सारा दायित्व उठा लेंगे? नौकरी, गृहस्थी, बाल-बच्चे? फीमेल इन्फेन्टीसाइड (बालिका बध) जिस तरह बढ़ रहा है उससे स्पष्ट है कि कई पुरूषों के बीच एक पत्नी हुआ करेगी और सब मिलकर एक कम्यून बना लें कि यह काम तुम्हारा है, यह मेरा है। ये भी हो सकता है कि किराये के गर्भ से बच्चे खरीदकर मर्द, स्त्रियों के बिना ही जीने की सोचें। अमरीका के तीन-चार टेलीविजन सीरियलों ने इधर स्त्रीविहीन घरों का महातम्य खूब बखना है और वे लोकप्रिय भी खूब हुए हैं। ‘माई थ्री संस‘, ‘द राइफल मैन’ और ‘बेचलर फादर! ऐसा भी हो जाना असम्भव नहीं है कि रक्त सम्बन्ध परिवार को बाँधने वाला तत्व न रह जाय और दोस्तों की तरह कुछ रिश्तेदार भी साथ रहने के लिए चुन लिये जायें। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में स्त्री और समाज की इस नयी मूल्य संरचना की आहट मिलने लगी है।
    पहले की स्त्रियाँ अपने सम्बन्धों का निर्वाह करती थीं, तो आर्थिक परतंत्राजन्य विवशता के कारण। आज की स्त्री को आर्थिक स्वतंत्रता है। पढ़ी-लिखी होने के कारण आत्मिक-बौद्धिक और नैतिक परिष्कार भी उनमें आया है। आज की ज्यादातर स्त्रियां परिवार संजोकर रखना चाहती हैं क्यों? साहचर्य जन्य स्नेह के कारण ही तो, और इस आरोपित चिन्ता के भार से भी किंचित-बच्चे उनके बिना गिर पड़ जायेंगे।
    अमेरिकन सिविल राइट्स की एक कार्यकर्ता के अनुसार ‘‘किसी हालीवुड सिनेमा के अन्त में, की तरह विवाह गोरी चमड़ी वाले प्रतिष्ठित समाज में जीवन की सम्भावनाओं का भी दण्ड होता है...........। अपने पूरे जीवन का वादा एक बार में कर देने की हिम्मत मुझ में नहीं। इस साल हो सकता है, मैं विवाहित रहना चाहॅू, पर अगले साल? ऐसा नहीं है कि विवाह नामक संस्था में मैं अनास्था व्यक्त कर रही हॅू बल्कि यह दृष्टिकोण मेरे प्रति सम्मान का प्रतिरूप है और सिविल राइट्स मूवमेंट की सीख का कि चीजों और पदों को अस्थाई समझो और उनमें तब तक जुड़ों तब तक तुम्हें लगे कि तुम इन्हें अपने व्यक्तित्व का सर्वोत्तम दे रहे हो।’’
    आधुनिक समय की बदकिस्मती देखें कि आज उसे अपनी लड़ाई खुली सड़क पर लड़नी पड़ रही है। इब्सन की नोरा की तरह न उसका कोई ‘‘गुडिया घर’’ है जिसका दरवाजा वह किसी के मुॅह पर बन्द कर सके।
    भारतीय समाज में पिछले लगभग तीन दशकों से इसी स्त्री का रूदन और हाहाकार गॅूज रहा है जिसके मन में स्वाधीनता की चाहत है पर हिम्मत नहीं, जिसकी अस्मिता जगी है पर पितृसत्ता की बेड़ियों में जकड़ी हुई है, जिसे मीठा-मीठा गप्प और कडुवा-कडुवा थू का लोभ है। वह स्वाधीनता जैसे बड़े मूल्य को अपनाना चाहती हैं।
    एक तर्क यह भी है कि स्वाधीनता का चुनाव अन्ततः अकेलेपन का चुनाव है और लम्बे अकेलेपन की परिणति इस अहसास में होती है कि सृजनात्मक सक्रियता जैसे एकाध अपवादों को छोड़कर कैरियर की सफलता जीवन में सार्थकता का स्त्रोत नहीं हो सकती, मातृत्व स्त्री को प्राकृतिक रूप से उपलब्ध सार्थकता का एक सहज अवसर है पर स्वाधीन स्त्री के लिए वह न सिर्फ कैरियर में बाधक है बल्कि अनावश्यक सिर दर्द एवं पराधीनता की कुंजी भी है। सामुदायिक, सामाजिक जीवन का वही पुराना पैटर्न सामने आता है कि एक शासक दूसरा शासित-एक शिकार दूसरा शिकारी यानी सार्थक मानवीय सम्बन्धों से स्वाधीनता का अहसास बाधित होता है तो एकान्त में सार्थकता का अहसास नष्ट हो जाता है। स्वाधीनता का कुछ अहसास ले-देकर बिना रोक-टोक के उठ बैठ सकना, बिना किसी की आज्ञा, अनुमति की मजबूरी के आ-जा पाना, खर्चा-वर्चा कर लेना ही है। अगर अभीष्ट न मिले तो दबाव, घुटन और मजबूरी को जिन्दा रहने के अहसास के पर्याय में तब्दील कर देता है। यानी मजबूरियों और दबाबों की सापेक्षता में तो स्वाधीनता अपने आप में सार्थक मूल्य है पर उनके अभाव में जीवन को किसी दूसरे बडे़ प्रयोजन की जरूरत पड़ती है। लेकिन बड़े से बड़ा प्रयोजन भी सम्बन्धों का, परिवार का शत-प्रतिशत विकल्प नहीं बन सकता है। तो क्या वही समझदार थी जिसे शुरू में सामान्य या मूर्ख समझा गया। रूदन और हाहाकार में अपना विरेचन करती, सम्बन्धों की सुरक्षा का कवच पहिने, अस्मिता और स्वाभिमान जैसे झंझटों में न पड़ती, वह सचमुच कोई अनामतोष स्वयं को दे पा रही है? यह समझदारी है या केवल कायरता का महिमा खण्डन? स्वाधीन के अतिरिक्त भी कोई सार्थक हो सकता है क्या? कौन जाने कहना मुश्किल है? इतना तो है ही, काफी भले न हो, स्त्री पराधीनता का चुनाव करने को भी स्वाधीन है। स्वेच्छा से चुनी पराधीनता क्योंकि बीसवीं सदी के अन्त तक औरत जितनी बदल चुकी है उतना शेष समाज नहीं। अब अपने रहने लायक जगह उसे कहाँ मिले?
    समाज यूँ नहीं बदला करता-वचनों-प्रवचनों, विवादों और विचार- धाराओं से उसको बदलने के लिये महामारी, अकाल, भूकम्प, बाढ़ जैसी कोई प्राकृतिक आपदा चाहिये या फिर युद्ध जैसी मानव रचित दुर्धटना क्योंकि ऐसे ही समय में मनुष्य की चेतना सामुदायिक रूप से इतना तत्पर, सतर्क और सानन्द होती है कि विचारों को शब्दों के धेरे में से निकाल कर कर्म में परिवर्तित कर दें? आयोजित और प्रयोजित भविष्य के दुस्साहस में दैवी अनुकम्पा जैसे अप्रत्याशितों की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती, तो फिर और चारा ही क्या है सिवा इसके कि यह जो उपलब्ध कच्चा माल हे - यही पुरूष , इसी को ठोंक- पीटकर स्त्री अपना मनचाहा साथी गढ़ ले, वरना संबन्धों का जो आदर्श स्वप्न उसके मन में है- समकक्षों का परस्पर स्वाधीन - सहभाव वह अपनी आकर्षक, उत्तेजक, विरोधाभासी चुनौतियों समेत एक कोमल कल्पना की तरह अनजिया ही रह जायेगा।
    भारतीय स्त्री के  परिपेक्ष्य में 20 वीं सदी के आखिरी पाँच दशक एक महत्वपूर्ण अर्द्धाली बनाते हैं। इसी अर्द्धाली के पहले चार दशकों के दौरान स्त्रियों को मतदाता की प्रतिष्ठा मिली जब कि इससे पूर्व इन्हें मत देने का भी अधिकार नहीं था। मतदाता की प्रतिष्ठा मिलने के बाद उनके मन में राष्ट्र के भाग्य निर्माण की सहभागिता के स्वप्न उभर आये और हर्षातिरेक के अनेक क्षण भी पैदा हुये, जब उनकी प्रतिनिधियों ने दुर्गम लक्ष्य हासिल किये, पुराने रिकार्ड और भ्रान्तियों को तोड़ा और समाज के सोच को सायास नई दिशा में मुड़ने को मजबूर कर किया। उधर तकनीकी और विज्ञान के निरन्तर विकास ने आयुष्य दर बढ़ाई, बाल मृत्यु दर घटाई, साक्षर स्त्रियों की संख्या में भारी बढोत्तरी भी पैदा की, लेकिन सामान्य स्त्री का जीवन मात्र ताजा कागजी आंकड़ों की मार्फत उतार चढ़ाव भरा ही नहीं रहा, ठोस ऐतिहासिक और सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं के लम्बे साये भी उस पर पड़ते रहते हैं। लिहाजा स्त्रियों को कई किस्म के भय, पराधीन और अंधविश्वासी मूल्य से 90 के दशक तक आते-आते मुक्ति तो मिल चुकी थी किन्तु पूर्णतः नहीं।
    औरतों को दो पीढ़ियों की जद्दोजहद् से ताजा पीढी को स्वतंत्रचेता बनने की क्षमता तथा पारिवारिक जकड़बन्दी से जहाँ एक हद तक मुक्ति मिली है, वहीं कई एक क्षेत्रों में औरतें एक विस्मयकारी ढ़ंग से ‘स्वेच्छया मेरी मरजी’ कहते हुए पुनः एक नई प्रतिभागिता तथा विचारधाराओं के स्वतंत्र युग में प्रवेश कर रही है।
    वस्तुतः भूमंडलीकरण ने स्त्रियों को घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर रोजगार के नए अवसर प्रदान किए हैं, जिससे उनमें आत्म विश्वास एवं स्वतंत्रता जैसे बड़े जीवन मूल्य को पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर आत्मसान करने में मदद मिली है।
    निश्चय ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है। पारिवारिक मूल्येां के दायरे से बाहर निकलकर वे इसका विस्तार वैश्विक स्तर पर करना चाहती हैं। नयी मूल्य दृष्टि से पारिवारिक मूल्येां का सन्तुलन सामंजस्य बैठाना, उनके लिए चुनौती भरा है। वे प्रेम और संघर्ष जैसे मूल्य को एक साथ जी रही हैं। यह उनकी नयी पहचान है, इसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा।
                    

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

राहत कमेटी में ट्रान्सफर करा दे बाबा

राहत कमेटी में ट्रान्सफर करा दे बाबा

नवीन चन्द्र लोहनी

जब से पहाड़ पर वर्षा और बाढ़ आई है मेरे एक मित्र की पत्नी को अचानक अपने आप पर कोप हो आया। उनको पहाड़ से उतरे बहुत दिन नहीं हुए। यह दुर्घटना भी इसी साल घटनी थी और मित्र को भी इसी वर्ष स्थानान्तरण करवाना था। लाहौल विला कूव्वत। विगत् गर्मियों में अनेक शहरों को डुबा देने वाली बाढ़ के कारण उनका मन पहाड़ से मैदान की ओर हुआ था। ये कल्याण अधिकारी तब जनकल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर पहाड़ से मैदान उतर आये थे, पर इस ऊपर वाले से उनको हमेशा नाराजगी रही, वे जहाँ भी ‘कल्याण‘ करने गये वहॉं न कोई बाढ़ आती है, न सूखा पड़ता है और न भूकम्प आते हैं न दंगे, न झगड़े, आखिर क्या करेंगे वे ऐसे पद को हथिया कर जो कोई जुगाड़ ही न बैठा सके।
विगत् दिनों बाढ़ का प्रकरण जोरों पर चला उन्होंने अपने पढ़ने-लिखने के दिनों के साथी विधायक की ससुराल के दहेज में आये पैसे से मदद की और बाढ़ का दौर शुरू होते ही ट्रान्सफर करवा लिया, परन्तु रिलिविंग और ज्वाइनिंग का चक्कर जब खत्म होता तब तक बाढ़ उतर चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। कल्याण अधिकारी के पास फिर मेज पर ऊँघने के सिवा कोई काम न था। बड़ी मुश्किल से पत्नी को मनाया कि इस बार नहीं तो अगली बार सही, बाढ़, सूखा, दंगा कुछ न कुछ होगा, फिर कल्याण कार्य करेंगे, फिर तो विधायक और मन्त्री को दी गयी ‘सहयोग राशि‘ वसूल लेंगे और कुछ प्लाट, मकान, गाड़ी के लिए भी सोचेंगे। पर उसकी परेशानी का कारण बर्षा की यह मार इतनी जल्दी आने की कोई भनक उसे होती तो वह ईश्वर कसम पहाड़ से कतई-कतई न उतरता। पहाड़ में वर्षा क्या आई, भूकम्प उसके घर में आ गया। पत्नी कोप भवन में चली गयी। अब कहाँ वह विधायक उनके हाथ आता कि वरदान मांगती राम की तरह उसे वनवास दिया जाए जिसने तब उतनी देर स्थानान्तरण करवाने में लगा दी और अब है कि सुध नहीं ले रहा। अरे! किसी कमेटी-वमेटी में राहत-वाहत का काम दे दिला देता। कुछ उसे भी मिलता। वे उसके अनन्य मित्र थे, उस अनन्यता का कारण भी वे खुद थे जब भी ऐसी विपदाए आती मौके-बेमौके उसकी सेवाओं का लाभ लेते रहते।
वे आए। अपनी पीड़ा, जनसेवा का दर्द, अपनी ललक सब उन्होंने बताई। भाई वे तो फिर कोप भवन में हैं, मैंने लाख कहा अरे क्या हुआ कभी तो यहाँ भी ऐसा कुछ होगा। घूरे के भी दिन फिरते हैं पर वह है कि मानती नहीं, कहती है कि स्वास्थ्य खराब होने के आधार पर ही सही तुरन्त पहाड़ पर स्थानान्तरण कराओं“ मैंने कहा ‘मित्र पिछली बार भी तो सम्भवतः ऐसा ही कुछ आपने किया था’ बोले उस बार माताजी के खराब स्वास्थ्य को लेकर मैंने यहाँ स्थानान्तरण करवाया था इस बार ‘वो’ कहती हैं कि स्वास्थ्य मेरा ही खराब बता दो पर किसी तरह पहाड़ पर स्थानान्तरण करवा लो। मैं क्या करूँ? आज तीन दिन से वे अन्न-जल बिना बैठी है मुझे तो लगता है कि कहीं कुछ बुरा न कर बैठे।“
मैं मित्र की कातरता समझ गया ”बोलो क्या करें, चलो मैं चलता हूँ, भाभी को कुछ तो बताए कि इतनी जल्दी स्थानान्तरण नहीं हो सकता। हाँ वे घूमना ही चाहें तो उन्हें तुम पहाड़ पर घुमा ले आओ।“ उसने सिर पकड़ लिया बोला ”अगर वे ऐसे ही घूमना चाहती तो फिर मना क्या थी। वो तो मेरे घर वालों ने ही शादी के समय कह दी थी, जिसके बल पर दो लाख रुपये नकद दहेज लिया था वह मुझे डुबा रहा है मैं अगर समझता तो................।“
मैं उनके घर पहुँचा। वे पस्त हाल लेटी थी। मित्र की ओर देखकर गुस्से से उन्होंने आँखें उचकाईं। बोली ‘भाईसाहब, मेरा तो पल्ला ही ऐसे आदमी से पड़ा। क्या करूँ।’ मैंने सान्त्वना देते हुए कहा ‘परेशानी क्या हो गयी भाभी, ये तो मुँह लटकाए मेरे घर आया, मैं तो किसी अनिष्ट की आशंका से डरा हूँ। बताओ क्या बात हो गयी।“ वे बोली ”आपको पता नहीं है क्या, ये तो मेरी चुगली कर ही आए होंगे। देखो मैं तो कहती हूँ कि अरे जहाँ कोई काम नहीं वहाँ रहकर क्या करोगे। पिछले साल जब बाढ़ आई तो मैंने इनसे रिक्वेस्ट की कि मैदान में ट्रान्सफर कराओ, इनको जब बात समझ में आई तब तक बाढ़ जा भी चुकी थी। राहत बंट चुकी थी। ये क्या करते यहाँ आकर खाक। तब मैंने कहा छोड़ो ट्रान्सफर रुका लो, अब क्या यहाँ सड़ी गर्मी में मरने आए पर ये मेरी मानते कब हैं और अब भी इन्हें होश तब आयेगा जब वर्षा की राहत और पुनर्वास का काम पूरा हो जायेगा तब से वहाँ जायेंगे। इनकी अक्ल तो मेरी समझ से पथरा गयी है।’ मैंने कहा ‘तो कोई बात नहीं अगर आपको जनसेवा का इतना शौक है तो चलते हैं, कुछ मेडिकल से लोगों की ले लेते हैं कुछ और साथी चलेंगे, थोड़ी सेवा ही हो जाये जीवन सार्थक हो जाये।“
वे मुझ पर भी बिफर गयी, ‘मैं सोच तो रही हूँ, इनको क्या हो गया है, इनके तो आप जैसे ही सलाहकार होंगे। तभी। तभी तो ये आजकल ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। अरे इस शहर में कितनी संस्थाए हैं जो गरीबों, बेसहारों, परेशान लोगों के साथ होने का दावा करती है। उत्तराखण्ड के कल्याण, सेवा के नाम पर इसी शहर में कितनी संस्थाऐं हैं कितने लोग गये वहाँ, ”हाँ अखबारों में जरूर यहीं बैठकर सरकार को कोस रहे हैं कि राहत ठीक नहीं चल रही कि उनको दुख है कि वे सबसे मदद की अपील करते हैं। अरे इस देश में कौन जन
सेवा के लिए इतना रोने लगा, किसी को अखबार से प्रचार चाहिए, किसी को वोट चाहिए, किसी को इसी बहाने पुरस्कार मिल जायेंगे, कोई पहाड़ पुत्र घोषित हो जायेगा और कोई सबसे बड़ा देश सेवक, गरीबों, असहायों का मसीहा। फिर वह चुनाव लड़ेगा, वोट मांगेगा, या फिर किसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था से जुड़कर पुरस्कार लेगा या देगा दिलाएगा, कोई अपनी राहत समिति के बहाने घर, गाड़ी बना लेगा, कुछ ऐसे आप जैसे लोग भी होंगे जो अपना समय, पैसा बरबाद कर घर आयेंगे और बीबी से लड़ेंगे कि घी इतना खर्च कर दिया कि बच्ची की फ्राक अगले माह ले लेंगे, कि क्लब जाना बन्द करो या फिर इसी माह से कटौती शुरू। मैं लानत भेजती हूँ ऐसे आप जैसे लोगों पर।“
वह चादर तानकर फिर लेट गयी हैं। मेरे सिर पर अक्टूबरी प्रातःकालीन ठंड में भी पसीने की बूँदें उतर आयी हैं। मित्र भी सिर पकड़े पूर्ववत् बैठा है। मैं अकेला उसके ट्रान्सफर चिन्तन की नहीं इन सबकी चिन्ता में पड़ा वापस घर लौट जाना चाहता हूँ क्योंकि यह सच जब वे फिर बोलेंगी तो मैं चीखने लगूँगा, नोचने लगूँगा खुद को भी। आप सब कुछ के बाद भी उसके दर्द को समझें, हो सके तो उसका स्थानान्तरण फिर पहाड़ पर करवा दें, उसका भी भला हो जाए। जब डूबती गंगा में दो हाथ मारने का ही सवाल है और ज्यादातर कल्याणकर्मी यही कर रहे हैं तो मेरे इस मित्र ने ही क्या बिगाड़ा है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

किसी दिन पत्थरों की सभा होगी

अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है।अदालत का फैसला आना अभी बाकी है।और देश एक बार फिर अतिवादियों के हाथ में जाने को तैयार है।हालांकि जनता अब समझदार हो गयी है,ऎसा हम मानते हैं। लेकिन फासिस्ट ताकतें अब भी उसे तोड़ने पर आमादा हैं।ख़तरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है।इस कठिन समय में  मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है-‘किसी दिन पत्थरों की सभा होगी’।यह कविता मेरे पहले संग्रह ‘चलो कुछ खेल जैसा खेलें’ में संग्रहीत है।मुझे लगता है, इस कविता की प्रासंगिकता एक बार फिर बढ़ गयी है। पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
                                                                                                                         - महेश आलोक   

                   

                                               किसी दिन पत्थरों की सभा होगी

किसी दिन पत्थरों की सभा होगी
और वे किसी भी पूजा घर में बैठने से
इन्कार कर देंगे

वे उठेंगे और प्राण प्रतिष्ठा के तमाम मंत्र भाग जाएंगे कंदराओं में
वह पूरा दृश्य देखने लायक होगा जब मंत्रों के चीखने-चिल्लाने याकि
मित्र-मंत्रों के घातक प्रयोगों की धमकी का असर
उन पर नहीं होगा

वे अपनी सरकार से मांग करेंगे कि उस दिन को
राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाय

वे दुनिया भर की मूर्तियों को पत्र लिखेंगे कि
अगर सुरक्षित रहना है तो लौट जाएं कलाकारों के
आदिम मन में

और वह हमारे लिए कितना शर्मनाक दिन होगा जब
मलबे से तमाम पत्थर जुलूस की तरह निकलेंगे
और बरस पड़ेंगे ईश्वर पर
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बुधवार, 22 सितंबर 2010

हिन्दी भाषा और राष्ट्रीयता : किरण बजाज

स्वतन्त्रता से २७ वर्ष पूर्व हमारे देश में जो राष्ट्रीयता की भावना थी जिसमें गांधी जी, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, दादाभाई नौरोजी, आदि बहुत से देशभक्तों ने अपनी आहुति दी और जन-जन में देश प्रेम कि अलख जगाई. वह राष्ट्रीयता की भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद (१९६५) श्री लाल बहादुर शास्त्री तक रही. उसके बाद राष्ट्र में बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गईं और राष्ट्रीयता का जोश धीरे-धीरे कम होता चला गया.

सोचना यह है कि राष्ट्रीयता क्या है? यह किसी एक बात पर निर्भर नहीं करती है. राष्ट्रीयता का मतलब है राष्ट्र के प्रति अद्भुत प्रेम, समर्पण की भावना, राष्ट्र की प्रत्येक वस्तु, नागरिक, प्रकृति और धरोहर से प्रेम एवं सबसे ज्यादा राष्ट्र की भाषा और संस्कृति के प्रति निष्ठा क्योंकि भाषा और संस्कृति आपस में जुडे. हैं.

राष्ट्र भाषा हिन्दी के लिये बहुत से स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार, पत्रकार और लेखकों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. परन्तु स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी का प्रयोग संसद जगत से लेकर मनोरंजन, व्यापार और शिक्षा जगत तक बहुत कम हो गया है. छोटे बच्चों को लोरी, हिन्दी की कविता और गीत सुनाये जाते थे. जिसका स्थान अंग्रेजी की ’ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार’ ने ले लिया है. गम्भीर चिंता का विषय यह है कि अंग्रेजी के प्रयोग के साथ-साथ हमारी भावना में हिन्दी के प्रति हीनता व उदासीनता की दीमक लग गई है. "२ फ़रवरी १८३५ में लार्ड मैकाले ने भारत भ्रमण करने के बाद इंग्लैंड की संसद में भाषण देते हुए कहा कि भारत की रीढ़ की हड्डी बडी मजबूत है. अगर हमें भारत पर विजय पानी है तो सबसे पहले उसे तोड़ना होगा और हमारी संस्कृति के प्रति लुभाना होगा जो कि बहुत आसान है." रीढ़ की हड्डी से उनका अभिप्राय हमारी भाषा और संस्कृति से था.

अगर हम यह बात समझ रहे हैं कि हमारी भाषा और संस्कृति पर बहुत चालाकी से चोटें हो रही हैं तो यह जरुरी है कि बहुत जोरदार तरीके से हर स्तर पर समीक्षा की जाये और वह बाधायें जो हमारे सामने आकर हमें गिराने का भरसक प्रयास कर रही हैं उसका डटकर सामना किया जाये. मजेदार बात यह है कि राजभाषा हिन्दी के साथ इतने अन्याय होने के बावजूद वह जिस तरह आगे बढ़ रही है अगर उसे वैज्ञानिक ढंग से समझ कर उसका प्रसार किया जाये और उन्नत किया जाये तो केवल भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन जायेगी.

आज सूचना-तकनीकी और इलेक्ट्रानिक व प्रिन्ट मीडिया में क्रान्ति ला दी है और उन्होंने चाहे अपने फ़ायदे के लिये ही शुरुआत की हो किन्तु उसमें अनायास ही हिन्दी का बहुत बडा फ़ायदा अपने आप हो गया है. दूसरा मनोरंजन जगत ने हिन्दी को बहुत प्रसार व बल दिया है. हमेशा अमेरिका में रहने वाला भारतीय भी अपनी प्रेमिका को कोई हिन्दी गज़ल बोलना नहीं भूलता. विदेशी कम्पनियों ने अपने फ़ायदे के लिये अपनी सूचना विवरणिका को हिन्दी में भी मुद्रित कराया है. यह अलग बात है कि हम इस बात को पहचाने नहीं. इस तरह हिन्दी पढ़ने, लिखने व बोलने वाले के लिये भी नौकरी के अवसर पैदा हो गये हैं.

सरकार, शिक्षण संस्थायें और बुद्धिजीवी सब मिलकर कम से कम हिन्दी प्रान्तों में पूरी समझदारी से और पारदर्शिता के साथ योजना बनायें और हिन्दी प्रान्तों में सभी विषयों को अच्छी तरह हिन्दी में सिखायें. हिन्दी प्रान्तों मे जब हिन्दी सशक्त होगी तभी तो वह राष्ट्रभाषा बन सकेगी. इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं सीखनी है. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है. उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता, इस कारण अंग्रेजी को भी द्वितीय भाषा के रूप में अच्छी तरह से सीखें. जिससे कि व्यवसाय आदि में उसका भावी पीढ़ी लाभ ले सके. किन्तु हिन्दी का हृदय से सम्बन्ध मां की गोदी से धरती की गोदी तक कम नहीं होना चाहिये और जन-जन की नस नस में हिन्दी का गौरव जब हम भरेंगे तब राष्ट्रीयता उपजेगी अन्यथा राष्ट्रीयता कोरा शब्द बनकर रह जायेगा.

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

विष्णु खरे का लेख विचारोत्तेजक है

मसिजीवी के ब्लाग पर जनसत्ता में प्रकासित विष्णु खरे का लेख पढा। लगा इस पर बहस होनी चाहिए।राय नामक तथाकथित कथाकार (कथाकार कहने में शर्म आती है) इतना अनर्गल बोले और लिखे और हिन्दी का लेखक पद,पुरस्कार,छ्पास आदि के अंधमोह में फंसकर कन्नी काटता फिरे,यह भी एक अक्षम्य अपराध है। हालांकि यह बात पुरानी सी हो गयी लगती है और राय नामक साहित्यकार के क्षमा मांग लेने से, कुछ लोग कह सकते हैं,छोडो भी,इतनी उठापटक तो हिन्दी वालों के लिए आम बात है।ऎसे वही लोग हैं जो साहित्य को मर्दों का लेखन मानते हैं,और स्त्रियों को चूल्हा-चौका करने वाली और--------------------पांव की जूती।ऎसे लोगों से विनम्र निवेदन हैकि यह लेख न पढें,सनातनी शील-भंग का खतरा ज्यादा है।
अपने ब्लाग की शुरूआत करते हुए एक बार फिर मैं विष्णु खरे का लेख  जनसत्ता और मसिजीवी के ब्लाग से साभार प्रस्तुत कर रहा हूं-                 महेश आलोक


साहित्य में प्रमाद -विष्णु खरे(1)


हममें से लगभग हर एक के साथ ऐसा होता है कि हम कुछ विचारों, वस्तुओं और व्यक्तियों को कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते। ये पूर्वग्रह कभी सकारण होते हैं और कभी नितांत निरंकुश, जिनके लिए उर्दू में बुग्ज-ए-लिल्लाहीजैसा खूबसूरत पद है। हमें कुछ लोगों का जिक्र करने, उन्हें देखने, उनके साथ उठने-बैठने-फोटो खिंचाने, उन्हें अपने घर की दहलीज पर फटकने देने की कल्पना मात्र से घिन आने लगती है। यह खयाल भी हमारा इलाज नहीं कर पाता कि कुछ दूसरे हमजिंस हमारे बारे में भी ऐसा ही सोचते होंगे। बुग्ज की रौनक इसी में है।
छिनाल’-ख्याति के विभूति नारायण राय को ही लें। मेरे जानते उन्होंने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा नहीं है। उलटे एक बार जब वे किसी वामपंथी सम्मेलन में जा रहे थे, जिसमें मैं भी आमंत्रित था पर अपनी जेब से यात्रा-व्यय नहीं देना चाहता था, तो आयोजक ने मुझसे कहा था कि राय प्रथम श्रेणी में आ रहे हैं और मुझे अपने साथ निष्कंटक मुफ्त में ला सकते हैं। फिर जब वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हुए तो वर्धा के एक विराट लेखक-सम्मेलन में उन्होंने मुझे निमंत्रणीय समझा। अपने पूर्वग्रहों के कारण दोनों बार मैं उनके सान्निध्य से बचा।
उन्हें मैं कतई उल्लेखनीय लेखक नहीं मानता था और हाल ही में जब उनकी एक प्रेत-प्रेम कथा में यह पढ़ा कि अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास 1909 में आना शुरू हो चुके थे तो मेरी यह बदगुमानी पुख्ता हो गयी कि वे मात्र अपाठ्य नहीं, अपढ़ भी हैं। उनके आजीवन संस्थापन-संपादन में निकल रही एक पत्रिका उनके मामूली औसत मंझोलेपन का उन्नतोदर आईना है और उनके संरक्षण में उनके विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित की जा रही तीनों पत्रिकाएं अधिकांशत: नामाकूल संपादकों के जरिये हिंदी पर नाजिल हैं, हालांकि उनमें से एक में मेरी कुछ शंकास्पद कविताओं के अन्यत्र प्रकाशित शोचनीय अंग्रेजी अनुवाद दोबारा छपे हैं।
यह सोचना भ्रामक और गलत होगा कि जो ख्याति विभूति नारायण ने छिनालके इस्तेमाल से हासिल की है, वह नयी है। उनके वर्धा कुलपतित्व (पतितके साथ अगर श्लेष लगे तो वह अनभिप्रेत समझा जाए) के पहले भी उन्हें लेकर अनेक अनर्गल किंवदंतियां थीं जिनका संकेत भी देना भारतीय दंड संहिता की मानहानि-संबंधित धाराओं को आकृष्ट कर लेगा; हालांकि उन्हें लेकर मुद्रणेतर माध्यमों में जो कुछ कहा जा रहा है, उस पर अगर वे अदालत गये तो उन्हें अपना शेष जीवन वकीलों के चैंबरों के पास पोर्टा कैबिन सरीखे किसी ढांचे में रह कर बिताना होगा।
गनीमत यह है कि हिंदी लेखिकाओं के लिए उन्होंने छिनालशब्द कहा ही नहीं है, उसे छपवाया भी है, उस पर बावेला मचने पर लोकभाषाओं और असहाय प्रेमचंद के हवालों से उसके इस्तेमाल का बचाव किया है यानी उसे कबूल किया है और अंत में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय स्तर पर एक खेले-खाये नौकरशाह की तरह सरकारी यदिवादी मुआफी भी मांग ली है। अपने कायर मगर चालाक त्वचारक्षण में कपिल सिब्बल और विभूति नारायण की मिलीभगत कामयाब रही लाठी भी नहीं टूटी और शास्त्री भवन की इमारत खतरनाक, कुपित सर्पिणियों से खाली करवा ली गयी।
इसे क्या कहा जाए – ‘एंटी क्लाइमैक्स’, ‘इंटर्वल’, ‘हैपी एंडिंग’, ‘ट्रेजडी’, ‘फार्सया बेकेट-ग्रोतोव्स्की-प्रसादांत’? क्या यह मसला सिर्फ एक बदजुबान, बददिमाग कुलपति-निर्मित-आईपीएस की सार्वजनिक मौखिक-लिखित अशिष्टता का था, जिसे खुद को लेखक-बुद्धिजीवी समझने की खुशफहमी भी है, जिसकी नाबदानी फासिस्ट फूहड़ता को रफा-दफा और दाखिल-दफ्तर कर दिया गया है?
इस मामले को विभूति नारायण बनाम हिंदी लेखिकाएंमानना सिर्फ आंशिक रूप से सही होगा। हम इस अस्तित्ववादी बहस में यहां नहीं पड़ना चाहते कि तमाम महानतम विचारों, आस्थाओं और व्यक्तित्वों के बावजूद मानवता लगातार एक आत्महंता पतन का वरण ही क्यों करने पर अभिशप्त दीखती है, लेकिन यह एक कटु, निर्मम सत्य है कि समूचे भारत के सुकूत के बीच हिंदीभाषी समाज, उसकी संस्कृति(यों), हिंदी भाषा और साहित्य की उत्तरोत्तर अवनति और सड़न अब शायद दुर्निवार और लाइलाज है बल्कि यह तक कहा जा सकता है कि दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिंदीभाषी समाज, यानी तथाकथित हिंदी बुद्धिजीवी, जिम्मेदार और कुसूरवार हैं।
प्राइमरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, मुद्रित समाचार जगत, अकादेमियां, प्रकाशक, पुस्तकखरीद संस्थाएं, संस्कृति संसार, केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मंत्रालय और विभाग, विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका जहां भी हिंदी में या हिंदी का काम हो या नहीं हो रहा है, वहां के सारे हिंदी-उत्तरदायी इसके अपराधी हैं। हिंदीभाषी निम्न-उच्च और मध्यवर्ग भी इसके लिए कम दोषी नहीं।
यह मैं मानता हूं कि सर्जनात्मक साहित्य में कभी-कभी कथित अश्लील भाषा और चित्रण के बगैर लेखक का काम चल नहीं सकता, हालांकि उनके बिना भी सार्थक साहित्य लिखा ही जा रहा है। लेकिन गैर-रचनात्मक लेखन में लेखक को उससे बचना चाहिए, विशेषत: जब वह किन्हीं व्यक्तियों और समूहों को लेकर अपनी कोई धारणा व्यक्त कर रहा हो।
यह सही है कि विभूति नारायण ने अपना अधिकांश कार्यकाल एक ऐसे महकमे में काटा है जिसमें अश्लीलतम गालियां देना और सुनना पेशे का अनिवार्य और स्पृहणीय अंग है। लेकिन अगर एक ओर आपको यह भ्रम हो कि आप एक वाम समर्थक-समर्थित लेखक हैं देखिए कि जन संस्कृति मंच ने उन्हें लेकर कैसे दो परस्पर-विरोधी जैसे बयान जारी किये हैं, जिनमें से एक को जाली बताया गया था और दूसरी ओर गांधीजी (जिनके दुर्भाग्य का पारावार नजर नहीं आता) के नाम पर खोले गये हिंदी भाषा और साहित्य के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति, तो आपको हिंदी को लेकर बा मुहम्मद होशियारजैसा लौह-नियम जागते-सोते याद रखना चाहिए।
लेकिन, ‘जिन्हें देवता बर्बाद करना चाहते हैं पहले उन्हें विकल मस्तिष्क कर देते हैंवाली यूनानी कहावत के मुताबिक हमारे कुलपति का दिमाग लेखक होने के उनके वहम और वामपंथियों के अपनी वर्दी की कई जेबों में होने की खुशफहमी ने तो खराब कर ही दिया होगा, हिंदी कुलपति होने की सत्ता के कारण राष्ट्रव्यापी अधिकांश हिंदी प्राध्यापक-लेखक-प्रकाशक गुलामी जो उन्हें अनायास प्राप्त हो गयी उसने उन्हें विभूति-विभ्रम (डिल्यूजंस ऑफ ग्रैंड्योर’) का आखेट बना डाला। हम अधिकांश हिंदी विभागों की गलाजतों को जानते ही हैं। स्वयं गांधी विश्वविद्यालय में सैकड़ों पद और छात्रवृत्तियां हैं, एमलिट, एमफिल, पीएचडी के निबंध-प्रबंध हैं, अपने अपने रुझान के उपयुक्त छात्र-छात्राएं हैं, लेखक-लेखिकाओं को बुलाने के लिए सारे बहाने और बहकावे-बहलावे हैं।
आप एक्सपर्टबन कर किस-किस को कहां-कहां कैसे-कैसे सेलेक्ट और रिजेक्ट नहीं कर सकते। प्रकाशक-मुद्रक-संपादक-कागज व्यापारी आपके बूट चूमने लगते हैं। हिंदी की सारी दुनिया आपके लोलुप लोचनों में छिनाल से कम नहीं रह जाती। हिंदी का प्राय: हर व्याख्याता, रीडर या प्रोफेसर इन्हीं फंतासियों में जीता है और उन्हें चरितार्थ करने में सक्रिय रहता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब जो कल्पनातीत और अधिकांशत: अपात्र वेतनमान लागू हैं, उनके कारण प्राध्यापक वर्ग में हिंदी के शुद्ध मसिजीवी लेखकों के प्रति हिकारत और बढ़ गयी है। सभी जानते हैं कि हिंदी विभागों में कई दशकों से यौन-शोषण चल रहा है, जो अक्सर दबा-छिपा दिया जाता है।
हम यह न भूलें कि ऐसे लोगों ने वे भी पाल रखे हैं, जिन्हें लीलाधर जगूड़ी के एक पुराने मुहावरे में पुरुष-वेश्याही कहा जा सकता है। अनेक हिंदी विभाग दरअसल ऐसी ही अक्षतयोनापुरुष-वेश्याओं के उत्पादक चकले बन गये हैं, जहां कायदे से कामायनीन पढ़ा कर कुट्टनीमतं काव्यंपढ़ाया जाना चाहिए। एक छोटा-मोटा दस्ता रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी युगों से ही उठ खड़ा हुआ था, फिर नंददुलारे वाजपेयी, शिवमंगल सिंह सुमन’, नगेंद्र आदि के उप-युगों से होता हुआ अब नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पुरुषोत्तम अग्रवाल से गुजरता हुआ सुधीश पचौरी और अजय तिवारी जैसे अकादेमिक बौने छुटभैयों तक एक अक्षौहिणी में बदल रहा है।
देश के अन्य विश्वविद्यालय केंद्रों की कैसी दुर्दशा होगी यह सहज ही समझा जा सकता है वहां यही लोग तो एक्सपर्टबन कर अपने तृतीय से लेकर अंतिम श्रेणी के भक्तों को तैनात करते हैं। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि सूडो-नामवर सिंह होने की महत्त्वाकांक्षा रखने वाला एक हिंदी प्रोफेसर केंद्रीय सेवाओं के कूड़ेदान के लिए किस कचरे का योगदान कर रहा होगा। हिंदी की साहित्यिक संस्कृति का एक अनूठा आयाम यह भी है कि प्राय: सभी लेखक और प्रकाशक आपस में मित्र या शत्रु हैं, इन दोस्तियों और दुश्मनियों में भले ही बराबरियां न हों, ये संबंध अकादमिक दुनिया तक भी पहुंचते हैं और लगातार बदलते रहते हैं। इनमें एक वर्णाश्रम धर्म और वर्ग विभाजन भी है, नवधा-भक्तियां हैं, संरक्षकत्व, अभिभावकत्व, मुसाहिबी, चापलूसी, दासता आदि जटिल तत्त्व शामिल हैं। इसमें छोटी-बड़ी पत्रिकाओं के संपादकों की भूमिकाएं भी हैं, मगर बड़ी पत्रिकाओं के प्रकाशकों संपादकों के पास अधिक सत्ता है।
यह इसलिए है कि यों तो अपना नाम और फोटो छपा देखने की आकांक्षा पिछले साठ वर्षों से ही देखी जा रही है, पर लेखकों में फिर भी कुछ हया, आत्मसम्मान और स्व-मूल्यांकन के जज्बात बाकी थे। दुर्भाग्यवश अब पिछले शायद दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महत्त्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुड़ुकलुल्लू-मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढ़ी नमूदार हुई है, जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है। अकविता आंदोलनके बाद साहित्यिक मूल्यों का ऐसा पतन सिर्फ इधर की कहानी और कविता दोनों में देखा जा रहा है। पत्रिका-जगत में ऐसे सरगनाओं जैसे संपादकों का वर्चस्व है, जो अपने-अपने लेखक-गिरोह तैयार करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद के इक्कीसवीं सदी के संस्करणों का निर्लज्ज इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रतिभाशाली, संयमी, विवेकवान और साहसी युवा, प्रौढ़ और वरिष्ठ लेखक-लेखिकाएं बचे ही नहीं, मगर ग्रेशम के नियम के साहित्यिक संस्करण में खोटे सिक्कों ने वास्तविकों को बचाव-मुद्रा में ला दिया है जो अंतत: श्रेयस्कर ही है।
विभूति नारायण का छिनाल-प्रकरण अकादमिक-लेखकीय-संपादकीय मिलीभगत (नैक्सस’) के बिना संभव न होता। नया ज्ञानोदयके संपादक रवींद्र कालिया विभूति नारायण से कम मीडिऑकर लेखक हैं या अधिक, यह बहस का मसला नहीं है, लेकिन दोनों मिल कर एक अनैतिक साहित्यिक-सत्ता का प्रदर्शन करना चाहते थे। ज्ञानोदयदरअसल कितना छपता है इसका कुछ अंदाज हमें है; लेकिन बेशक कालिया ने उसमें और ज्ञानपीठ प्रकाशन में अपनी वल्गरप्रतिभा से कुछ अस्थायी प्राण जरूर फूंके हैं। हम यह भी जानते हैं कि ज्ञानपीठ का प्रबंधन मूलत: राजनीतिक हवामुर्ग रहा है। कालिया अपने कांग्रेसी रिश्तों की वजह से ज्ञानपीठ में हैं, यह न तो ठीक-ठीक जाना जा सकता है और न उसकी जरूरत है।
मुझे शांतिप्रसाद-रमा जैन और लक्ष्मीचंद्र जैन के युग का ज्ञानोदय और ज्ञानपीठ याद हैं वर्तमान निजाम को उसकी शर्मनाक अवनति ही कहा जा सकता है। लेकिन हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता का उत्थान और पतन मुंबई के धर्मयुगऔर सारिकासे होता हुआ नया ज्ञानोदय तक देखा जा सकता है। कुछ संपादकों ने मुख्यत: कहानी को स्त्रियों का शिकार करने की विधा में बदल दिया और रवींद्र कालिया उसी परंपरा की सड़ांध-भरी तलछट हैं। उन्हें दो बड़ी सुविधाएं हैं; उनके पास एक पत्रिका है, एक प्रकाशन-गृह है जिनके प्रबंधक साहित्य को सिर्फ बिक्री के तराजू में तौलना जानते हैं और उन्हें एक ऐसा लेखक-समाज मिला है जो अधिकांशत: किसी भी नैतिक कीमत पर सिर्फ छपना चाहता है।
साहित्यिक पत्रकारिता में बाजारवाद ‘धर्मयुग-सारिका’ से शुरू हुआ था जो अब अन्य पत्रिकाओं के अलावा ‘ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ’ में पूर्ण-कुसुमित महारोग का विकराल रूप ले चुका है। अपनी सत्ता और सफलता से राय-कालिया गठबंधन इतना प्रमादग्रस्त हो गया था कि उसने सोचा कि वह हिंदी समाज में ‘छिनाल’ को भी निगलवा लेगा, पर वह उसके गले की हड्डी बन गया। (क्रमशः)