अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

सशक्त कथा शिल्पी कामतानाथ को हार्दिक श्रद्धांजलि- महेश आलोक


सशक्त कथा शिल्पी कामतानाथ को हार्दिक श्रद्धांजलि-  महेश आलोक

       सशक्त कथा शिल्पी के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने वाले रचनाकार कामतानाथ का  लखनऊ स्थित डॉ राम मनोहर लोहिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस में शुक्रवार की रात लगभग 9 बजे निधन हो गया.वह 78 वर्ष के थे ।.समांतर कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार कामतानाथ के छह उपन्यास और 11 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उन्हें ‘पहल सम्मान’, ‘मुक्तिबोध पुरस्कार’, ‘यशपाल पुरस्कार’, ‘साहित्य भूषण’ और ‘महात्मा गांधी सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है।
प्रमुख कृतियां - उपन्यास : समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की, सुबह होने तक, एक और हिन्दुस्तान, तुम्हारे नाम, काल-कथा (दो खंड)
कहानी संग्रह : छुट्टियाँ, तीसरी साँस, सब ठीक हो जाएगा, शिकस्त, रिश्ते-नाते, कथांतर (संपादित)
नाटक : दिशाहीन, फूलन, कल्पतरु की छाया, दाखला डॉट काम, संक्रमण, वार्ड नं एक (एकांकी), भारत भाग्य विधाता (प्रहसन), प्रेत (हेनरिक इब्सन के नाटक : घोस्ट का हिन्दी अनुवाद), औरतें (गाइ द मोपांसा की कहानियों पर आधारित नाटक)
      

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

नवउदारवाद, बाजारवाद और अवसरवादी राजनीति ने हिन्दी को बहुत पीछे धकेल दिया है-डा0. वैदिक


नवउदारवाद, बाजारवाद और अवसरवादी राजनीति ने हिन्दी को बहुत पीछे धकेल दिया है-डा0. वैदिक


डा0 वैदिक बोलते हुए साथ में बैठे हुए बाएं उदयप्रताप सिंह तथा दाएं शब्दम् अध्यक्ष श्रीमती किरन बजाज


कार्यक्रम विषय - हिन्दी मीडिया से वर्तमान एवं भविष्य को उम्मीदें तथा हिन्दी सेवी सम्मान
दिनांक      - 17 नवम्बर 2012
संयोजन               - शब्दम्
आमंत्रित अतिथि  - डा0 वेदप्रताप वैदिक, श्री उदयप्रताप सिंह
विशिष्ट अतिथि - शब्दम सलाहकार मंडल के सदस्य श्री उमाशंकर शर्मा, श्री मंजर उलवासै, डा0. ओ.पी. सिंह, डा0. महेश आलोक,  डा0. ध्रुवेन्द्र भदौरिया, डा0 रजनी यादव, श्री मुकेश मणिकान्चन एवं श्री बाल कृष्ण गुप्त, श्री अंशुमान बावरी, डा. सुशीला त्यागी, डा0 नरेन्द्र प्रकाश जैन, डा0. ए.बी. चैबे।
        
         शब्दम् का आठवां स्थापना दिवस पूर्णतः हिन्दी विमर्श को समर्पित था। इस अवसर  पर संस्था द्वारा हिन्दी के अग्रणी पैरोकार डा. वेदप्रताप वैदिक और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष श्री उदय प्रताप सिंह को उनकी हिन्दी सेवा के लिए सम्मानित किया गया।।
डा0 वैदिक एवं उदयप्रताप सिंह को सम्मानित करतीं शब्दम् अध्यक्ष श्रीमती किरन बजाज एवं शब्दम् सलाहकार मंडल के सदस्य
         
शब्दम् अध्यक्ष श्रीमती किरन बजाज बोलते हुए
                कार्यक्रम अदभुत और अनूठा इसलिए भी बन गया क्योंकि ‘शब्दम्’ संस्था संगीत के साथ साहित्य को समर्पित संस्था भी है। संस्था की अध्यक्ष श्रीमती किरण बजाज ने जब एल.सी.डी. के जरिए संस्था के कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया तो हिन्द लैम्पस् संस्कृति भवन में उपस्थिति बुद्धिजीवियों ने करतल ध्वनि से उसकी सराहना की। विगत वर्षों में संस्था द्वारा किए गए कार्यों में, चाहे वह ग्रामीण कवि सम्मेलन के जरिए हिन्दी की अलख जगाने का कार्यक्रम हो या पर्यावरण जागरूकता का हिन्दी सेवियों के सम्मान की श्रंखला हो या म्यूजिक कंसर्ट के कार्यक्रम, सभी कार्यक्रम समाज सेवा के यज्ञ में एक से बढ़कर एक आहुति के समान दिखाई दे रहे थे।     एस.सी.डी. के चित्रों की जीवन्तता ने सभी दर्शकों का मनमोह लिया। श्रीमती किरण बजाज ने इस प्रजेंटेशन के जरिए यह तो साबित कर ही दिया कि शब्दम् संस्था हर वर्ष नए प्रतिमान गढ़ रही है, जिनका लाभ न केवल फिरोजाबाद अंचल अपितु पूरे आगरा संभाग को मिल रहा है। संस्था के सुरूचिपूर्ण प्रबन्धन और कर्मठ कार्यकर्ताओं की सक्रियता के चलते पर्यावरणीय प्रदूषण के साथ ही सांस्कृतिक प्रदूषण को दूर करने में संस्था का प्रयास श्लाघनीय है।
अपने सम्मान से अभिभूत जब डा. वेदप्रताप वैदिक हिन्दी विमर्श पर बोलने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने उदयप्रताप जी को सम्बोधित करते हुए कहा ‘‘मेरे जीवन की अविस्मरणीय सभा के अध्यक्ष जी मुझे आज यहा आकर बेहद प्रसन्नता हो रही है’’ दरअसल ‘शब्दम्’ का हिन्दी भाषा से बेहद लगाव है यही कारण है कि 2012 के शिक्षक दिवस पर सम्मानित होने वाले प्रो. नामवर सिंह जी भी गदगद हो गए थे।
अपने उद्बोधन के प्रारंभ में ही डा. वैदिक ने स्पष्ट कर दिया था कि वह केवल हिन्दी भाषा की स्थिति पर ही विमर्श को केन्द्रित करने का प्रयास करेंगे और बाद में उन्हों किया भी यही। वैदिक इस बात को लेकर बेहद आहत दिखे कि देश में चहुंओर अंग्रेजी का बोलबाला है। हिन्दी के प्रति दिलचस्पी न तो राजनेताओं में है और न उद्योगपतियों में। अंग्रेजी के आगे सम्पूर्ण भारतीय समाज भृत्य बनकर रह गय है। ‘‘अंग्रेजी के ऐसे घटाटोप में शब्दम् संस्था का हिन्दी प्रेम देखकर मुझे लगा जैसे शिकोहाबाद में कोई दाराशिकोह की तरह दीप जलाए बैठा है।’’ देश के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अंग्रेजी सीखने को ‘पांडित्य’ समझता है। अंग्रेजी का ऐसा घटाटोप ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी देखने को नहीं मिला।
डा. वैदिक ने बताया कि वह पहले विद्यार्थी थे जो हिन्दी में शोधग्रन्थ लिखकर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रस्तुत कर सके। प्रारंभ में उनके शोध को स्वीकार नहीं किया गया। नवउदारवाद, बाजारवाद और अवसरवादी राजनीति ने हिन्दी को बहुत पीछे धकेल दिया है। महात्मागांधी और डा. राम मनोहर लोहिया के बाद कोई ऐसा राजनेता सामने नहीं आया है जो हिन्दी के लिए संघर्ष कर सके। डाॅ. वैदिक ने स्पष्ट किया कि वह अंग्रेजी विरोधी नहीं है। उनकी कई पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गयी हैं तथा वह विदेशों में अंग्रेजी में व्याख्यान देते हंै लेकिन जिस तरह अंग्रेजी भारतवासियों पर थोपी जा रही है उसका वह विरोध करते है। उनका मानना है कि इस अंग्रेजी की वर्चस्वता के चलते देश में साठ करोड़ लोग बीस रू. से कम खर्च पर प्रतिदिन गुजारा करते हुए पशुवत जीवन जीने को विवश है। सेना का यह हाल है कि वहाॅं बहादुरी से गोलियां चलाने वाले का सम्मान नहीं होता, बल्कि अंग्रेजी में जुबान चलाने वाले का सम्मान किया जाता है। देश के अनुसंधान पर भाषा के माध्यम का असर पड़ रहा है। भारतीय प्रतिभाएं अपनी प्रतिभा का उपयोग पहले अंग्रेजी साीखने में करती हैं उसके बाद ही अनुसंधान की ओर बढ़ पाती है। अंग्रेजी के तिलिस्म के चलते गरीब भारतवासी का बच्चा आगे नहंी बढ़ पाता। उन्होंने भारतवासियों के अंग्रेजी प्रेम पर कटाक्ष करते हुए कहा कि जो बच्चा अपनी मां (हिन्दी) को मां कहने में संकोच करता है वह मौसी (अंग्रेजी) की क्या इज्जत करेगा।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे उदयप्रताप जी को इंगित करते हुए वैदिक जी ने कहा कि आप हिन्दी संस्थान के जरिए ज्ञान-विज्ञान की श्रेष्ठ किताबों के हिन्दी अनुवाद का काम करवाइए ताकि छात्र-छात्राओं को लाभ मिल सके। अनुवाद के जरिए आप बहुत बड़ा काम कर सकते हैं।
उद्बोधन के अंत में डा. वैदिक ने श्रोताओं द्वारा उठाए गए प्रश्नों का समाधान भी प्रस्तुत किया।
डा0 महेश आलोक उदयप्रताप सिंह का परिचय देते हुए
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदयप्रताप ने आश्वासन दिया कि वह हिन्दी संस्थान में रहते हुए हिन्दी के प्रचार-प्रसार और संवर्द्धन का काम करेंगे। उदयप्रताप ने डा. वैदिक से सम्बन्धित कुछ रोचक संस्मरण भी सुनाए जिनका श्रोताओं ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। संस्था की अध्यक्ष किरण बजाज ने आग्रह पर उन्होंने अपनी गजल के कुछ शेर सुनाकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।
 डा0 ओ0 पी0 सिंह डा0 वैदिक का परिचय देते हुए
कार्यक्रम के प्रारंभ में डा. ओ.पी. सिंह एवं डा.महेश आलोक ने क्रमश:

डा. वैदिक एवं उदयप्रताप सिंह के व्यक्तिव और कृतित्व पर प्रकाश डाला।तथा डा0 ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने धन्यवाद ज्ञापित किया। कार्यक्रम का संचालन मुकेश मणिकांचन ने किया।

शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

आओ देवताओं का पता करें कि......



आओ कि देवताओं से साक्षात्कार करते हैं, पूछते हैं उनसे 
कि किस तरह रहते हैं इतनी उॅंचाई पर हमसे दूर रहकर 
हमारी आपदाओें पर हंसते हुए 
आओ देखें कि किस तरह उनका कटता है 
दूसरों की विपत्तियों पर हंसते हुए उनका दिन 
कैसे गुजरती हैं उनकी रातें ।


हमारी अन्धकार भरी दुनिया से दूर , पर सूरज के इतने समीप रहते हुए
कैसे-कैसे सपने देखते हैं ये देवता 

कि आओ
नजदीक से देखते हैं इन्हैं
देखते हैं कैसे स्कूलों में पढ़ा-लिखा इन्होंने और
कैसे स्कूल हैं इनके जहाँ पढ़ रहे हैं इनके बच्चे
और यह भी कि देवता क्या सिखा रहे हैं अपने मासूम बच्चों को
और देखें कैसे गोरे, काले विचारों और रूपों के बन रहे हैं उनके बच्चे
अपने अलावा और दीन-दुनिया की कैसी समझ है उनकी
अपने से बाकी लोगों और उनके बच्चों के बारे में ।


और यह भी कि क्या उनको
अपने अस्तित्व की गलतफहमी अभी भी है
या उनको या उनको पता चल चुका है कि
उनका अस्तित्व अब संकट में है और
कोई वकील या न्यायालय कह सकता है उनके बारे में
कि वे कभी किसी घर में पैदा हुए थे या बेघर ही रहे सदा
या कि उनको अपना अस्तित्व बचाने के लिए जाना होगा न्यायालय के पास
और अपने तथा अपने पिता की वल्दियत के सबूत ठीक-ठीक लेकर ।

देखो कि आसमान में कोई है बुलाता है तुम्हैं
आओ देखो, किस तरह गढ़ी
जाती हैं स्वर्ग के तोरण द्वार की उॅंचाई
जहाँ आमोखास अपनी औकात के अनुसार ही पाते हैं प्रवेश
बाकी को उनका कोई सिपाही ही बता देता है बाहर का रास्ता।

आओ पता करें देवताओं से कि
उन्होंने बनाया कि नहीं अपना कोई नया संविधान
या वे पुराने संविधान से ही चला रहे हैं काम
और दीन दुनिया को समझ और हाँक रहे हैं पुराने कानूनों से ।
और इस तरह, किसी तरह ही चला रहे हैं अपना काम
आओ पता करें देवताओं से उन्होंने बंद किया कि नहीं
अपने अधीनस्थ देवताओं का शोषण बंद
या या उन की पहचानों पर आयद हो रहीं है
अभी भी उनकी बेतरतीब सी कार्यविभाजन नीति ।


आओ आग और पानी के देवता से इन, उन से, सबसे
सबसे पता करते हैं कि उनको पता है कि नहीं अपनी असलियत
कि उनके अस़्त्र-शस्त्र अब हो चुके पुराने
और उनके नए रिसर्च में भी कोई चमत्कार नहीं रहा ।


आओ देखें देवताओं के पुराने गुप्तचर भी
पुरानी चर परंपरा से ही चल रहे हैं या कि
पीछे हैं बहुत हमारे आबाओं-बाबाओं से
वक्ताओं से भक्तों से


जो दोहन कर रहे हैं उसी देवता के लोक का ।
तो आओ चलना ही होगा देवताओं के लोक में
यह जानने के लिए कि देवता कैसे कैसे चला रहे हैं
उतनी बिगड़ी व्यवस्था से अपना काम ।


आओ बताए उन्हें कि मनुष्य अब बढ़ गया है काफी आगे
और यहीं इसी दुनिया से पता कर ले रहा है उनके लोक की हलचल और खलबली
और देवता तुम्हारे औजारों, आविष्कारों में लग गया है जंक
और तुम्हारे नाम पर वसूली करने बालों की पौ बारह हो रही है।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

वैदिक काल में आवास-व्यवस्था - महेश आलोक


          आवास व्यवस्था  किसी भी संस्कृति का एक महत्व्पूर्ण अंग है। यह सर्वमान्य है कि आवासों का निर्माण एवं उसका स्वरूप उसके निर्माताओं की आवश्यकताओं एवं चतुर्दिक पर्यावरण पर  आधारित होता है। इसके अतिरिक्त निर्माण हेतु उपलब्ध सामग्री एवं संस्कृतियों का तकनीकी स्तर भी आवास निवेश को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित करते हैं। वैदिक संहिताओं में इस विषय से संबन्धित सामग्री सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। हमें केवल ग्राम, गृह या पुर जैसे कुछ शब्दों के रूप में ही सूचनाएं प्राप्त होती हैं। इन शब्दों को तत्कालीन पर्यावरण तथा सामाजिक आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
       वैदिक सहिताएं आर्यन संस्कृति की जानकारी हेतु प्राचीनतम लिखित प्रमाण हैं। इस दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व समस्त विश्व में स्वीकार किया जाता है। मूल संहिताएं ऋक, यजु, साम एवं अथर्व, केवल चार ही हैं। किन्तु कालान्तर में कुछ उपशाखाओं का उदय हुआ जिन्होंने भिन्न सहिताओं का निर्माण किया। वाजसनेयि, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक आदि संहिताएं इनका प्रमाण हैं। यों तो वैदिक संहिताओं के काल को लेकर विद्वानों के मध्य अत्यधिक मतभेद है तथापि इस संदर्भ में जर्मन विद्वान ‘विन्टरनित्स’1 का मत अपेक्षाकृत अधिक तर्कसंगत स्वीकार किया जाता है। इसी को आधार मानकर संहिताओं का काल लगभग द्वितीय सहस्त्राब्दी ईस्वी पूर्व निर्धारित किया जा सकता है। यह तो सर्वविदित है कि ऋग्वेद संहिता अन्य वैदिक सहिताओं की अपेक्षा अधिक प्राचीन है।
     अबतक अधिकांश विद्वानों की प्रायः यही धारणा रही है कि आरम्भिक वैदिक संस्कृति का आर्थिक मूल आधार पशुपालन था और कालान्तर में इसके अतिरिक्त कृषि भी जीवन यापन का मुख्य साधन बन गयी। जीवन यापन की इन मौलिक आवश्यकताओं को देखते हुए यह स्वीकार किया जा सकता है कि वैदिक आर्यों ने उन्हीं स्थलों को निवास के लिये चुना होगा जहां इन दोनों से सम्बन्धित सुविधाएं उपलब्ध हों। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसे समतल कृषि योग्य स्थलों को ही निवास निमित्त चुना गया होगा जिसमें पर्याप्त वर्षा होती हो अथवा नदी झील या तालाब का जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो। इस प्रकार के वातावरण या पर्यावरण में न तो चरागाहों का अभाव होगा और न ही ऐसे जंगलों का जिनमें आखेट योग्य पशु काफी संख्या में उपलब्ध हों।
        संहिताओं में आखेट के उल्लेख स्पष्ट करते हैं कि यह न केवल मनोविनोद का साधन था वरन् वैदिक अर्थव्यवस्था का भी एक महत्वपूर्ण अंग था। इसी प्रकार ऐसे भी उल्लेख हैं जिनमें पशुओं के ‘चरागाह’ (व्रजम्) एवं गोष्ठ ( गायों के खड़े होने का स्थान ) हैं।2 वैदिक मन्त्रों में इन्द्र, वरूण आदि देवताओं से वर्षा की प्रार्थना की गयी है,3 इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है कि कभी कभी वैदिक आर्यों के निवास क्षेत्र में पर्याप्त वर्षा नहीं होती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि जलवायु लगभग उसी प्रकार की थी जैसी उत्तरी भारत में वर्तमान समय में होती है।
          जैसा कि उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वैदिक संस्कृत संहिता काल में पशुपालन आधारित आर्थिक व्यवस्था सीमित कृषि पर आधारित थी। ऐसी स्थिति में छोटी छोटी बस्तियों का यत्र- तत्र विद्यमान होना ही अघिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। संहिताओं का ग्राम ( मन्$ग्रस्) शब्द इन्हीं का द्योतक है। नगरों के विकास के लिये , जैसा कि आज समझा जाता है, विकसित उद्योग, समुचित व्यापार व्यवस्था एवं सुव्यवस्थित राजनैतिक प्रणाली का होना आवश्यक है। इसके अभाव में हम नगरों की कल्पना नहीं कर सकते। संहिताओं का ‘पुर’ शब्द स्वाभाविक रूप से नगरों का न होकर अन्य सुरक्षा सम्बन्धी निर्माण का द्योतक प्रतीत होता है। यही बात ‘दुर्ग’ के सम्बन्ध में नहीं कही जा सकती। गांवों में निवास निमित्त विविध आवश्यकताओं के अनुरूप ‘गृह’ निर्मित किये जाते थे। वस्तुतः आवास व्यवस्था से सम्बन्धित ‘ग्राम’, ‘गृह’, ‘पुर’ जैसे प्रचलित शब्द ही वैदिक संहिताओं में उपलब्ध हैं।
                   ..........................................................                                            
संदर्भ ग्रंथ सूची-
1.  विन्टरनित्स एम0- ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर  (अंग्रेजी अनुवाद)-  कलकत्ता- 1959
2.  व्रजम् ऋ0 10।26।3, 10।97।10 एवं 10।101।8,
    गोष्ठ  ऋ0 1।191।4, 6।28।1, 8।3।17,
    सेंट पीटर्स बुर्ग कोष के अनुसार ‘गोष्ठ’ का अर्थ है-पशुओं या गायों के खड़े होने का स्थान
3. ऋ0 4।57।7-9



बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

और तब ईश्वर का क्या हुआ?- स्टीवन वाइनबर्ग


                 

                                   और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 1

                                                        स्टीवन वाइनबर्ग 

                          ( यह आलेख समय के साये में से साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है)- महेश आलोक

( 1933 में पैदा हुए अमेरिका के विख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीवन वाइनबर्ग, अपनी अकादमिक वैज्ञानिक गतिविधियों के अलावा, विज्ञान के लोकप्रिय और तार्किक प्रवक्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। उन्होंने इसी संदर्भ में काफ़ी ठोस लेखन कार्य किया है। कई सम्मान और पुरस्कारों के अलावा उन्हें भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

प्रस्तुत आलेख में वाइनबर्ग ईश्वर और धर्म पर जारी बहसों में एक वस्तुगत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बखूबी उभारते हैं, और अपनी रोचक शैली में विज्ञान के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हैं। इस आलेख में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का जिक्र करते हुए, अवैज्ञानिक तर्कों और साथ ही छद्मवैज्ञानिकता को भी वस्तुगत रूप से परखने का कार्य किया है तथा कई चलताऊ वैज्ञानिक नज़रियों पर भी दृष्टिपात किया है। कुलमिलाकर यह महत्त्वपूर्ण आलेख, इस बहस में तार्किक दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों के लिए एक जरूरी दस्तावेज़ है, जिससे गुजरना उनकी चेतना को नये आयाम प्रदान करने का स्पष्ट सामर्थ्य रखता है। )

                                                           पहला भाग



     तुम जानते हो पोर्ट ने कहा और उसकी आवाज़ फिर रहस्यमय हो गई, जैसा प्रायः किसी शांत जगह पर लंबे अंतराल पर कही गई बातों से प्रतीत होता है।
     यहां आकाश बिल्कुल अलग है। जब भी मैं उसे देखता हूं, मुझे ऐसा महसूस होता है जैसे कोई ठोस वस्तु हो जो हम लोगों को पीछे की हर चीज़ से रक्षा कर रही हो।
     किट ने हल्के से कांपते हुए पूछा - पीछे की हर चीज़ से?
     हाँ
     लेकिन पीछे है क्या? उसकी आवाज़ एकदम धीमी थी।
     मेरा अनुमान है, कुछ भी नहीं। केवल अंधेरा। घनी रात।
                                   - पॉल बोल्स, द शेल्टरिंग स्काई

स्वर्ग ईश्वर के गौरव की घोषणा करते हैं और यह आकाश उनके दस्तकारी की प्रस्तुति है। राजा डेविड या जिसने भी ये स्त्रोत लिखे हैं, उन्हें ये तारे किसी अत्यंत क्रमबद्ध अस्तित्व के प्रत्यक्ष प्रमाण प्रतीत हुए होंगे, जो हमारी चट्टानों, पेड़ों और पत्थरों वाली नीरस सांसारिक दुनिया से काफ़ी अलग रही होगी। डेविड के दिनों की तुलना में सूरज और अन्य तारों ने अपनी विशेष स्थिति खो दी है। अब हम समझते हैं कि ये ऐसे चमकते गैसों के गोले हैं जो गुरुत्वाकर्षण बल के कारण परस्पर बंधे हैं और अपने -अपने केन्द्र में चलने वाली उष्मानाभिकीय प्रतिक्रियाओं से उत्सर्जित ऊष्मा के दबाब के कारण सिमट जाने से बचे हुए हैं। ये तारे हमें ईश्वर के गौरव के बारे में उतना ही बताते हैं जितना कि हमारे आसपास पाये जाने वाले धरती के पत्थर।

ईश्वर की दस्तकारी में कुछ विशेष अन्तर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए अगर प्रकृति में कुछ चीज़ों की खोज करनी हो तो निश्चित ही वह होगा प्रकृति के अंतिम नियम। इन नियमों को जानकर हम मालिक होंगे उन नियमों की किताब के जो तारों और पत्थरों और हर अन्य चीज़ को नियंत्रित करते हैं। इसीलिए यह स्वाभाविक है कि स्टीफन हॉकिंग ने प्रकृति के नियमों को ईश्वर के दिमाग़ की संज्ञा दी है। एक अन्य भौतिकविद चार्ल्स मिजनर ने भी भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान के परिप्रेक्ष्यों की तुलना करते हुए इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया, एक कार्बनिक रसायनज्ञ इस प्रश्न के जवाब में कि बानवे तत्व क्यों हैं और ये कब बने, यह कह सकता है कि- कोई दूसरा ही इसका जवाब दे सकता है। लेकिन किसी भौतकविद से अगर पूछा जाए कि यह दुनियां क्यों कुछ भौतिक नियमों का अनुसरण करने और शेष का अनुसरण नहीं करने के लिए बनाई गई है? तो वह जवाब दे सकता है- ईश्वर जाने। आइन्सटीन ने एक बार अपने सहायक अर्न्स्ट स्ट्रास से कहा था- मुझे यह जानने की इच्छा है कि दुनिया की रचना में ईश्वर के पास कोई विकल्प मौजूद थे या नहीं। एक अन्य मौके पर वे भौतिकी के उपक्रम ( विषय ) के उद्देश्य का वर्णन करते हुए कहते हैं- "इसका उद्देश्य न केवल यह जानना है कि प्रकृति कैसी है और वह कैसे अपना कार्य संपादित करती है बल्कि उस आदर्शमय और दंभपूर्ण लगने वाले उद्देश्य को जहां तक संभव हो प्राप्त करना है- जिनके तहत हम यह भी जानना चाहते हैं कि प्रकृति ऐसी ही क्यों है और दूसरी तरह की क्यों नहीं है।...इस प्रकार यह् अनुभव होता है, जिसे यूं कहा जाए कि ईश्वर ख़ुद इन संबंधों को जैसे वे हैं इससे अलग किसी तरीके से व्यवस्थित नहीं कर सकते थे"। वैज्ञानिक अनुभव का यही प्रोमिथीयन तत्व है। मेरे लिए हमेशा से यही वैज्ञानिक प्रयास का विशिष्ट जादू रहा है।

आइन्स्टीन का धर्म इतना अस्पष्ट था कि मुझे संदेह है, और उनके यूं कहा जाए से स्पष्ट होता है, कि उनका यह कथन नए रूपक की तरह है। भौतिक विज्ञान इतना मूलभूत है कि भौतिक विज्ञानियों के लिए यह् रूपक स्वाभाविक ही है। धर्म तत्वज्ञ पॉल टिलिच ने पाया कि वैज्ञानिकों में केवल भौतिक विज्ञानी ही बिना किसी उलझन के ईश्वर शब्द का उपयोग करने में सक्षम हैं। किसी का धर्म चाहे जो हो या बिना धर्म के भी प्रकृति के अंतिम नियमों को ईश्वर के दिमाग़ के रूप में बताना एक अत्यंत सम्मोहक रूपक है।

इस संबध में मेरा सामना हुआ एक विचित्र सी जगह पर वाशिंगटन के रेबर्न हाउस ऑफिस बिल्डिंग में। जब मैं वहां १९८७ में विज्ञान, अंतरिक्ष और प्रोद्योगिकी की हाउस समिति के सामने सुपरकन्डक्टिंग सुपर कोलाइडर ( एस.एस.सी.) प्रोजेक्ट के पक्ष में साक्ष्य के लिए उपस्थित हुआ। मैंने जिक्र क्या कि किस प्रकार प्राथमिक कणों के हमारे अध्ययन के दौरान हम नियमों की खोज कर रहे हैं और ये नियम लगातार और ज़्यादा सुसंगत और सार्वभौम होते जा रहे हैं और हमें यह आभास होने लगा है कि यह मात्र संयोग नहीं है। हमने यह भी बताया कि इन नियमों में एक व्यापक सुसंगठन ( सौन्दर्य ) है जो विश्व की संरचना में गहरे छिपे सुसंगठन को प्रतिबिंबित करता है। मेरी टिप्पणी के बाद अन्य साक्ष्यों ने भी बयान दिये और समिति के सदस्यों ने प्रश्न भी पूछे। इसके बाद वहां समिति के दो सदस्यों, एक इलियॉनस के रिपब्लिकन प्रतिनिधि हैरिस डब्लू फावेल जो सुपर कोलाइडर प्रोजेक्ट् के कुलमिलाकर पक्षधर थे, और दूसरे पेनसिल्वानिया के रिपब्लिकन प्रतिनिधि डॉन रिटर एक् पूर्व धातुकीय अभियंता जो कांग्रेस में प्रोजेक्ट के धुर विरोधियों में से थे, के बीच एक बहस छिड़ गई।

    मि. फावेल - बहुत-बहुत धन्यवाद, मैं आप सभी के साक्ष्यों का आभारी हूं। यह बहुत अच्छा था। अगर कभी मुझे किसी को एस.एस.सी. की जरूरत के बारे में समझाना होगा तो यह निश्चित है कि में आपके साक्ष्यों का सहारा लूंगा। यह बहुत लाभदायक होगा। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि हमारे पास कोई एक शब्द होता जो यह सब बयान कर देता। पर यह लगभग असंभव है। मेरा अनुमान है कि शायद डॉ. वाईनबर्ग इसके कुछ निकट पहुंचे थे। मैं एकदम निश्चित तो नहीं कह सकता पर मैंने यह लिख लिया है। उन्होंने कहा है कि उनका अनुमान है कि यह सब संयोग नहीं है कि कुछ नियम हैं जो पदार्थ को नियंत्रित करते हैं। और मैंने तुरंत लिखा कि क्या यह हमें ईश्वर को खोजने में मदद करेगा? यह तय है कि आपने यह दावा नहीं किया, लेकिन् निश्चित ही यह विश्व को और अधिक समझने में हमें बहुत सक्षम बनायेगा।
    मि. रिटर - क्या महाशय ने इस विषय में कुछ कहा? अगर ये इस पर कुछ प्रकाश डालें तो मैं कहूंगा कि...
    मि. फावेल - मैं ऐसा दावा नहीं कर रहा हूं।
    मि. रिटर - अगर यह मशीन वह सब करेगी तो मैं निश्चित ही इसके पक्ष में खड़ा रहूंगा।
 
मेरे विवेक ने मुझे इस विचार-विनिमय में पड़ने से रोक दिया, क्योंकि मैं नहीं समझता कि कांग्रेस के सदस्य यह जानने के लिए उत्सुक थे कि एस.एस.सी. प्रोजेक्ट में ईश्वर की खोज के बारे में मैं क्या सोचता हूं और इसलिए भी भी क्योंकि मुझे नहीं लगा कि इसके बारे में मेरे विचार जानना प्रोजेक्ट के लिए फायदेमंद होता।

कुछ लोगों का ईश्वर के बारे में दृष्टिकोण इतना व्यापक और लचीला होता है कि यह निश्चित, अवश्यम्भावी है कि वे जहां भी ईश्वर को देखना चाहेंगे उन्हें वहीं पा लेते हैं। हम प्रायः सुनते हैं कि "ईश्वर अंतिम सत्य है" या "यह विश्व ही ईश्वर है"। वस्तुतः किसी भी अन्य शब्द की तरह ईश्वर का भी वही अर्थ निकाला जा सकता है जो हम चाहते हैं। अगर आप कहना चाहते हैं कि "ईश्वर ऊर्जा है" तो आप ईश्वर को कोयले के एक टुकड़े में पा सकते हैं। लेकिन यदि शब्दों का हमारे लिए महत्त्व है तो हमें उन रूपों की कद्र करनी होगी जिनमें उनका इतिहास से उपयोग होता आया है, और ख़ासकर हमें उन विशिष्टताओं की रक्षा करनी होगी जो शब्दों के अर्थों को अन्य शब्दों में विलीन हो जाने से बचाते हैं।

इसी स्थिति में मुझे लगता है कि "ईश्वर" शब्द का अगर कुछ भी उपयोग है तो इसका अर्थ ईश्वर के रूप में ही लिया जाना चाहिए। वे जो रचयिता हैं और नियम बनाते हैं, जिन्होंने केवल प्रकृति के नियमों और विश्व को ही स्थापित नहीं किया है बल्कि अच्छे और बुरे के मापदण्ड़ भी निर्धारित किये हैं, ऐसा व्यक्तित्व जो हमारी गतिविधियों से संबद्ध, संक्षेप में ऐसे जो हमारे आराध्य हो सकते हैं। यह स्पष्ट होना चाहिए कि इन विषयों पर बहस करते हुए मैं अपना दृष्टिकोण रख रहा हूं और इस अध्याय में किसी ख़ास विशेषता का दावा नहीं करता। यही वो ईश्वर है जो पूरे इतिहास पुरुषों और नारियों के लिए महत्त्वपूर्ण रहे हैं। वैज्ञानिक और अन्य लोग कभी-कभी "ईश्वर" शब्द का उपयोग इतने अमूर्त और असम्बद्ध अर्थों में करते हैं कि प्रकृति के नियमों और "उन" में कोई अंतर नही रह जाता। आइन्सटीन ने एक बार कहा था कि "मेरा विश्वास उस स्पीनोजा के ईश्वर पर है जो सभी वस्तुओं की क्रमबद्ध समरसता के रूप में प्रकट होता हैं। मैं उस ईश्वर को नहीं मानता जो मनुष्य की गतिविधियों और उनके भाग्य से हितबद्ध है"। लेकिन ‘क्रमबद्धता’ या ‘समरसता’ की जगह अगर हम ‘ईश्वर’ शब्द का प्रयोग करें तो इससे क्या फ़र्क पड़ेगा, इस इल्ज़ाम से बचने के अलावा कि ईश्वर है ही नहीं। ऐसे तो इस प्रकार से ‘ईश्वर’ शब्द के प्रयोग के लिए हर व्यक्ति स्वतंत्र है, पर मुझे लगता है कि इससे ईश्वर की अवधारणा और महत्त्वपूर्ण हो जाती है, गलत साबित नहीं होती।

क्या हम प्रकृति के अंतरिम नियमों में हितबद्ध ईश्वर को पा सकते हैं? यह प्रश्न कुछ बेतुका सा लगता है। केवल इसलिए नहीं कि हम अब तक अंतिम नियमों को नहीं जान पाये हैं, बल्कि इसलिए ज़्यादा कि यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि ऐसे अंतिम सिद्धांतों को प्राप्त भी किया जा सकता है जिनकी और गहन सिद्धांतों की मदद से व्याख्या करने की जरूरत ना पड़े। लेकिन यह प्रश्न चाहे कितना भी अधूरा हो, इस पर कौतूहल ना होना असंभव है कि क्या हम अंतिम सिद्धांत में अपने गंभीरतम सवालों का जवाब हितबद्ध ईश्वर के कारनामों का कोई प्रतीक ढूंढ़ पाएंगे? मेरा अनुमान है कि हम ऐसा नहीं कर पाएंगे।

विज्ञान के इतिहास से हमारे सभी अनुभव एक विपरीत दिशा में, एक रूखे अवैयक्तिक प्रकृति के नियमों की ओर अग्रसर हैं। इस पथ पर पहला पहला महत्तवपूर्ण कदम था आकाश ( स्वर्ग ) का रहस्योद्‍घाटन। इससे जुड़े महानायकों को तो हर कोई जानता है। कॉपरनिकस, जिन्होंने प्रस्तावित किया कि विश्व ( यूनिवर्स ) के केन्द्र में पृथ्वी नहीं है। गैलीलियो, जिन्होंने यह् सिद्ध किया कि कॉपरनिकस सही था। ब्रूनो, जिनका अनुमान था कि सूरज असंख्य तारों में से केवल एक तारा है और न्यूटन जिन्होंने दिखाया कि एक ही गति और गुरुत्वाकर्षण के नियम सौरमंड़ल और पृथ्वी पर स्थित वस्तुओं पर लागू होते हैं। मेरे विचार में महत्त्वपूर्ण क्षण वह था जब न्यूटन ने यह अवलोकन किया कि जो नियम पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा की गति को नियंत्रित करता है वही पृथ्वी की सतह पर किसी वस्तु का गिरना भी निर्धारित करता है। हमारी ( २०वीं ) शताब्दी में आकाश के रहस्योद्‍घाटन को एक कदम और आगे बढ़ाया अमेरिकन खगोलविद्‍ एडविन हबॅल ने। उन्होंने एन्ड्रोमिडा नीहारिका ( नेबूला ) की दूरी मापकर यह सिद्ध किया कि यह नीहारिका, और निष्कर्षतः ऐसी ही हजारों अन्य नीहारिकाएं, हमारी आकाशगंगा के मात्र बाहरी हिस्से नहीं हैं बल्कि वे ख़ुद में कई आकाशगंगा हैं और हमारी आकाशगंगा की तरह प्रभावशाली भी हैं। आधुनिक ब्रह्मांड़ विज्ञानी कापर्निकन ( सिद्धांत ) की भी बात करते हैं, जिसके अनुसार कोई भी ब्रह्मांड़ शास्त्रीय सिद्धांत जो हमारी आकाशगंगा को विश्व में एक विशेष स्थान देता हो उसे गंभीरता से नहीं लिया जा सकता।

जीवन के रहस्यों पर से भी पर्दा उठा है। जस्टन वॉन लीबिग व अन्य कार्बनिक रसायनज्ञों ने उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में यह प्रदर्शित किया कि जीवन से संबंधित रसायनों, जैसे यूरिक एसिड, के प्रयोगशाला संश्लेषण की कोई सीमा नहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण खोज चार्ल्स डार्विन और अल्फ्रेड रसेल वैलेस की थी, जिन्होंने दर्शाया कि सजीव वस्तुओं की आश्चर्यजनक क्षमताओं का क्रमिक विकास स्वाभाविक चयन प्रक्रिया द्वारा बिना किसी बाह्य योजना या निर्देशन के हो सकता है। रहस्योद्‍घाटन की यह प्रक्रिया इस शताब्दी में और तेज हो गई है जब जैव रसायन और आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में सजीव वस्तुओं के क्रिया-कलापों की व्याख्या में लगातार सफलताएं हासिल हो रही हैं।

भौतिक विज्ञान की किसी अन्य खोज की तुलना में जीवन के रहस्यों से पर्दा उठाने का धार्मिक संवेदनशीलता पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भौतिकी और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में खोज नहीं, बल्कि जीव-विज्ञान में न्यूनीकरण ( रिडक्शनिज्म ) और क्रम विकास ( इवोल्यूशन ) के सिद्धांत सबसे ज़्यादा दुराग्रहपूर्ण विरोधों को जन्म देते रहे हैं।

वैज्ञानिकों में भी यदा-कदा उस जैवशक्तिवाद ( वाइटलिज्म ) के संकेत मिलते हैं, जिसका मत है कि जैविक प्रक्रियाओं की व्याख्या भौतिकी और रसायन के आधार पर नहीं की जा सकती। यद्यपि इस शताब्दी में जीव-विज्ञानी ( न्यूनीकरण विरोधियों, जैसे अर्न्स्ट् मेयर, सहित ) कुल मिलाकर जैवशक्तिवाद से मुक्ति की दिशा में अग्रसर है, लेकिन १९४४ तक भी इरविन शॉडिंगर ने अपनी प्रसिद्ध् व्हाट इज लाइफ ( जीवन क्या है ) में तर्क दिया कि जीवन की भौतिक संरचना के बारे में इतनी जानकारियां हैं कि यह सही-सही इंगित किया जा सकता है कि क्यों आज का भौतिक विज्ञान जीवन को व्याख्यायित नहीं कर सकता। उनका तर्क था कि आनुवंशिक सूचनाएं जो जीव-जंतुओं को नियंत्रित करती हैं बहुत ही स्थायी होती हैं जिन्हें जिन्हें क्वान्टम और सांख्यिकीय यांत्रिकी में वर्णित त्वरित और लगातार बदलावों वाले संसार में समायोजित नहीं किया जा सकता। शॉडिंगर की गलती को आणविक जीव-विज्ञानी मैक्स पेरुज ने चिन्हित किया, जिन्होंने अन्य चीज़ों के अलावा हीमोग्लोबिन की रचना पर भी काम किया था। शॉडिंगर ने इन्जाइम-उत्प्रेरण नाम रासायनिक प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न किये जा सकने वाले स्थायित्व पर ध्यान नहीं दिया था।

                                  और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 2


                                                      स्टीवन वाइनबर्ग


आज क्रमिक विकास के सबसे ज़्यादा सम्माननीय अकादमिक आलोचक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ लॉव’ के प्रोफ़ेसर फिलीप जॉनसन माने जा सकते हैं। जॉनसन स्वीकार करते हैं कि क्रमिक विकास हुआ है और यह कभी-कभी स्वाभाविक चयन प्रक्रिया द्वारा होता है, लेकिन वे तर्क पेश करते हैं कि ऐसा कोई ‘अकाट्य प्रायोगिक प्रमाण’ नहीं है जिससे यह साबित हो कि क्रमिक विकास किसी ईश्वरीय योजना से निर्देशित नहीं होता। वास्तव में यह प्रमाणित करने की आशा करना मूर्खता होगा कि ऐसी कोई अलौकिक शक्ति नहीं है जो कुछ उत्परिवर्तनों ( म्यूटेशन ) के पक्ष में और कुछ के विरोध में पलड़ा नहीं झुका देती। लेकिन ठीक यही बात किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत के लिए कही जा सकती है, न्यूटन या आइन्सटीन के गति के नियमों से सौरमंड़ल पर सफलतापूर्वक लागू करने में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमें यह मानने से रोके कि कुछ धूमकेतु बीच-बीच में किसी अलौकिक शक्ति से हल्का सा धक्का पा लेते हैं। यह अत्यंत स्पष्ट है कि जॉनसन यह मुद्दा निष्पक्ष उदारमति सोच के तहत नहीं उठाते हैं बल्कि उन धार्मिक कारणों से उठाते हैं जिनका जीवन के लिए तो वे महत्त्व समझते हैं पर धूमकेतु के लिए नहीं। लेकिन किसी भी प्रकार का विज्ञान इसी तरह आगे बढ़ सकता है कि पहले यह मान लिया जाए कि कोई अलौकिक हस्तक्षेप नहीं है और फिर यह देखा जाए कि इस मान्यता के तहत हम कितना आगे बढ़ सकते हैं।

जॉनसन का तर्क है कि प्राकृतिक क्रम-विकास, वह क्रमिक-विकास जो प्रकृति की दुनिया से बाहर किसी सृष्टिकर्ता के निर्देशन या हस्तक्षेप को शामिल नहीं करता, वास्तव में, जीव-जातियों ( स्पीसीज ) की उत्पत्ति की बहुत अच्छी व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता। मुझे लगता है कि वे यहां गलती कर बैठते हैं क्योंकि वे उन समस्याओं को महसूस नहीं कर रहे हैं जिनका सामना किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को हमारे अवलोकनों का स्पष्टीकरण देते हुए हमेशा करना पड़ता है। स्पष्ट गलतियों को छोड दिया जाए, तो भी हमारी गणनाएं और अवलोकन कुछ ऐसी मान्यताओं पर आधारित होती हैं जो उस सिद्धांत, जिसकी परीक्षा की हम कोशिश कर रहे होते हैं, की वैधता की सीमा से बाहर होती हैं। कभी ऐसा नहीं था जब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत या अन्य किसी भी सिद्धांत पर आधारित गणनाएं सभी अवलोकनों से पूरी तरह मेल खाती हों। आज के जीवाश्म विज्ञानियों और क्रमिक विकासपंथी जीवविज्ञानियों के लेखन में हम उस स्थिति को पहचान सकते हैं जिससे भौतिक विज्ञान में हम वाकिफ़ हैं, यानि की प्राकृतिक क्रमिक-विकास के सिद्धांत जीव विज्ञानियों के लिए अत्यंत ही सफल सिद्धांत हैं, फिर भी इसके स्पष्टिकरण का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है। मुझे लगता है यह सिद्धांत एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज है जिससे हम जीवविज्ञान और भौतिकविज्ञान दोनों ही क्षेत्रों में बिना किसी अलौकिक हस्तक्षेप की परिकल्पना के दुनिया की व्याख्या बहुत आगे तक कर सकते हैं।

दूसरे संदर्भ में, मैं सोचता हूं जॉनसन सही हैं। उनका तर्क है, जैसा कि सभी समझते हैं, कि प्राकृतिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और धर्म में एक विसंगति है, और जो वैज्ञानिक और शिक्षाविद इससे इनकार करते हैं उनके सामने वे चुनौती पेश करते हैं। वे आगे शिकायत करते हैं कि प्राकृतिक क्रमिक विकास और ईश्वर के अस्तित्व में तभी तालमेल संभव है, अगर ईश्वर शब्द का अर्थ हम उस प्रथम कारण से ज़्यादा न लें जो प्रकृति के नियमों को स्थापित करने और स्वाभाविक प्रक्रिया को लागू करने के बाद आगे की गतिविधियों से विरत हो जाता है।

आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत और हितबद्ध ईश्वर में विश्वास के बीच की विसंगति मुझे तर्क की विसंगति नहीं लगती। कोई यह कल्पना कर सकता है कि ईश्वर ने प्रकृति के नियमों को रचा और क्रमिक विकास की प्रक्रिया को इस उद्देश्य से स्थापित किया कि एक दिन स्वाभाविक चयन प्रक्रिया के द्वारा आप और हम प्रकट होंगे। वास्तविक विसंगति दृष्टि की है। आखिर ईश्वर उन नर नारियों के दिमाग़ की पैदाइश नहीं है जिन्होंने अनन्त दूरदर्शी प्रथम कारणों की परिकल्पना की, बल्कि उन दिलों की खोज है जो हितबद्ध ईश्वर के लगातार हस्तक्षेप के लिए लालायित थे।

धार्मिक रूढ़ीवादी यह समझते हैं, जैसा कि उनके उदारवादी विरोधी नहीं समझ पाते, कि विद्यालयों ( पब्लिक स्कूल ) में क्रमिक विकास के शिक्षण की बहस में कितनी बड़ी चीज़ दाव पर लगी है। १९८३ में, टेक्सस से आने के थोड़े दिनों बाद, उस अधिनियम पर टेक्सस सीनेट के समक्ष गवाही देने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया, जिसके अनुसार राज्य द्वारा खरीदी हुई माध्यमिक विद्यालयों की पाठ्‍य-पुस्तकों में क्रमिक विकास के सिद्धांत के पठन-पाठन की तब तक मनाही थी, जब तक उतना ही महत्त्व सृष्टिवाद को न दिया जाए। समिति के एक सदस्य ने मुझसे पूछा कि राज्य क्रमिक विकास जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत के शिक्षण को कैसे मदद दे सकता है जो धार्मिक विश्वासों से इतना खिलवाड़ करता है। मैने जवाब दिया कि नास्तिकता से भावनात्मक रूप से जुडे लोगों के लिए जीव-विज्ञान में शिक्षण के लिए उपयुक्त महत्त्व से ज़्यादा महत्त्व क्रमिक विकास पर कम महत्त्व देने में है। यह जन विद्यालयों का काम नहीं है कि वे वैज्ञानिक सिद्धांतों के धार्मिक प्रभावों के पक्ष या विपक्ष में अपने को शामिल करें। मेरे उत्तर ने सीनेटर को संतुष्ट नहीं किया क्योंकि वह मेरी तरह, जानता था कि जीव विज्ञान के पाठ्‍यक्रम में क्रमिक विकास के सिद्धांत पर उपयुक्त जोर देने का क्या प्रभाव पड़ेगा। ज्योंही मैंने समिति कक्ष से बाहर कदम रखा, वह बुदबुदाया-"अभी ईश्वर स्वर्ग में है।" ऐसा हो सकता है, लेकिन लड़ाई में जीत हमारी हुई। टेक्सस के माध्यमिक स्कूल की पाठ्‍यपुस्तकों में केवल आधुनिक क्रमिक विकास के सिद्धांत को शामिल करने की छूट ही नहीं मिली बल्कि इसे शामिल करना अब अनिवार्य हो गया है और वह भी सृष्टि के बारे में बकवास के बिना। लेकिन ऐसी बहुत सी सारी जगहें हैं ( खासकर आज के इस्लामिक देशों में ) जहां यह लड़ाई अभी जीती जानी है और कहीं भी यह गारंटी नहीं है कि यह जीत कायम रहेगी।

हम प्रायः सुनते हैं कि विज्ञान और धर्म में कोई विरोध नहीं है। उदाहरण के लिए जॉनसन की पुस्तक की विवेचना करते हुए स्टीफन गोल्ड कहते हैं कि ‘विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोध में खड़े नहीं होते, क्योंकि विज्ञान तथ्यात्मक सच्चाइयों से नाता जोड़ता है, जबकि धर्म मानव को नैतिकता से’। बहुत सी बातों पर में गोल्ड़ से सहमत हूं किंतु मुझे लगता है वे दूसरी दिशा में चले गये हैं। धर्म के अर्थ की परिभाषा, धार्मिक लोगों के वास्तविक विश्वास की परिधि में ही की जा सकती है और दुनिया के धार्मिक लोगों को के विशाल बहुमत को यह जानकर आश्चर्य होगा कि धर्म का तथ्यात्मक सच्चाइयों से कुछ लेना-देना नहीं है।

लेकिन गोल्ड़ के विचार वैज्ञानिकों और धार्मिक उदारपंथियों के बीच बहुत प्रचलित हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह धर्म के उस स्थान से जहां कभी वह विराजमान था, पीछे हटने का महत्त्वपूर्ण संकेत है। एक समय था जब हर नदी में बिना एक जलपरी के और हर पेड़ में बिना एक वन देवी के प्रकृति की व्याख्या नहीं की जा सकती थी। उन्नीसवीं शताब्दी तक भी पेड़ और जंतुओं की संरचना सृष्टिकर्ता के प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखी जाती थी। आज भी प्रकृति की ऐसी अनंत वस्तुएं हैं जिनकी व्याख्या हम नहीं कर सकते, लेकिन हम उन सिद्धांतों को जानते हैं जो उनकी कार्य-पद्धति को नियंत्रित करते हैं। आज वास्तविक रहस्यों के लिए हमें ब्रह्मांड विज्ञान औए प्राथमिक-कण भौतिकी की तह में जाना पड़ेगा। उन लोगों के लिए जो धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं देखते, विज्ञान द्वारा कब्जा की गई ज़मीन से धर्म के पीछे हटने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी है।

इस ऐतिहासिक अनुभव से सीख लेते हुए, हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यद्यपि प्रकृति के अंतिम नियमों में हमें विशेष सौन्दर्य के दर्शन् होंगे, लेकिन जीवन या बुद्धि के लिए यहां कोई विशेष जगह नहीं होगी। आगे चलकर, मूल्य या नैतिकता के मापदंड़ नहीं बनेंगे और इसीलिए हमें ईश्वर का कोई संकेत नहीं मिलेगा, जो इन चीज़ों पर ही टिके हुए हैं। यह चीज़े कहीं और भले मिल जाएं, पर प्रकृति के नियमों में नहीं।

मुझे यह स्वीकार करना होगा कि प्रकृति कभी-कभी जरूरत से ज़्यादा खूबसूरत लगती है। मेरे घर के कार्यालय की खिड़की के सामने एक हैकबेरी का पेड़ है। उस पर बार-बार आयोजित सुसभ्य पक्षियों का समारोह - नीलकंठ, पीले गले वाले वाईरोज और सबसे प्यारे कभी-कभी पहुंचने वाले लाल कार्डिनल। यद्यपि मैं अच्छी तरह समझता हूं कि किस प्रकार चमकीले रंग की पंखुड़ियां अपने साथी जोड़े को आकर्षित करने की प्रतिद्वंदता में विकसित हुए, फिर भी यह कल्पना किये बिना नहीं रहा जा सकता कि यह सारा सौन्दर्य हमारी सुविधा के लिए बनाया गया है। लेकिन यह भी तय है कि पक्षियों और पेड़ों के ईश्वर को, जन्म से ही अंग-भंग करने वाले या कैंसर देने वाला ईश्वर भी बनना पड़ेगा।

सहस्त्राब्दियों से धार्मिक लोग ईशशास्त्र में उलझे हुए हैं। उनके सामने वह समस्या खड़ी है कि एक अच्छे ईश्वर द्वारा शासित मानी जाने वाली दुनिया में दुखों का अस्तित्व क्यों है। अलग-अलग दैनिक योजनाओं की कल्पना कर उन्होंने इस समस्या के कई विलक्षण हल निकालें हैं। इन समाधानों पर मैं तर्क नहीं करूंगा और न ही अपनी ओर से एक और समाधान प्रस्तुत करूंगा। विध्वंस की यादों ने मुझे ईश्वर के मनुष्यों के प्रति रवैयों को नयायपूर्ण बताने की कोशिशों से विमुख कर दिया है। अगर कोई ईश्वर है जिनके पास मनुष्यों के लिए खास योजनाएं हैं तो हमारे लिए अपने इस भाव को छिपाये रखने के लिए वे इतना कष्ट क्यों मोल ले रहे हैं? मुझे तो यह अगर अपवित्र नहीं तो कठोर लगेगा कि ऐसे ईश्वर की हम अपने प्रार्थनाओं में फिक्र करें।

अंतिम नियमों के प्रति मेरे कठोर दृष्टिकोण से सभी वैज्ञानिक सहमत नहीं होंगे। मैं किसी को नहीं जानता जो स्पष्ट रूप से यह कहे कि देवता के अस्तित्व के प्रमाण हैं। लेकिन बहुत सारे वैज्ञानिक प्रकृति में बुद्धियुक्त जीवन की एक विशेष स्थिति के लिए अवश्य तर्क देते हैं। वस्तुतः यह तो हर कोई जानता है कि जीवविज्ञान और मनोविज्ञान का अध्ययन अपनी-अपनी परिधि में होना चाहिए, न कि प्राथमिक-कण-भौतिकी के संदर्भ में। लेकिन यह बुद्धि या जीवन के लिए किसी विशेष स्थिति का द्योतक नहीं है, क्योंकि यही बात रसायन विज्ञान और द्रवगति विज्ञान के संबंध में भी सही है। दूसरी ओर, यदि हम अभिमुखी व्याख्याओं के मिलनबिंदु पर अंतिम नियमों में बुद्धियुक्त जीवन की विशेष भूमिका खोजें तो हम यह निष्कर्ष निकालेंगे कि वे सृष्टिकर्ता, जिन्होंने ये नियम बनाए, हमलोगों में खास दिलचस्पी रखते थे।

जॉन व्हीलर इस तथ्य से काफ़ी प्रभावित हैं कि क्वान्टम यांत्रिकी की मानक कोपेनहेगन व्याख्या के अनुसार किसी भौतिक प्रणाली में स्थान, ऊर्जा का संवेग जैसे गुणमापकों ( तत्वों ) का एक निश्चित मान तब तक नहीं बताया जा सकता जब तक कि किसी पर्यवेक्षक के यंत्र से इन्हें माप न लिया जाए। व्हीलर के लिए क्वांटम यांत्रिकी सार्थकता के लिए एक प्रकार के बुद्धियुक्त जीवन को विश्व में दिखना ही नहीं बल्कि उसके हर हिस्से में फैल जाना चाहिए ताकि विश्व की भौतिक स्थिति के बारे में सूचना का हर बिट प्राप्त किया जा सके। मेरे हिसाब से व्हीलर के निष्कर्ष प्रत्यक्षवाद के मत को अत्यंत गंभीरता से लेने के खतरे का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रत्यक्षवाद का तर्क है कि विज्ञान को उन्हीं चीज़ों तक अपने आपको सीमित रखना चाहिए जिनका हम अवलोकन कर सकते हैं। मैं और मेरे अन्य भौतिक विज्ञानी क्वान्टम यांत्रिकी की दूसरी यथार्थवादी पद्धति को वरीयता देते हैं जो तरंग फलन के आधार पर प्रयोगशालाओं और पर्यवेक्षकों, साथ ही साथ, अणुओं और परमाणुओं की व्याख्या कर सकता है, जो नियमों द्वारा नियंत्रित होते हैं और इस बात पर वस्तुगत रूप से निर्भर नहीं रहते कि पर्यवेक्षक मौजूद है या नहीं।

                               और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 3

                                                      स्टीवन वाइनबर्ग


कुछ वैज्ञानिक इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि कुछ मौलिक स्थिरांकों का मान विश्व में बुद्धियुक्त जीवन की मौजूदगी के अनुकूल है। अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस अवलोकन के पीछे कुछ ठोस आधार हैं, लेकिन अगर ऐसा हो तो भी यह आवश्यक रूप से किसी दैवीय उद्देश्य के क्रियान्वयन की ओर इंगित नहीं करता। बहुत सारे आधुनिक ब्रह्मांड़-विज्ञान के सिद्धांतों में प्रकृति के ये तथाकथित स्थिरांक ( जैसे कि प्राथमिक कणों की मात्रा ) स्थान और समय के साथ, और यहां तक कि विश्व के तरंग फलन के पद से दूसरे पद तक में बदल जाते हैं। अगर यह सही भी है, तो जैसा कि हम देख चुके हैं, एक वैज्ञानिक विश्व के उसी हिस्से में रहकर प्रकृति के नियमों का अध्ययन कर सकता है जहां स्थिरांकों को बुद्धियुक्त जीवन के क्रमिक विकास के अनुकूल मान प्राप्त होते हैं।

सादृश्य के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि एक ग्रह है जिसका नाम है प्राइम पृथ्वी। यह हमारी पृथ्वी से हर तरह से अभिन्न है, सिर्फ़ इसके अलावा कि उस ग्रह के मनुष्यों ने बिना खगोल विज्ञान को जाने भौतिकी के विज्ञान को विकसित किया है जैसे कि हमारी पृथ्वी पर है ( उदाहरण के लिए, कोई यह कल्पना कर सकता है कि प्राइम पृथ्वी की सतह शाश्वत रूप से बादलों से घिरी रहती है )। प्राइम पृथ्वी के छात्र भौतिक विज्ञान की की पाठ्‍यपुस्तक के पीछे भौतिक स्थिरांकों की सारणी अंकित पाएंगे। इस सारणी में प्रकाश की गति, इलेक्ट्रॉन की मात्रा, आदि-आदि लिखी होंगी। और एक अन्य मौलिक स्थिरांक लिखा होगा जिसका मान १.९९ कैलोरी उर्जा प्रति वर्ग सेंटीमीटर होगा जो प्राइम पृथ्वी की सतह पर किसी अनजान बाह्य स्रोत से आने वाली उर्जा की माप होगी। पृथ्वी पर यह सूर्य-स्थिरांक कहलाती है क्योंकि हम जानते हैं कि यह उर्जा हमें सूर्य से प्राप्त होती है।

लेकिन प्राइम पृथ्वी पर किसी के पास यह जानने की विधि नहीं होगी कि यह उर्जा कहां से आती है और यह स्थिरांक यही मान क्यों ग्रहण करता है। प्राइम पृथ्वी के कुछ वैज्ञानिक इस पर जोर दे सकते हैं कि स्थिरांक का मापा गया यह मान जीवन के प्रकट होने के लिए अत्यंत अनुकूल है। अगर प्राइम पृथ्वी २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर से ज़्यादा या कम उर्जा प्राप्त करता तो समुद्रों का पानी या तो भाप या बर्फ होता और प्राइम पृथ्वी पर द्रव जल या अन्य उपयुक्त विकल्प जिसमें जीवन विकसित हो सके, की कमी हो जाती। भौतिक विज्ञानी इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते थे कि १.९९ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर का यह स्थिरांक ईश्वर द्वारा मनुष्यों की भलाई के लिए किया गया है। प्राइम पृथ्वी के कुछ संशयवादी भौतिक विज्ञानी यह तर्क कर सकते थे कि ऐसे स्थिरांकों की व्याख्या अंतत्वोगत्वा भौतिकी के अंतिम नियमों से की जा सकेगी और यह एकमात्र संयोग है कि वहां इसका मान जीवन के अनुकूल है। वास्तव में दोनों ही गलत होते।

जब प्राइम  पृथ्वी के निवासी आखिर में खगोल विज्ञान विकसित कर लेते, तब वे जानते कि उनका ग्रह भी एक सूरज से ९.३ करोड़ मील दूर है जो प्रति मिनट ५६ लाख करोड़ कैलोरी उर्जा उत्सर्जित करता है। और वे यह भी देखते कि दूसरे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा निकट हैं इतने गर्म हैं कि वहां जीवन पैदा नहीं हो सकता तथा बहुत सारे ग्रह जो उनके सूरज से ज़्यादा दूर हैं वे इतने ठंड़े है कि वहां जीवन की संभावना नहीं है। और इसीलिए दूसरे तारों का चक्कर लगा रहे अनन्त ग्रहों में से एक छोटा अनुपात ही जीवन के अनुकूल है। जब वे खगोल वोज्ञान के बारे कुछ सीखते तभी प्राइम पृथ्वी पर तर्क करने वाले भौतिक वैज्ञानी यह जान पाते कि जिस दुनिया में वे रह रहे हैं वह लगभग २ कैलोरी प्रति मिनट प्रति वर्ग सेंटीमीटर ऊर्जा प्राप्त करती है क्योंकि कोई और तरह की दुनिया नहीं हो सकती जिसमें वे रह सकें। हम लोग विश्व के इस हिस्से में प्राइम पृथ्वी के उन निवासियों की तरह हैं जो अब तक खगोल विज्ञान के बारे में नहीं जान पाए हैं, लेकिन हमारी दृष्टि से दूसरे ग्रह और सूरज नहीं बल्कि विश्व के अन्य हिस्से ओझल हैं।

हम अपने तर्क को और आगे बढायेंगे। जैसा कि हमने पाया है कि भौतिकी के सिद्धांत जितने ज़्यादा मौलिक होते हैं उसका ताल्लुक हमसे उतना ही कम होता है। एक उदाहरण लें, १९२० के प्रारंभ में ऐसा सोचा जाता था कि केवल इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन ही प्राथमिक कण हैं। उस समय यह माना जाता था कि ये ही घटक है जिससे हम और हमारी दुनिया बनी है। जब नये कण जैसे न्यूट्रॉन की खोज हुई तो पहले यह मान लिया गया कि वे इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन से ही बने होंगे। लेकिन आज के तत्व बिल्कुल भिन्न हैं।
   
अब हम यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि प्राथमिक कणों से हमारा क्या तात्पर्य है, पर हमने यह महत्त्वपूर्ण सीख ली है कि सामान्य पदार्थों में इन कणों की उपस्थिति उनकी मौलिकता के बारे में कुछ नहीं बताती। लगभग सभी कण प्रभाव क्षेत्र ( फ़िएल्द् ) जो आधुनिक कणों और अंतर्क्रियाओं के मानक मॉडल में प्रकट होते हैं, का इतनी तेजी से ह्रास होता है कि सामान्य पदार्थ में वे अनुपस्थित होते हैं और मानव जीवन में कोई भूमिका अदा नहीं करते। इलेक्ट्रॉन हमारी दैनन्दिनी दुनिया का एक आवश्यक हिस्सा हैं, जबकि म्यूऑन और रॉउन नामक कण हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं रखते, फिर भी सिद्धांतों में उनकी भूमिका के अनुसार इलेक्ट्रॉन को म्यूऑन और रॉउन से किसी भी प्रकार से ज़्यादा मौलिक नहीं कहा जा सकता और व्यापक रूप में कहा जाए तो किसी वस्तु का हमारे लिए महत्व और प्रकृति के नियमों के लिए उसके महत्व के बीच सहसंबंध की खोज किसी ने कभी नहीं की है।

वैसे, विज्ञान की खोजों से ईश्वर के बारे में जानकारी हासिल करने की उम्मीद ज़्यादातर लोगों ने नहीं पाली होगी। जॉन पॉल्किंगहाम ने एक ऐसे धर्म-विज्ञान के पक्ष में भावपूर्ण तर्क दिये हैं जो मानव विवेचना की परिधि के अंदर हों, पर जिसमें विज्ञान का भी घर हो। यह धर्म विज्ञान धार्मिक अनुभवों, जैसे रहस्य का उद्‍घाटन ( ज्ञान प्राप्ति ), पर आधारित हो, ठीक उसी तरह जैसे विज्ञान प्रयोग और अवलोकन पर आधारित होता है, उन्हें उन अनुभवों की गुणात्मकता का आत्म-परीक्षण करना होगा। लेकिन दुनिया के धर्मों के अनुयायियों का बहुतायत ख़ुद के धार्मिक अनुभवों पर नहीं बल्कि दूसरों के कथित अनुभवों द्वारा उद्‍घाटित सत्य पर निर्भर करता है। ऐसा सोचा जा सकता है कि यह सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानियों के दूसरों के प्रयोगों पर निर्भरता से भिन्न नहीं है। लेकिन दोनों में एक महत्वपूर्ण अंतर है। हजारों अलग-अलग भौतिक विज्ञानियों की अंतर्दृष्टि भौतिक वास्तविकता की एक संतोषजनक ( पर अधूरा ) समान समझ पर अभिकेन्द्रित हुई है। इसके विपरीत, ईश्वर या अन्य चीज़ों के बारे में धार्मिक रहस्योद्‍घाटनों से उपजे विवरण एकदम भिन्न दिशाओं में संकेत करते  हैं। हम आज भी, हजारों सालों के ब्रह्मवैज्ञानिक विश्लेषण के बावज़ूद, धार्मिक उद्‍घाटनों से मिली शिक्षा की किसी साझा समझ के निकट भी नहीं है।

धार्मिक अनुभवों और वैज्ञानिक प्रयोग के बीच एक और फर्क है। धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान काफ़ी संतोषप्रद हो सकता है। इसके विपरीत, वैज्ञानिक पर्यवेक्षण से प्राप्त विश्व-दृष्टिकोण अमूर्त और निर्वैयक्तिक होता है। विज्ञान से इतर, धार्मिक अनुभव जीवन में एक उद्देश्य के विशाल ब्रह्मांडीय नाटक में अपनी भूमिका निभाने के लिए सुझाव पेश कर सकते हैं। और जीवन के पश्चात एक निरन्तरता को बनाए रखने के लिए ये हनसे वादा करते हैं इन्हीं कारणों से मुझे लगता है कि धार्मिक अनुभव से प्राप्त ज्ञान पर इच्छाजनित सोच की अमिट छाप होती है।

१९७७ की अपनी पुस्तक द फर्स्ट थ्री मिनट्‍स ( पहले तीन मिनट ) में मैंने एक अविवेकपूर्ण टिप्पणी की थी कि जितना ही हम इस विश्व को समझते जाते हैं, उतना ही यह निरर्थक लगता है। मेरा यह मतलब नहीं था कि विज्ञान हमें सिखाता है कि यह विश्व निरर्थक है, बल्कि यह बताना था कि विश्व ख़ुद किसी लक्ष्य की ओर इशारा नहीं करता। मैंने तत्काल यह जोड़ा था कि ऐसे रास्ते हैं जिसमें हम अपने आप अपने जीवन के लिए एक अर्थ ढूंढ़ सकते हैं, जैसे कि विश्व को समझने का प्रयास, लेकिन क्षति तो हो चुकी थी। उस मुहावरे ने तब से मेरा पीछा किया है।

हाल में एलन लाइटमैन और रॉबर्ट ब्रेबर ने सत्ताइस ब्रह्मांड़ विज्ञानियों और भौतिकी विज्ञानियों के साक्षात्कार प्रकाशित किये हैं। इनमें से ज़्यादातर विज्ञानियों से अपने साक्षात्कार के अन्त में पूछा गया कि वे उस वक्तव्य के बारे में क्या सोचते हैं? विभिन्न विशेषणों के साथ, दस साक्षात्कार देने वाले मुझसे सहमत थे और तेरह असहमत। लेकिन इन तेरह में से तीन इसलिए असहमत थे क्योंकि वे नहीं समझ पाए कि विश्व में कोई किसी अर्थ की आशा क्यों करेगा? हॉवर्ड के खगोलविज्ञानी मारग्रेट गेलर ने पूछा - ....इसका कोई अर्थ क्यों होना चाहिए? कौन सा अर्थ? यह तो एकमात्र भौतिक प्रणाली है इसमें अर्थ कैसा? मैं उस वक्तव्य से एकदम अचंभित हूं। प्रिन्सटन के खगोलविज्ञानी जिम पीबल्स ने उत्तर दिया मैं यह मानने को तैयार हूं कि हम बहते हुए और फैंके हुए हैं। ( पीबल्स को भी अंदाज़ था कि मेरे लिए वह एक बुरा दिन था ) प्रिन्सटन के दूसरे खगोलविज्ञानी एडविन टर्नर मुझसे सहमत थे, किंतु उनका अनुमान था कि मैंने यह टिप्पणी पाठक को नाराज़ करने के उद्देश्य से की थी। एक अच्छी प्रतिक्रिया टेक्सस विश्वविद्यालय के मेरे सहकर्मी, खगोलविज्ञानी गेरार्ड द वाकोलियर्स की थी। उन्होंने कहा कि वे सोचते हैं कि मेरा उत्तर नोस्टालजिया पैदा करने वाला था। कि वास्तव में यह वैसा ही था- उस दुनिया के लिए जहां स्वर्ग ईश्वर के गौरव की घोषणा करते हैं, वह् नोस्टालजिया पैदा करने वाला ही था।


लगभग एक सौ पचास वर्ष पहले मैथ्यू आर्नोल्ड ने समुद्र की लौटती हुई लहरों में धार्मिक विश्वास के पीछे हटते कदमों के दर्शन किये थे और जल की ध्वनि में उदासी का गीत सुना था। प्रकृति के नियमों में किसी चिन्तित सृष्टिकर्ता द्वारा तैयार योजना, जिसमें मनुष्य कुछ खास भूमिका में होते, को देख पाना कितना दिलचस्प होता। लेकिन ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता में मुझ उस उदासी का अहसास हो रहा है। हमारे वैज्ञानिक सहकर्मियों में से कुछ ऐसे हैं जो कहते हैं कि उन्हें प्रकृति के चिंतन से उसी आध्यात्मिक संतोष की प्राप्ति होती है जो औरों को परम्परागत रूप से किसी हितबद्ध ईश्वर में विश्वास से मिलता है। उनमें से कुछ को तो ठीक वैसा ही अहसास भी होता होगा। मुझे नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि यह प्रकृति के नियमों की पहचान करने में सहायक होगा, जैसा कि आइन्सटाइन ने एक प्रकार के दूरस्थ और निष्प्रभावी ईश्वर को मानकर किया। इस धारणा को युक्तिसंगत दिखाने के लिए ईश्वर की समझ को हम जितना परिमार्जित करते हैं, यह उतना ही निरर्थक लगता है।

आज के वैज्ञानिकों में इन मसलों पर सोचने वालों में मैं शायद कुछ लीक से हटकर हूं। चाय या दोपहर के भोजन के चन्द मौकों पर जब बातचीत मुद्दों को छूती है, तो मेरे मित्र भौतिक विज्ञानियों में से ज़्यादातर की सबसे तीखी प्रतिक्रिया हल्के आश्चर्य और मनोविनोद के रूप में व्यक्त होती है जिसमें यह भाव होता है कि अब भी कोई क्या इन मुद्दों को गंभीरता से लेता है। बहुत सारे भौतिक विज्ञानी अपनी नृजातीय पहचान बनाए रखने के लिए, और विवाह और अंत्येष्टि के मौकों पर इसका उपयोग करने के लिए, अपने अभिभावकों के विश्वास से नाममात्र का नाता जोड़े रहते हैं लेकिन इनमें से शायद ही कोई उसके धर्मतत्व पर विचार करता है। मैं ऐसे दो व्यापक सापेक्षता पर काम करने वाले वैज्ञानिकों को जानता हूं जो समर्पित रोमन कैथोलिक हैं। बहुत सारे सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी हैं जो यहूदी रिवाजों के अनुपालक हैं। एक प्रायोगिक भौतिक विज्ञानी हैं जिनका ईसाई-धर्म में पुनर्जन्म हुआ है। एक सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जो समर्पित मुस्लिम हैं, और एक गणितज्ञ भौतिक विज्ञानी हैं जिनका इंगलैंड के गिरजाघर में पुरोहिताभिषेक हुआ है। निस्संदेह अन्य अत्यंत धार्मिक भौतिक विज्ञानी होंगे जिन्हें मैं नहीं जानता या जो अपना मत ख़ुद तक ही सीमित रखते हैं। लेकिन मैं इतना अपने अवलोकनों के आधार पर कह सकता हूं कि आज ज़्यादातर भौतिक विज्ञानी धर्म में पर्याप्त रुचि नहीं रखते और उन्हें व्यावहारिक नास्तिक

                                  और तब ईश्वर का क्या हुआ? - 4


                                                         स्टीवन वाइनबर्ग

                                                          ( अंतिम भाग)

कट्टरपंथियों और धार्मिक रूढ़िवादियों की अपेक्षा उदारपंथी, वैज्ञानिकों से अपने रुख़ में एक मायने में ज़्यादा दूर हैं। धार्मिक रूढ़ीवादी, वैज्ञानिकों की तरह, कम से कम जिन चीज़ों पर विश्वास करते हैं, उसके बारे में बतायेंगे कि ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि वही सत्य है, न कि इसलिए क्योंकि वह अच्छा है या ख़ुश करता है। लेकिन, बहुत सारे धार्मिक उदारपंथी यह सोचते हैं कि अलग-अलग लोग अलग-अलग परस्पर सम्बद्ध चीज़ों पर विश्वास कर सकते हैं, और उनमें से कोई भी गलत नहीं होता जब तक कि उनका विश्वास उनके काम आता है। एक पुनर्जन्म में विश्वास करता है तो दूसरा स्वर्ग और नरक में, तीसरा यह मान सकता है कि मृत्यु के बाद आत्मा समाप्त हो जाती है। लेकिन कोई भी तब तक गलत नहीं कहा जा सकता जब तक कि उन्हें इन विश्वासों में आध्यात्मिक संतोष की तेज़ धार मिलती है। सुसान सॉनटैग के मुहावरे में कहें- यह मुझे बर्ट्रेड रसेल के उस अनुभव की कहानी की याद दिलाता है, जब् १९१८ में युद्ध का विरोध करने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया था। जेल के नित्यकर्म के बाद जेलर ने रसेल से उनका धर्म पूछा। रसेल ने जवाब दिया कि वे अज्ञेयवादी हैं। कुछ क्षण के लिए जेलर भौंचक्का रह गया, फिर उसका चहरा खिला और वह बोल पड़ा- मेरा अनुमान है यह एकदम ठीक है। हम सभी एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं। क्या ऐसा नहीं है?

वुल्फगैंग पॉली से एक बार पूछा गया कि क्या वे सोचते हैं कि वह अमुक अत्यंत कुविचारित शोध-पत्र गलत था। उन्होंने जवाब दिया कि ऐसा वर्णन उसके लिए काफ़ी नर्म होगा। वह शोध-पत्र तो गलत भी नहीं था। मैं सोचता हूं कि रूढ़ीवादी जिस पर विश्वास करते हैं वह गलत है। लेकिन कम से कम, विश्वास करने का मतलब क्या है, वे यह तो नहीं भूले। धार्मिक उदारवादी तो मुझे गलत भी नहीं लगते।

हम प्रायः सुनते हैं कि धर्म के संबंध में धर्मतत्व शास्त्र उतना महत्वपूर्ण नहीं है- महत्वपूर्ण है कि यह हमें जीवन में कैसे मदद करता है। घोर आश्चर्य। ईश्वर का अस्तित्व और उसकी प्रकृति, दया और पाप तथा स्वर्ग और नरक महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा अंदाज़ है कि लोग अपने माने हुए धर्म के धर्मतत्वशास्त्र को इसलिए महत्वपूर्ण नहीं मानते क्योंकि वे ख़ुद यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वे किसी में विश्वास नहीं करते। लेकिन पूरे इतिहास के दौरान और आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लोगों ने एक् धर्मतत्वशास्त्र या दूसरे में विश्वास किया है और उनके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण रहा है।

धार्मिक उदारपंथ के बौद्धिक निस्तेज से कोई निराश हो सकता है, लेकिन यह रूढ़ीवादी कट्टर धर्म है जिसने क्षति पहुंचाई है। निस्संदेह इसके महान नैतिक और कलात्मक योगदान भी हैं। लेकिन मैं यहां यह तर्क नहीं करूंगा कि एक तरफ़ धर्म के इन अवदानों और दूसरी तरफ़ धर्मयुद्ध और ज़िहाद एवं धर्म परीक्षण और सामूहिक हत्या की लंबी निर्मम कहानी के बीच हमें किस प्रकार संतुलन बैठाना चाहिए। लेकिन इस बात पर मैं अवश्य जोर देना चाहूंगा कि इस तरह से संतुलन बैठाते हुए यह मान लेना सुरक्षित नहीं है कि धार्मिक अत्याचार और पवित्र धर्म युद्ध सच्चे धर्म के विकृत रूप हैं। मेरे विचार से यह धर्म के प्रति उस मनोभाव का दुष्परिणाम है, जिसमें गहरा आदर और ठोस निष्ठुरता का सम्मिश्रण है। दुनिया के महान धर्मों में से कई यह सिखाते हैं कि ईश्वर एक विशेष धार्मिक विश्वास रखने और पूजा के एक खास रूप को अपनाने का आदेश देता है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग जो इन शिक्षाओं को गंभीरता से लेते हैं वे किन्हीं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों जैसे सहिष्णुता, करुणा या तार्किकता की तुलना में इन दैनिक आदेशों को निष्ठापूर्वक सबसे ज़्यादा महत्व दें।

एशिया और अफ्रीका में धार्मिक उन्माद की काली ताकतें अपनी जड़ मजबूत करती जा रही है और पश्चिम के धर्मनिरपेक्ष राज्यों में भी तार्किकता और सहिष्णुता सुरक्षित नहीं है। इतिहासकार ह्यू ट्रेवर-रोपर ने कहा कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह विज्ञान के उत्साह का फैलाव ही था जिसने अंततोगत्वा यूरोप में डायनों का जलाना समाप्त कर दिया। हमें एक स्वस्थ दुनिया के संरक्षण के लिए फिर से विज्ञान के प्रभाव पर भरोसा करना होगा। वैज्ञानिक ज्ञान की निश्चितता नहीं बल्कि अनिश्चितता ही उसे इस भूमिका के लिए अनुकूल बनाती है। वैज्ञानिकों द्वारा पदार्थ के बारे में अपनी समझ, जिसका प्रत्यक्ष अध्ययन प्रयोगशाला में प्रयोगों द्वारा हो सकता है, बार-बार बदलते हुए देखने के बावज़ूद, धार्मिक परम्परा या पवित्र ग्रंथों द्वारा पदार्थ के उस ज्ञान, जो मानवीय अनुभव से परे है, के दावे को गंभीरता से कौन लेगा?

निश्चित रूप से, दुनिया की तकलीफ़ों को बढ़ाने में विज्ञान का भी अपना योगदान है। लेकिन सामान्य तौर पर विज्ञान एक दूसरे को मारने का साधन भर उपलब्ध कराता है, उद्देश्य नहीं। यहां विज्ञान के प्राधिकार का उपयोग आतंक को जायज ठहराने के लिए होता रहा है जैसे कि नाज़ी वंशवाद या सुजनन-विज्ञान ( ऎउगेन्-इच्स् ), वहां विज्ञान को भ्रष्ट किया गया है। कार्ल पॉपर ने कहा है-  यह एकदम स्पष्ट है कि तार्किकता नहीं बल्कि अतार्किकता, धर्मयुद्धों के पहले और बाद में, राष्ट्रीय शत्रुता और आक्रमण के लिए जिम्मेदार रही है। लेकिन कोई युद्ध वैज्ञानिक के लिए वैज्ञानिकों की पहल पर लड़ा गया हो, यह् मुझे नहीं मालूम।

दुर्भाग्यवश, मुझे नहीं लगता कि युक्तिसंगत दलील पेश करने से तार्किकता की वैज्ञानिक पद्धति को स्थापित करना संभव है। डेविड ह्यूम ने बहुत पहले बताया था कि सफल विज्ञान के पुराने अनुभवों के समर्थन में हम बहस की उस तर्क पद्धति की प्रामाणिकता मानकर चलते हैं जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रकार सभी तर्कपूर्ण बहसों को केवल तर्कपद्धति को अस्वीकार कर मात दिया जा सकता है। इसलिए. अगर हमें प्रकृति के नियमों में आध्यात्मिक सुख नहीं मिलता, तो भी हम इस प्रश्न से नहीं बच सकते हैं कि इसकी खोज अन्य जगहों पर एक या दूसरे प्रकार के आध्यात्मिक प्राधिकार में या धार्मिक विश्वास को स्वतंत्र रूप से बदल कर हम क्यों नहीं कर सकते?

विश्वास करना है या नहीं करना है, इसका निर्णय पूरी तरह हमारे हाथ में नहीं है। अगर मैं सोचूं कि यदि मैं चीन के बादशाह का उत्तराधिकारी होता तो मैं ज़्यादा सुखी और सभ्य होता, लेकिन मैं अपनी इच्छाशक्ति पर चाहे जितना जोर डालूं मुझे यह विश्वास नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह जैसे मेरे दिल की धड़कन को रोकने की चाहत ऐसा नहीं कर सकती। तब भी, ऐसा लगता है कि बहुत सारे लोग अपने विश्वास को थोड़ा नियंत्रित करते हैं और उन्हीं विश्वासों को चुनते हैं जो उन्हें लगता है कि उन्हें अच्छा और खुश रखेगा।

यह नियंत्रण कैसे कार्यान्वित होता है, इसका मेरी जानकारी में सबसे दिलचस्प वर्णन जार्ज ऑरवेल के उपन्यास १९८४ में मिलता है। नायक विन्सटन स्मिथ अपनी डायरी में लिखता है- दो धन दो चार होता है, यह कहने की छूट की मुक्ति है। धर्म परीक्षक ओब्रायन इसे एक चुनौति के रूप में लेता है और उसकी सोच को मजबूरन बदलने के लिए उपाय करता है। उत्पीड़न में स्मिथ यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार है कि दो धन दो पांच होता है, लेकिन ओब्रायन केवल यह नहीं चाहते थे। अंत में जब दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता है, तो उससे बचने के लिए स्मिथ अपने को आप को एक क्षण के लिए यह विश्वास दिलाता है कि दो धन दो पांच ही होते हैं। ओब्रायन उस क्षण संतुष्ट हो जाते हैं और उत्पीड़न रोक दिया जाता है। ठीक इसी प्रकार अपने और अपने चहेतों की संभावित मृत्यु से सामना होने का दर्द् हमें अपने विश्वासों में फेरबदल के लिए मजबूर करता है, ताकि हमारा दर्द कम हो जाए। पर सवाल उठता है कि अगर हम अपने विश्वासों में इस तरह से समझौता करने में सक्षम हैं, तो ऐसा क्यों ना किया जाए?

मुझे इसके खिलाफ़ कोई वैज्ञानिक या तार्किक कारण नहीं दिखलाई पड़ता कि हम अपने विश्वासों में समझौता करके- नैतिकता और मर्यादा के लिए, कुछ सांत्वना हासिल क्यों ना करें! हम उसका क्या करें जिसने खुद को यह विश्वास दिला दिया हो कि उसे तो एक लॉटरी मिलनी ही है क्योंकि उसे रुपयों की बहुत-बहुत जरूरत है? कुछ लोग भले उसके क्षणिक विशाल ख्वाब से ईर्ष्या रखते हों पर ज़्यादातर लोग यह सोचेंगे कि वह एक वयस्क और तार्किक मनुष्य की सही भूमिका में, चीज़ों को वास्तविकता की कसौटी पर देख पाने में, असफल है। जिस प्रकार उम्र के साथ बढ़ते हुए, हम सभी को यह सीखना पड़ता है कि लॉटरी जैसी साधारण चीज़ों के बारे में ख्वाबपूर्ण सोच के लोभ से कैसे बचा जाए, ठीक उसी प्रकार हमारी प्रजाति को उम्र के साथ बढ़ते हुए यह सीखना पड़ेगा कि हम किसी प्रकार के विराट ब्रह्मांड़ीय नाटक में किसी हीरो की भूमिका में नहीं हैं।

फिर भी, मैं एक मिनट के लिए भी यह नहीं सोचता कि मृत्यु का सामना करने के लिए धर्म जो सांत्वना देता है, विज्ञान वह उपलब्ध कराएगा। इस अस्तित्ववादी चुनौति का मेरी जानकारी में सबसे बढ़िया विवरण ७०० ईस्वी के आसपास पूज्य बेडे द्वारा रचित पुस्तक् द इक्लेजियास्टिक हिस्ट्री ऑफ द इंग्लिश ( अंग्रेजों का गिरजा-संबंधी इतिहास ) में है। बेडे ने लिखा है कि नॉर्थम्ब्रीया के राजा एडविन ने ६२७ ईस्वी में यह तय करने के लिए कि उनके राज्य में कौनसा धर्म स्वीकारा जाए, एक परिषद की बैठक बुलाई, जिसमें राजा के प्रमुख दरबारियों में से एक ने निम्नलिखित भाषण दिया:
 
   " हे महाराज! जब हम पृथ्वी पर मनुष्य के आज के जीवन की तुलना उस समय से करते हैं जिसकी कोई जानकारी हमारे पास नहीं है, तो हमें लगता है जैसे एक अकेली मैना, शाही-दावत वाले हॉल में द्रुत उड़ान भर रही हो, जहां आप किसी जाड़े की रात में अपने नवाबों और दरबारियों के साथ दावत में बैठे हों। ठीक बीच में, हॉल में आनन्दमयी गर्मी प्रदान करने के लिए आग जल रही हो और बाहर जाड़े की तूफ़ानी बारिश या बर्फ का प्रकोप हो। मैना हॉल के एक दरवाज़े से होते हुए दूसरे दरवाज़े तक द्रुत उड़ान भर रही है। जब तक वह अंदर है, बर्फीले तूफ़ान से सुरक्षित है। लेकिन कुछ क्षणों के आराम के बाद, वह उसी कड़ाके की ठंड़ वाली दुनिया में, जहां से वह आई थी, हमारी दृष्टि से ओझल हो जाती है। इसी तरह, आदमी थोड़े समय के लिए पृथ्वी पर दिखता है। इस जीवन के पहले क्या हुआ और बाद में क्या होगा, इसके बारे में हम कुछ नहीं जानते।"

बेडे और एडविन की तरह इस विश्वास से बच पाना मुश्किल है कि उस दावत वाले हॉल के बाहर हम लोगों के लिए कुछ अवश्य होगा। इस ख्याल को तिलांजलि देने का साहस ही उस धार्मिक सांत्वना का छोटा सा विकल्प है और यह भी संतुष्टि से विहीन नहीं है।

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स्टीवन वाइनबर्ग का यह संपूर्ण आलेख एक साथ यहां से डाउनलोड़ किया जा सकता है:
और तब ईश्वर का क्या हुआ? - स्टीवन वाइनबर्ग

सोमवार, 17 सितंबर 2012


हिन्दी दिवस पर विशेष 







          हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में समादृत होने का सफर आज भी अधूरा है


                                        (नारायण कालेज,शिकोहाबाद में हिन्दी-दिवस मनाया गया) 

मुख्य अतिथि का सम्मान करते प्राचार्य  

    ‘ दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक हिंदी भारत की राजभाषा बनकर भी अभी वह मुकाम हासिल नहीं कर पाई है जिसकी वह हकदार है।देश की सम्पर्क भाषा के रूप में अंगीकार किए जाने के बावजूद राष्ट्रभाषा के रूप में समादृत होने का इसका सफर आज भी अधूरा है।’डा० रामसनेही लाल शर्मा ने हिन्दी दिवस के अवसर पर यह पीड़ा, नारायण कालेज,शिकोहाबाद के हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित हिन्दी-दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए ब्यक्त की। इसके पूर्व उनका सम्मान एक सह्र्दय हिन्दी सेवी के रूप में किया गया।

   इस अवसर पर प्राचार्य डा० आर० के० पालीवाल ने कहा कि ‘हम हिन्दी की बात कर रहे हैं। उसको अपनाए जाने की बात कर रहे हैं। पर हिन्दी दिवस मनाते ही क्यों हैं, हिन्दी तो मातृभाषा है, उसका कोई जन्म दिवस कैसे हो सकता है। पर हमारे यहां है, जिस धरती की वह भाषा है, जहां उसका विकास, उद्भव हुआ, वहां उसका दिवस है। और दिवस भी यों नहीं बल्कि वह दिन याद कराता है कि हिन्दी को उसका दर्जा देने के लिए देश की संविधान सभा में जम कर बहस हुई। हिन्दी के पक्षधर भी हिन्दी में नहीं बल्कि अंग्रेजी में बोले।’

   हिन्दी विभागाध्यक्ष डा० अखिलेश श्रोत्रिय ने कहा कि ‘संवैधानिक स्थिति के आधार पर तो आज भी भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेज़ी सह भाषा है, लेकिन वास्तविकता क्या है यह किसी से छुपी नहीं है।कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना चाहिए।’

 डा० महेश आलोक  बोलते हुए

   युवा कवि-समीक्षक और विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर डा० महेश आलोक ने कहा ‘जब संविधान पारित हुआ तब यह आशा जागी थी कि राजभाषा हिंदी के प्रयोग में तेजी से प्रगति होगी और सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित होगी। लेकिन बाद के वर्षो में संविधान के संकल्पों का निष्कर्ष शायद कहीं खो गया। सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी की शक्ति, क्षमता और सामर्थ्य अकाट्य और अदम्य है लेकिन सवाल यह है कि संविधान के सपने को साकार करने के लिए हमने क्या किया? हम अंग्रेजी पढ़ें, सीखें अवश्य मगर उसे अपने दिलो-दिमाग पर राज करने से रोकें, तभी हिंदी आगे बढ़ेगी और राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त की यह घोषणा साकार होगी -
“है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।”

   विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर डा० अनुपमा चतुर्वेदी ने कहा ‘ सच तो यह है कि आज भी गुलामी की मानसिकता हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। आज हम अंग्रेजों के नहीं, लेकिन अंग्रेजों के गुलाम जरूर हैं। यही वजह है कि काफी कुछ सरकारी और लगभग पूरा गैर सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है। दुकानों व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के साइनबोर्ड तथा होटलों, रेस्टोरेंटों के मेनू अंग्रेजी में ही होते हैं। इसी तरह ज्यादातर नियम-कानून की किताबें अंग्रेजी में होती हैं।’

   इस अवसर पर कालेज के सभी संकायों के छात्र और छात्राएं भारी संख्या में उपस्थित थे। विभागीय सहयोगियों में डा० हेमलता सुमन, डा० रेखा जैन, डा०एस० डी० सिंह, डा० विनीता कटियार, डा० साज़िया, डा०वी०के०सक्सेना,डा० रवि विनवाल तथा शिक्षणेत्तर कर्मचारी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन डा० महेश आलोक एवं धन्यवाद ज्ञापन डा० रेखा जैन ने किया।



गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हिन्दी दिवस १४ सितंबर पर विशेष

                       

                 हिन्दी भारतवर्ष की संस्कृति का प्राण है-  किरण बजाज


    हिन्दी केवल भाषा नहीं है, हिन्दी भारतवर्ष की संस्कृति का प्राण है । हिन्दी भाषा ऐसा सूत्र है जो भारत के जन-जन के हृदय-पुष्प को माला की तरह पिरो कर एक कर देता है । हिन्दी में सम्पूर्ण विश्व में रचे-बसे भारतीयों को जोड़ने की अद्भुत क्षमता है ।  

शब्दम्‌ अध्यक्ष किरण बजाज बोलते हुए

   हिन्दी में मौलिक चिंतन, लेखन, सम्प्रेषणीयता, साहित्य, तकनीकी ,वित्त-व्यवसाय, कला, खेल, मनोरंजन, राजनीति और इलेक्ट्रानिक एवं प्रिंट मीडिया में अपने विचार स्पष्ट रखने की अनुपम शक्ति है । साथ ही अध्यात्म ,प्रेम एवं शांति स्थापित करने की अनुपम निधि ।

    सूर्य पर बादल की काली टुकड़़ी आ जाय और चमकते हुए हीरे पर धूल चढ़ जाए तो इसका मतलब यह नही होता कि सूर्य में प्रकाश नहीं है और हीरे में चमक नहीं। उसी तरह आज हमारी हिन्दी के विकास-पुंज पर भ्रष्टाचार एवं मानसिक हीनता की कालिख छाई हुई है । हमें यह चाहिए कि किस तरह से इस तेजस्विनी, गरिमामयी हिन्दी का पूर्ण गौरव और तेज जन -जन के हृदय में मुखरित हो ।

    मेरे कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि हिन्दुस्तान की अन्य भाषाओं और बोलियों को तनिक भी कम महत्व दिया जाय।  हिन्दी समुद्र है ,उसमें सब नदियाँ मिलती हैं । सागर तो तब भरेगा जब सब नदियाँ भरी हुई हों । इसी तरह हिन्दी तो तब बढ़ेगी जब सब भारतीय भाषाएं समृद्ध हों । 

   विषाद का विषय है कि बहुसंख्य भारतीयों के हृदय एवं मन में एक खतरनाक रोग लग गया है वह यह है हिन्दी के प्रति हीन भावना एवं अंग्रेजी के प्रति उच्चतर भावना । अंग्रेजी सीखना और प्रयोग करना गलत नहीं है पर जो भारतीय मानसिकता में  अंग्रेजी व अंग्रेजियत ने सफलतापूर्वक कब्जा जमा लिया है वह भयावह है और संस्कृति को भयंकर हानि पहुँचाने वाला ।  

    इस आपातकाल परिस्थिति में यह अत्यन्त जरुरी है कि शीघ्रातिशीघ्र नई पीढ़ी को इस हीन मानसिकता के रोग से मुक्त कराया जाय और हिन्दी के प्रति सर्वप्रथम प्रेम  और अच्छी सोच पैदा की जाय । इसका प्रमुख दायित्व सरकार ,प्रत्येक शिक्षक ,संस्था और देशप्रेमी पर है ।

 

  

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

आलोचक एक दुभाषिए की तरह है- प्रो० नामवर सिंह




                        आलोचक एक दुभाषिए की तरह है-   प्रो० नामवर सिंह  

                       ‘शब्दम् ’ ने किया एक आदर्श एवं महान शिक्षक के रूप में हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष 
                                                              नामवर सिंह का  सम्मान  
नामवर जी  “समालोचक की सामाजिक -सांस्कृतिक भूमिका “ विषय पर बोलते हुए, मंच पर  प्रोफेसर नन्दलाल पाठक,  उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष , प्रतिष्ठित कवि एवं पूर्व सांसद उदयप्रताप सिंह,  ‘शब्दम्’ अध्यक्ष  किरण बजाज           
  
नामवर जी  बोलते हुए

    ‘ आलोचक एक दुभाषिए की तरह है । उसका काम रचना को उस` वेवलेंथ ' तक ले जाकर पाठक से जोडना है जहां रचनाकार पहुंचना चाहता है या जिस ‘ वेवलेथ ' तक जाकर रचनाकार ने सोच और संवेदना के स्तर पर अपनी सर्जनात्मकता को अभिव्यक्त किया है। इसके बाद आलोचक की भूमिका समाप्त हो जाती है । नामवर जी ने “समालोचक की सामाजिक -सांस्कृतिक भूमिका “ विषय पर  साहित्य-संगीत -कला को समर्पित संस्था  ` शब्दम् '  की ओर से `शिक्षक दिवस' पर हिन्द लैम्पस, शिकोहाबाद स्थित संस्कृति भवन  सभागार में  व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए उक्त विचार ब्यक्त किये। साहित्य में कविता की महत्ता को रेखांकित करते हुए नामवर जी ने  उसकी रसात्मक भूमिका की ओर संकेत किया । उन्होने कहा कि लोग मुझे अज्ञेय का विरोधी मानते हैं, ऐसा नही है। `अज्ञेय' की कविता ‘असाध्य वीणा’ बड़ी कविता है । नामवर जी ने ‘असाध्य वीणा’ का पाठ करते हुए उसके ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित किया। उन्होने कहा कि आलोचक जब तक सह्र्दय नहीं होगा, आलोचना संभव नही है। 
 नामवर जी को  सम्मान पत्र  देकर  सम्मानित  करतीं
‘शब्दम्’ अध्यक्ष  किरण बजाज,  सलाहकार मंडल के सदस्य-  डा० ओ पी सिंह  
डा० महेश आलोक ,   मंजर-उल-वासे     
 
    इसके पूर्व नामवर जी को पहली बार एक आदर्श और महान शिक्षक के रूप में ‘शब्दम्’ की ओर से सम्मानित किया गया। सम्मान में ‘हरित कलश, नारियल,अंगवस्त्रम्‌,शाल,सम्मान पत्र एवं रू० ५१०००/ की सम्मान राशि देकर ‘शब्दम्’ अध्यक्ष  किरण बजाज,  नन्दलाल पाठक, उदयप्रताप  सिह एवं  शब्दम् सलाहकार मंडल के सदस्यों ने सम्मानित किया। नन्दलाल पाठक एवं उदयप्रताप सिंह को भी किरण बजाज एवं सलाहकार मंडल के सदस्यो ने “हरित कलश , शाल एवं नारियल” भेंट कर सम्मानित किया । सम्मान के समय पार्श्व में सुमधुर मंगल गीत “शुभ मंगल हो , शुभ मंगल हो, शुभ मंगल- मंगल- मंगल हो ” का गायन पूरे वातावरण की गरिमा और भब्यता को एक नये रूप में परिभाषित कर रहा था। 
 स्वागत वक्तव्य में  ‘शब्दम्’ अध्यक्ष  किरण बजाज  नामवर सिंह  के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए  
   अपने स्वागत वक्तव्य में  ‘शब्दम्’ अध्यक्ष  किरण बजाज ने नामवर सिंह के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि “नामवर सिंह को सम्मानित कर ‘शब्दम्’  स्वयं सम्मानित हुई है । नामवर जी इस समय ‘महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय. वर्धा ’ के ‘कुलाधिपति’ हैं और वर्धा मेरा घर है, इसलिये आज मै बहुत आत्मीय महसूस कर रही हूँ । ” 
प्रोफेसर नन्दलाल पाठक  अतीत की मधुर स्मृतियो
 का स्मरण करते हुए 
   मुम्बई से पधारे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी  में नामवर सिंह के सहपाठी रहे मुम्बई विश्वविद्यालय के निवर्तमान हिन्दी प्रोफेसर नन्दलाल पाठक ने इस अवसर पर अपने अतीत की मधुर स्मृतियो का स्मरण किया ।  प्रो० पाठक 

ने शिक्षक दिवस पर गुरु -शिष्य सम्बन्धों का 
उल्लेख करते हुए कहा कि “जैसे रामकृष्ण परमहंस को विवेकानन्द मिले  वैसे ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी  को नामवर । “ 
 उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष ,
प्रतिष्ठित कवि एवं पूर्व सांसद उदयप्रताप सिंह

अध्यक्षीय
 वक्तव्य देते  हुए 
     कार्यक्रम की अध्यक्षता  कर रहे उ.प्र. हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष , प्रतिष्ठित कवि एवं पूर्व सांसद उदयप्रताप सिंह ने कहा कि  नामवर जी 

को सुनना इसलिए एक अद्वितीय अनुभव है  क्योंकि वे हर बार अपने आलोचकीय वक्तव्य में कुछ ऐसा नया जोड़ देते है जो इसके पहले नहीं सुना गया।
 प्रो० नामवर सिंह का परिचय देते हुए पालीवाल महाविद्यालय, शिकोहाबाद के प्राचार्य एवं ‘शब्दम्’   सलाहकार मंडल के सदस्य डा० ओ पी सिंह ने कहा कि “किसी भी महान व्यक्तित्व के निर्माण के लिए माता -पिता से मिले संस्कार , स्कूली शिक्षा के दौरान अच्छे शिक्षक एवं सहपाठी तथा स्वयं की इच्छा-शक्ति एवं विश्वास का होना अतिआवश्यक है और यह संयोग की बात हे कि नामवर जी को यह सब चीजें प्राप्त है। ” उन्होने उनके बचपन के दिनों की याद ताजा की । 
प्रो० नामवर सिंह का परिचय देते हुए
‘शब्दम्’   सलाहकार मंडल के सदस्य डा० ओ पी सिंह
  नारायण महाविद्यालय, शिकोहाबाद मे हिन्दी के एसोशिएट प्रोफेसर , ‘शब्दम्’   सलाहकार मंडल के सदस्य,युवा कवि-समीक्षक  एवं नामवर जी के शिष्य  डा० महेश आलोक ने ‘शब्दम्’   का परिचय प्रस्तुत किया। । उन्होने नामवर जी के बारे में छात्र- जीवन ( जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नयी दिल्ली में अध्ययन करते समय) का संस्मरण सुनाते हुए कहा कि “ नामवर जी अपने छात्रो के भीतर अपने से बड़े आलोचको से टकराने का साहस पैदा करते हैं ।छात्रो को समझाते  है कि “अविवेकपूर्ण सहमति से विवेकपूर्ण असहमति अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।महेश आलोक ने जोर देकर कहा कि “आचार्य शुक्ल के पश्चात नामवर जी अकेले ऐसे आलोचक हैं, जिनसे जुड़ना और टकराना- दोनो हिन्दी आलोचना के विकास के लिये आवश्यक है। ” 
‘शब्दम्’   सलाहकार मंडल के सदस्य, डा० महेश आलोक छात्र- जीवन ( जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नयी दिल्ली में अध्ययन करते समय) का संस्मरण सुनाते हुए 
समारोह में डा० भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय,आगरा के कुलपति
 प्रो० डी एन जौहर,उद्योगपति  बालकृष्ण गुप्त, उ०प्र०लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीराम आर्या एवं प्रबुद्ध श्रोतागण 
     समारोह में डा० भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय,आगरा के कुलपति प्रो० डी एन जौहर,उ०प्र०लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीराम आर्या ,  आगरा कालेज,आगरा के प्राचार्य डा० मनोज रावत,आर० बी० एस० कालेज, आगरा के प्राचार्य डा० टी आर चैहान,के० के० कालेज, इटावा के प्राचार्य डा० मौकम सिह यादव,  जे० एल० एन० कालेज, एटा के प्राचार्य डा० उदयवीर सिह,  एस० आर०के ०  कालेज, फिरोजाबाद के प्राचार्य  डा०  बी०  के० अग्रवाल , बी०डी० एम० कालेज, शिकोहाबाद की प्राचार्या डा० कान्ता  श्रीवास्तव,महात्मा गांधी महिला महाविद्यालय,  फिरोजाबाद की प्राचार्या डा० निर्मला यादव  सहित आगरा,  इटावा, मैनपुरी, एटा, फिरोजाबाद,  शिकोहाबाद के विभिन्न कालेजो के हिन्दी के  विभागाध्यक्ष एवं प्राध्यापकगण ,चक्रेश जैन, उद्योगपति  बालकृष्ण गुप्त  एवं शब्दम सलाहकार मंडल के सदस्य उमाशंकर शर्मा,  मंजर-उल-वासे,  नवोदय विद्यालय की प्राचार्या डा० सुमनलता द्विवेदी सहित प्रबुद्ध श्रोता उपस्थित थे । समारोह का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डा० ध्रुवेन्द्र भदौरिया ने किया।