अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

सोमवार, 14 मार्च 2011

यहां बहुत गड़बड़ है - महेश आलोक

यह कविता कब लिखी थी, स्मृति में नहीं है। आज अचानक  पुरानी डायरी में एक ड्राफ़्ट में लिखी हुयी प्रकट हो गयी। मैने इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया है- आपके सामने है।
                                                                                                    - महेश आलोक

यहां बहुत गड़बड़ है  
                  
                                                                                                              - महेश आलोक

 बहुत गड़बड़ है। यहां बहुत गड़बड़ है

 संसद की अंतिम मंजिल से कोई प्रधानमंत्री किसी मोटे सपने में
 कूदता है और हवाओं में त्रिशूलों का उड़ना  किसी  सांस्कृतिक
 उत्सव में तब्दील हो उठता है। कोई तानाशाह हंसता है या रोता   
 है कोई मृत्यु किसी दक्षिणी ध्रुव पर भरतनाट्यम् का अभ्यास
 करने लगती है

 बहुत गड़बड़ है                   
         
चंद्रमा के ठंढा या गरम होने से कत्तई फर्क नहीं पड़ता किसी पर
यहां दायें हाथ की अनामिका बायें की मध्यमा से इस तरह नफरत
करती है कि उसकी सांसों को सुनना दो खिड़कियो से एक साथ
झांकना है

आंसुओं के चरित्र से आंखों की नसों में उतरना
सूरज की नसों में उतरना है
  
क्या गड़बड़झाला है कि रोशनी की प्रगतिशीलता तक संदिग्ध है
वह उन मारे गये सैनिकों पर उतरने से परहेज करती है
जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है
   
यहां तूफान की आत्मा में सन्नाटा तमाशा देखता है
किसी मस्तक में छायी कोई घनीभूत पीड़ा इतनी हास्यास्पद
हो जाती है कि संसद की अंतिम ईंट तक
प्रसन्न हो उठती है

मित्रों! बहुत गड़बड़ है। किससे कहूं कि इस समय ईश्वर
कविता में बांसुरी बजा रहा है

      
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1 टिप्पणियाँ:

रचना सिंह,दिल्ली ने कहा…

समकालीन सच्चाइयों को उभारती जीवंत कविता। पुरानी डायरी से कुछ और निकालें आलोक जी।बधाई!

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