अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 16 नवंबर 2011

‘ठेठ हिन्दी गीति परंपरा’ के गीतकार नन्दलाल पाठक -- महेश आलोक

                  समर्थ कवि,चिन्तक प्रो०नन्दलाल पाठक का जन्म ३जुलाई १९२९ को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के औरिहार नामक कस्बे में हुआ।  जीवन के बयासी बसन्त देख चुके प्रो० पाठक पेशे से हिन्दी के प्राध्यापक रहे हैं। आप अध्यक्ष- हिन्दी विभाग, सोफाया महाविद्यालय,मुम्बई तथा मुम्बई विश्वविद्यालय,मुम्बई से हिन्दी के स्नातकोत्तर प्राध्यापक के पद से १९८९ में सेवानिवृत्त होकर भी रचनाकार के रूप में चिर युवा हैं। समकालीन हिन्दी कविता के बड़े कवि केदारनाथ सिंह ने एक बार कहा था कि रचनाकार कभी सेवानिवृत्त नहीं होता, रचना प्रक्रिया,विचार और संवेदना के स्तर पर और परिपक्व होता है। पाठक जी के नए कविता संग्रह " फिर हरी होगी धरा " की कविताओं से गुजरते हुए केदार जी द्वारा कही गयी बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है।
       प्रो० पाठक  के अब तक तीन कविता संग्रह -"धूप की छांह" (१९७५),"जहां पतझर नहीं होता" (१९९९) तथा "फिर हरी होगी धरा "(२००९)"प्रकाशित हो चुके हैं। इन संग्रहों की व्यापक चर्चा भी हुयी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ठेठ गीति काव्य परंपरा में डा० शंभूनाथ सिंह के पश्चात जो कुछ नाम अंगुली पर गिनाए जा सकते हैं ( जैसे वीरेन्द्र मिश्र, गोपालदास नीरज,सोम ठाकुर, उदयप्रताप सिंह आदि), उनमें एक ओजस्वी और प्रखर कड़ी के रूप में नन्दलाल पाठक आज भी पूरी रचनात्मक मूल्यनिष्ठा के साथ सक्रिय हैं।
        हिन्दी गज़ल आपकी प्रिय विधा है। दुष्यन्त कुमार के पश्चात हिन्दी गज़ल में अनेक प्रयोग हुए हैं। डा० शेरजंग गर्ग,बलवीर सिंह ‘रंग’, डा० कुंवर बेचैन, डा० उर्मिलेश, अदम गोंडवी, चन्द्रसेन विराट आदि रचनाकारों ने निश्चय ही हिन्दी गज़ल को एक नया रचनात्मक तेवर दिया है, लेकिन नन्दलाल पाठक अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होने हिन्दी गज़ल को "हिन्दी गीति काव्य" का महत्वपूर्ण अंग माना है और इस अर्थ में हिन्दी गज़ल   से उनका रिश्ता ‘ठेठ हिन्दी की गीति परंपरा’ से जुड़कर बिल्कुल नया हो जाता है।
       प्रो०नन्दलाल पाठक भारतीय दर्शन के मर्मज्ञ पाठक हैं, विद्वान हैं। आपने ‘भगवद्‌गीता’ की आधुनिक दृष्टि से व्याख्या की है।सन्‌ २००५ में प्रकाशित आपकी बहुचर्चित भाष्य कृति ‘‘भगवद्‌गीता-आधुनिक दृष्टि ’ इस अर्थ में उल्लेखनीय है कि इसमें गीता की समकालीन प्रासंगिकता को सार्थक जीवन मूल्यों की दृष्टि के आलोक में , भाष्य की पारंपरिक अवधारणा बरकरार रखते हुए ,उसी शिल्प में पुनर्व्याख्यायित किया गया है। निश्चय ही ‘गीता भाष्य’ की परंपरा में यह कृति ‘मील का पत्थर’ है।
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