अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

सबसे अच्छी ज्ञान की भाषा तो वह है जिसे हम ठीक से बोल,समझ,लिख सकते हैं- नवीन लोहनी

 वे मूर्ख हैं जो किसी भाषा विशेष को ही ज्ञान की भाषा बताते हैं, सबसे अच्छी ज्ञान की भाषा तो वह है जिसे हम ठीक से बोल,समझ,लिख सकते हैं, कंप्यूटर ने इस मामले में सब भाषाओँ को बराबरी पर ला दिया है
भारत में कितने प्रतिशत लोग अंगरेजी जानते हैं कोई 2 या तीन प्रतिशत, मैं भी भारत के एन.सी. आर. क्षेत्र में 21 वर्षों से रह रहा हूँ, और देखता हूं कि पास के ही गाँव देहात में पला और उन्हीं इलाकों में जीवन बसर कर रहा आदमी में हिंदी नहीं जानता, या मेरी हिंदी अच्छी नहीं है कहकर शर्म अनुभव नहीं करता बल्कि सोचता है कि वह कुछ बड़ी बात कह गया है, और जब वह गंवारू सी अंगरेजी बोल रहा होता है और उच्चारण भी भ्रष्ट होता है, तो भी यह सोचकर खुश हो लेता है कि ख़राब ही सही अंगरेजी तो बोल रहा हूं , सब्जी वाले , रिक्से वाले या गाँव से आए हुए नए विद्यार्थी या युवक पर तो असर पड़ रहा है , उच्च शिक्षा में तो इस प्रकार की तोता रटंत वाले बहुत हैं, जो किसी की भी ख़राब कुंजी को क्लास में उगल आते हैं और सोचते हैं कि भारी तीर मार दिया है .
वह ज्ञान ही क्या जो अपनी भाषा तक में नहीं दोहराया जा सके, पर समझे बगैर उगलना हो तो रटा हुआ उगलना आसान है . अपनी रटंत और नकल को दूसरों के सामने सुना देने के अलावा इंग्लीश कितने लोगों के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा है? यह बहुत बड़ा सवाल है.
सवाल अँग्रेज़ी के विरोध का नहीं है, आप दुनिया की तमाम भाषाएँ सीखें किसे विरोध है . पर अपने देश के बाहर यह सीन नहीं है, लोग अपनी भाषा से भी लगाव रखते है, और उसे हर हाल में अपने देश में शिक्षा और रोज़गार की भाषा बनाए रखना चाहते हैं, और मामलों में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं, पर इस मामले में नहीं . हम इस मामले में अच्छे नकलची भी नहीं हैं .

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