अयोध्या एक बार फिर चर्चा में है।अदालत का फैसला आना अभी बाकी है।और देश एक बार फिर अतिवादियों के हाथ में जाने को तैयार है।हालांकि जनता अब समझदार हो गयी है,ऎसा हम मानते हैं। लेकिन फासिस्ट ताकतें अब भी उसे तोड़ने पर आमादा हैं।ख़तरा पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया है।इस कठिन समय में मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आ रही है-‘किसी दिन पत्थरों की सभा होगी’।यह कविता मेरे पहले संग्रह ‘चलो कुछ खेल जैसा खेलें’ में संग्रहीत है।मुझे लगता है, इस कविता की प्रासंगिकता एक बार फिर बढ़ गयी है। पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं।
- महेश आलोक
- महेश आलोक
किसी दिन पत्थरों की सभा होगी
किसी दिन पत्थरों की सभा होगी
और वे किसी भी पूजा घर में बैठने से
इन्कार कर देंगे
वे उठेंगे और प्राण प्रतिष्ठा के तमाम मंत्र भाग जाएंगे कंदराओं में
वह पूरा दृश्य देखने लायक होगा जब मंत्रों के चीखने-चिल्लाने याकि
मित्र-मंत्रों के घातक प्रयोगों की धमकी का असर
उन पर नहीं होगा
वे अपनी सरकार से मांग करेंगे कि उस दिन को
राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाय
वे दुनिया भर की मूर्तियों को पत्र लिखेंगे कि
अगर सुरक्षित रहना है तो लौट जाएं कलाकारों के
आदिम मन में
और वह हमारे लिए कितना शर्मनाक दिन होगा जब
मलबे से तमाम पत्थर जुलूस की तरह निकलेंगे
और बरस पड़ेंगे ईश्वर पर
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किसी दिन पत्थरों की सभा होगी
और वे किसी भी पूजा घर में बैठने से
इन्कार कर देंगे
वे उठेंगे और प्राण प्रतिष्ठा के तमाम मंत्र भाग जाएंगे कंदराओं में
वह पूरा दृश्य देखने लायक होगा जब मंत्रों के चीखने-चिल्लाने याकि
मित्र-मंत्रों के घातक प्रयोगों की धमकी का असर
उन पर नहीं होगा
वे अपनी सरकार से मांग करेंगे कि उस दिन को
राष्ट्रीय पर्व घोषित किया जाय
वे दुनिया भर की मूर्तियों को पत्र लिखेंगे कि
अगर सुरक्षित रहना है तो लौट जाएं कलाकारों के
आदिम मन में
और वह हमारे लिए कितना शर्मनाक दिन होगा जब
मलबे से तमाम पत्थर जुलूस की तरह निकलेंगे
और बरस पड़ेंगे ईश्वर पर
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2 टिप्पणियाँ:
mahesh ji yah aapaki kaljayi kavita hai aur aaj bahut prasngig bhi patthar dharmandhon par barsenge ishwar par nahi
आपकी कविता अच्छी लगी। अयॊध्या पर समग्रता से सोचने की जरूरत है।
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