अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

उस दिन तक चाहिये आग

पूर्व प्रकाशित कविता
उस दिन तक चाहिये आग



लोहार के आँफर१ सी धधकती
तेरी छाती
अभी हो भी क्यों ठण्डी।
अभी, जबकि तुम्हारा
द्रोपदी की तरह होता हो चीरहरण सरे आम
और सीता की तरह
फिर गुजरना पड़ता हो अग्नि परीक्षा से।


तुझे तो अभी सजानी हैं
कुदाल ओर दराँती की
पूरी की पूरी जमात
और खोद, कूट, पीट, काट-छाँट कर
बसाना है एक नया संसार।

जहाँ भडुएं२ में खदबदाती दाल-सी
तेरी आत्मा फिर चाहती हो शान्ति।

तू रच बस सके पूरी तरह
उगा सके अपनी पसन्द के फूल-फल
बीन सके काँटे और खरपतवार।

वहाँ,
वहाँ तक है तेरी यात्रा
जहाँ तू पूरी तरह हो सकेगी
अपने आप में पूर्ण
तब,
तब तक तो बरकरार रखनी है यह आग


जो माँग सके हिसाब इन सब से
जो कहीं राम हैं, कहीं कृष्ण
कहीं कंस और कहीं रावण।



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१-आँफर ;भट्टी

२ भडुआ भड्डू ;एक बर्तन


प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी

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