अभी हाल ही में ( 19,20 और 21 अक्तूबर ) इटावा के कर्मक्षेत्र महाविद्यालय में ‘भारतीय लोकतंत्र और हिन्दी साहित्य’ विषय पर एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन हुआ। कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक पर भारतीय लोकतंत्र के प्रभाव-कुप्रभाव की खुलकर चर्चा हुई।डा०रमेशकुन्तल मेघ, डा०रविभूषण, डा०हेतु भारद्वाज, डा०वेदप्रकाश अमिताभ, डा०वीरेन्द्र यादव, डा०अजय तिवारी, डा०सूर्यप्रकाश दीक्षित, डा०चौथीराम यादव, डा०सत्यकाम, डा०अश्वनी पाराशर, डा०जितेन्द्र रघुवंशी, डा०महेश आलोक डा०रवि श्रीवास्तव,डा० पंकज चतुर्वेदी,डा०मंजुल उपाध्याय,संयोजिका डा०पुष्पलता श्रीवास्तव आदि ने विचारोत्तेजक बहसों के माध्यम से लोकतंत्र की मूल अवधारणा की ब्याख्या करते हुए साहित्य की मूल संवेदना पर उसके प्रभाव और रचना प्रक्रिया से गहरे स्तर पर जुड़ाव की चर्चा की।हालांकि कुछ सरलीकृत स्टेट्मेंट्स भी आए जैसे ‘भारतीय लोकतंत्र बीमार और भ्रष्ट हो गया है’।हमेशा से दुहराया जाने वाला वाक्य कि‘ भारतीय लोकतंत्र को जनसमस्याओं से कोई मतलब नहीं है।मूल्यों में गिरावट आई है।लोक चिन्ताएं खत्म हो गयी हैं आदि। लेकिन इसके साथ ही यह निष्कर्ष भी निकल कर सामने आया कि साहित्य ने ही मूल्यों को सुरक्षित रखा है और लोकतंत्र की मूल अवधारणा को बचाए रखने का, समाज को संस्कारित करने का, भ्रष्ट समाज चूंकि भ्रष्ट चिंतन पैदा करता है इसलिए प्रगतिशील विचारों को अनुभव और संस्कारों में सत्य की पहचान के साथ रूपान्तरित करने का जटिल एवं सार्थक कार्य साहित्य के माध्यम से ही सम्भव है।बिना प्रतिरोध और असहमति के लोकतंत्र का विकास संभव नहीं है। बुद्धिजीवी चुप रहेंगे तो सत्ता बहरी और निरंकुश हो जायेगी। वास्तव में लोकतंत्र की रक्षा जीवन की रक्षा है और यह कार्य साहित्यकारों को पूरी जिम्मेदारी और इमानदारी के साथ करना होगा।
प्रेमचन्द ने इसीलिए कहा था कि ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’।
सेमीनार में उपस्थित सभी साहित्यकार,महाविद्यालय के प्रबन्धक,प्राचार्य तथा अन्य शिक्षकगण |
मेरा आलेख(शोध- पत्र) नाटक के संदर्भ में था,जिसका शीर्षक था ‘ भारतीय लोकतंत्र, नाटक और नाट्य-आलोचना-कुछ नोट्स’। मैं वह पूरा आलेख यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
-महेश आलोक
भारतीय लोकतंत्र, नाटक और नाट्य-आलोचना-कुछ नोट्स
-महेश आलोक
-महेश आलोक
नाट्य-साहित्य ने लोकतंत्र के उस समाजवादी गणराज्य की कल्पना को जीवित रखा है, जिसमें ‘विचार की स्वतत्रंता हो और व्यक्ति की गरिमा का सुनिश्चय।’ भारतीय संविधान की स्थापना से बहुत पहले ‘भारतेन्दु’ से लेकर ‘प्रसाद’ तक के नाटकों में इस मूल्य-व्यवस्था को बखूबी चरितार्थ किया गया है। तो क्या साहित्य अपने आत्यंतिक चरित्र में ही लोकतंत्र की समाजवादी अवधारणा का सर्जनात्मक प्रवक्ता रहा है? इस प्रश्न को संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के बरक्स खड़ा करके सोचने की अनिवार्यता महसूस होने लगी है।
जाहिर है साहित्य में या हमारे आलोच्य विषय नाट्य-साहित्य में लोकतंत्र, ‘विचारों और मूल्यों का ही लोकतंत्र’ हो सकता है। बरसों पहले जब महात्मा गाँधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ की बात की थी, तब उनके समकालीन विचारकों ने उसके समकक्ष और उसे एक सुदृढ़ दार्शनिक और बौद्धिक आधार देने की कोशिश- ‘विचारों का स्वराज्य’ के माध्यम से की थी। आचार्य शुक्ल ने तो इस अवधारणा के बहुत पहले ही ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ जैसी सार्थक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी। तात्पर्य यह है कि साहित्य भविष्य की राजनैतिक और सांस्कृतिक अवधारणा के बीज पहले ही बो देता है। तत्कालीन नाटककारों ‘प्रसाद’, ‘सुदर्शन’, ‘रामकुमार वर्मा’, ‘उदयशंकर भट्ट’ आदि के नाटकों या एकांकी नाटकों में मूल्य-व्यवस्था की सर्जनात्मक चरित्र-प्रस्तुतियों में इसे चरितार्थ होते देखा जा सकता है।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटककारों के नामों की फेहरिश्त बहुत लम्बी है। यहां मैं उन्हीं नाटककारों का उल्लेख कर रहा हॅू, जिनके नाटकों के सफल मंचन ने लोकतांत्रिक विमर्श को रंग-परिदृश्य और रंग-शिल्प की सर्जनात्मक अंतःक्रिया और संवाद को नयी जमीन पर व्याख्यापित किया है- इसमें प्रमुख हैं- मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे), जगदीशचन्द्र माथुर (कोणार्क) , लक्ष्मीनारायण लाल (सूर्यमुख, अब्दुल्ला-दीवाना, यक्ष-प्रश्न, उत्तर-युद्ध), सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (बकरी), धर्मवीर भारती का गीतिनाट्य (अंधा-युग), भीष्म साहनी (हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी) काशीनाथ सिंह (धोआस), सुरेन्द्र वर्मा (द्रौपदी, कैदे-हयात, सूर्य की अंतिम किारण से सूर्य की पहली किरण तक, आठवां सर्ग), मणिमधुकर (रस-गंधर्व, खेला पोलमपुर का), मुद्राराक्षस (मरजीवा, तिलचट्टा), शंकर शेष (घरौंदा, पोस्टर), मृणाल पांडे (आदमी जो मछुआरा नहीं था) आदि। यह फेहरिश्त और लंबी हो़ सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि ये हिन्दी के प्रतिनिधि नाटककार हैं, जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक या समकालीन हिन्दी नाटक की जमीन को अपने विस्मयकारी सर्जनात्मक शिल्प और कथावस्तु के स्तर पर नयी सामाजिक-सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक चिंताओं से लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण और समृद्धिगत संवेदना से, ‘नए मनुष्य की पहचान से’ रूबरू किया है।
(2)
मैं कुछ नाटकों की अंतरवस्तु और उसकी रंग प्रस्तुतियों के माध्यम से इस विमर्श पर अपने आरंभिक विचार प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। मैंने अपनी स्थापना में लोकतंत्र के प्रमुख तत्व ‘विचार की स्वतंत्रता’ और ‘व्यक्ति की गरिमा का सुनिश्चय’- का नाट्य-साहित्य और नाट्य-आलोचना में चरितार्थ होने की बात की थी। ये दो बड़े लोकतांत्रिक मूल्य साहित्य में जिस बड़े सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्य की स्थापना करते हैं- वह है ‘स्वाधीनता की अवधारणा’। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी नाटकों में यह मूल्य बोध कई अन्य शाखाओं में ‘ट्रांसमिट’ होकर अलग-अलग चिंताओं के साथ विकसित हुआ है।
मैं यहाँ एक समर्थ नाटककार, रंगकर्मी और बड़े निर्देशक हबीब तनवीर के नाटकों को बतौर उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हॅू। हबीब अपने नाटकों में इसी ‘स्वाधीनता’ और ‘स्वतत्रता’ को ‘लोक-कल्याण’ और ‘लोक-मंगल’ की भावना में तब्दील कर देते हैं। हम याद करें आचार्य शु क्ल को, जिन्होंने ‘लोक-मंगल’ को ह्रिन्दी आलोचना का मुख्य हथियार बना दिया। हबीब तनवीर उसी ‘लोक-मंगल’ के भाव को अपने नाटकों की ताकत बना देते हैं। उनके नाटकों में समग्र जीवन का सत्य दिखलाई पड़ता है। ‘प्रेम’ और ‘संघर्ष’ जैसे जीवन-मूल्य, जो ‘स्वाधीनता’ और ‘स्वतंत्रता’ जैसे लोकतांत्रिक मूल्य की धुरी हैं, उसे उनके पात्र आधुनिक मनुष्य के तमाम अंतर्विरोधों और विसंगतियों के साथ जीते हैं और पाठकीय तथा दर्शकीय संवेदना के स्तर पर इन श्रेष्ठ मानव मूल्यों को स्थापित कर देते हैं।
1954 में ‘‘आगरा बाजार’’ से लेकर 1958 में ‘‘मिट्टी की गाड़ी’’, 1975 में ‘चरनदास चोर’, 2002 में ‘जहरीली हवा’’ तथा 2008 के ‘विसर्जन’ तक, सभी नाटकों में लोक कल्याण की अनुगूंज सुनी जा सकती है। भारतीय लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता उसकी प्रश्नाकुलता है, जिसे उसने अपनी प्रगतिशील सांस्कृतिक परंपरा से ‘‘एडाप्ट’’ किया है। हबीब के नाटकों में यह ‘‘प्रश्नाकुलता’’ किसी न किसी रूप में मौजूद है। ‘‘बहादुर कलारिन’’ इसी प्रकार का नाटक है, जहां वैयक्तिक अनुभूति और सामाजिक मान्यताओं के बीच का द्वन्द पूरी सतर्कता से उभर कर आया है। एक ‘समझौताविहीन संघर्ष’ ‘बहादुर कलारिन’ में दिखायी देता है। असल में लोकनाट्य परंपरा और आधुनिक रंगमंच के ‘फ्यूजन’ से बना हबीब तनवीर का रंगमंच, रंग-शिल्प के क्षेत्र में चमत्कार बन कर सामने आया। ध्वन्यात्मक अर्थो में ‘लोक-तंत्र’ का ‘लोक’, सही मायने में उनके नाटकों का आधारतंत्र रहा है। वे ‘‘हिरमा की अमर कहानी’ में आदिवासियेां पर होने वाले अत्याचार को उठाते हैं। आदिवासी समाज की ‘कठिनाईयेां और उनके विकास’ के प्रश्न को पूरे तथ्यों के साथ सामने रखते हैं। स्वाधीनता और संघर्ष जैसे मूल्य को उनके भीतर इस तरह उतारते हैं कि वह समाज अपने हक के लिए खड़ा हो जाता है। तथाकथित सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधी चुनौती देता यह नाटक अद्भुत है।
उनके सभी नाटकों में सामाजिक और लोकतांत्रिक दृष्टि का विस्तार साफ सुनायी पड़ता है। ‘‘जिन लाहौर नहीं देख्या’’ में एक हिन्दू और एक मुसलमान का जनाजा एक साथ उठा और इसी के साथ दंगे का दृश्य भी दिखाया गया। फिर ‘वेणी संहार’ नाटक, जिसमें समकालीन राजनैतिक परिवेश पर बेखौफ टिप्पणी करते हुए जटिल विसंगतियों को उद्घाटित किया गया। हर जगह मनुष्य को उसकी पूरी गरिमा के साथ, उसकी पूरी ‘‘टोटैलिटी’’ में देखने की समझ, लोकमंगल और लोक-कल्याण की प्रक्रिया में मनुष्य विरोधी ताकतों से सजग और सतर्क संघर्ष करते उनके पात्र अपनी आजादी, अपनी स्वाधीनता पहचानने की समझ पूरी संवेदनशीलता से विकसित करते हैं।
हबीब तनवीर प्रयोगधर्मी हैं। उनका पहला नाटक ‘‘आगरा बाजार’’ जब 1953-54 में छत्तीसगढ़ के लोककलाकारों के साथ, इब्राहिम अलका जी के भव्य और आधुनिक रंग-शिल्प के समक्ष खड़ा हुआ, तो उसने रंग-शिल्प की परिभाषा ही बदल दी। आगरा के मशहूर शायर ‘नजीर अकबराबादी’ की 16 नज्मों के माध्यम से तत्कालीन समसामयिक, सामाजिक राजनैतिक आर्थिक वातावरण का ऐसा ‘‘डाक्यूमेंटेशन’’ हिन्दी रंगमंच ने देखा ही नहीं था। लोक तत्वों से भरपूर एक ऐसी लोक शैली का विकास हबीब तनवीर ने किया जो ‘मनुष्य’ को ‘मनुष्य बनाए रखने की जद्दोजहद’ में विकल्पों की संभावनाओं को खोलकर अपने जनतांत्रिक मूलाधार में सहज विवेक के साथ खड़ा है।
(3)
इस चर्चा के अन्तिम हिस्से में नाटक के ‘पात्र’, उसकी ‘ मौलिक स्वतंत्रता’ तथा ‘लेखकीय अधिनायकवाद’ के एकतंत्रात्मक, सृजन-प्रक्रिया पर कुछ आरंभिक शंकाएं प्रस्तुत कर रहा हॅू।
‘लेखकीय स्वतंत्रता’ के साथ-साथ ‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ का प्रश्न समकालीन नाट्य-आलोचना में बार-बार उठाया जाता रहा है।
‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ क्या है? वास्तविक जीवन में व्यक्ति को मौलिक स्वतंत्रता के जो संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, क्या वैसे ही अधिकार पात्रों को भी रचना में प्राप्त होते हैं? क्या रचना जगत में कोई निश्चित संविधान है?
उपर्युक्त धरातल पर ‘पात्रों की स्थिति’, वास्तविक जीवन के पात्रों से अलग हो जाती है। उनकी यंत्रणा और यातना के नरक द्वार, मानवीय नरक द्वार से कहीं अधिक भीषण और भयंकर हैं।
आज जबकि हम अवधारणात्मक स्तर पर वास्तविक जीवन में एक धर्म-निरपेक्ष संविधान में सुरक्षित है, एक ‘लोकतांत्रिक गणतंत्र’ के आकाश में संवैधानिक दृष्टि से उन्मुक्त सांस ले रहे हैं। हमारे नाटक के पात्र, जो सर्जनात्मक पात्र अधिक हैं, इस पूरी बोध-प्रक्रिया से अलग हैं, वंचित हैं। वे अपनी मौलिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्या पात्रों को भी वैसे ही मौलिक अधिकार प्राप्त करने के लिए अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद गढ़ना पड़ेगा? पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता की दिशा क्या है? लेखकीय मर्यादा, अनुशासन का प्रत्याख्यान?
मेरा अपना मानना है कि अब बहुत हो चुका। न्यायोक्ति स्थिति की मांग यह है कि पात्रों को मानवीय व्यवहार दिया जाय, उन्हें मानवोचित गरिमा के साथ, कुछ दलगत लेखकीय अधिनायकत्व से बाहर निकालकर ऐसा चरित्र दिया जाय, जहां वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, अपने अधिकारों के लिए स्वयं संघर्ष कर सकें। आरोपित लेखकीय अधिकानायकवाद एक दूसरे स्तर पर पात्रों के निरंकुश आचरण की भी पैरवी करने लगता है। समकालीन नाट्य-आलोचना के उपकरणों को इस असहनीय स्थिति पर अंकुश लगाना ही होगा। केवल अनाचार, भ्रष्टाचार, अविचार, कुंठा, असंगति, दमन, मनुष्य की दुर्बलताएं, उसका नैतिक पतन, नाना स्तरों पर अतंरविरोधों का चित्रण-अब इनकी कोई प्रतिक्रिया पाठकों पर नहीं होती। अब ये विषय और इनमें लिप्त पात्र लेखकीय अधिनायकवाद के शिकार हो गए हैं। पात्रों को उन्मुक्त जीवन जीने के पर्याप्त अवसर हमें देने ही होंगे, जिससे वे अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद रच सकें। रचनात्मक पात्र और वास्तविक जीवन के पात्र एक दूसरे से बोल-बतिया सकें।
लोकतांत्रिक विमर्श के संदर्भ में नाट्य-आलोचना से इतनी जरूरी और तुच्छ मांग क्या ज्यादा है? इसका निर्णय मैं आप पर छोड़ता हॅू।
जाहिर है साहित्य में या हमारे आलोच्य विषय नाट्य-साहित्य में लोकतंत्र, ‘विचारों और मूल्यों का ही लोकतंत्र’ हो सकता है। बरसों पहले जब महात्मा गाँधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ की बात की थी, तब उनके समकालीन विचारकों ने उसके समकक्ष और उसे एक सुदृढ़ दार्शनिक और बौद्धिक आधार देने की कोशिश- ‘विचारों का स्वराज्य’ के माध्यम से की थी। आचार्य शुक्ल ने तो इस अवधारणा के बहुत पहले ही ‘विरूद्धों का सामंजस्य’ जैसी सार्थक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी। तात्पर्य यह है कि साहित्य भविष्य की राजनैतिक और सांस्कृतिक अवधारणा के बीज पहले ही बो देता है। तत्कालीन नाटककारों ‘प्रसाद’, ‘सुदर्शन’, ‘रामकुमार वर्मा’, ‘उदयशंकर भट्ट’ आदि के नाटकों या एकांकी नाटकों में मूल्य-व्यवस्था की सर्जनात्मक चरित्र-प्रस्तुतियों में इसे चरितार्थ होते देखा जा सकता है।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटककारों के नामों की फेहरिश्त बहुत लम्बी है। यहां मैं उन्हीं नाटककारों का उल्लेख कर रहा हॅू, जिनके नाटकों के सफल मंचन ने लोकतांत्रिक विमर्श को रंग-परिदृश्य और रंग-शिल्प की सर्जनात्मक अंतःक्रिया और संवाद को नयी जमीन पर व्याख्यापित किया है- इसमें प्रमुख हैं- मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे), जगदीशचन्द्र माथुर (कोणार्क) , लक्ष्मीनारायण लाल (सूर्यमुख, अब्दुल्ला-दीवाना, यक्ष-प्रश्न, उत्तर-युद्ध), सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (बकरी), धर्मवीर भारती का गीतिनाट्य (अंधा-युग), भीष्म साहनी (हानूश, कबिरा खड़ा बाजार में, माधवी) काशीनाथ सिंह (धोआस), सुरेन्द्र वर्मा (द्रौपदी, कैदे-हयात, सूर्य की अंतिम किारण से सूर्य की पहली किरण तक, आठवां सर्ग), मणिमधुकर (रस-गंधर्व, खेला पोलमपुर का), मुद्राराक्षस (मरजीवा, तिलचट्टा), शंकर शेष (घरौंदा, पोस्टर), मृणाल पांडे (आदमी जो मछुआरा नहीं था) आदि। यह फेहरिश्त और लंबी हो़ सकती है। लेकिन मुझे लगता है कि ये हिन्दी के प्रतिनिधि नाटककार हैं, जिन्होंने स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटक या समकालीन हिन्दी नाटक की जमीन को अपने विस्मयकारी सर्जनात्मक शिल्प और कथावस्तु के स्तर पर नयी सामाजिक-सांस्कृतिक आर्थिक और राजनीतिक चिंताओं से लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण और समृद्धिगत संवेदना से, ‘नए मनुष्य की पहचान से’ रूबरू किया है।
(2)
मैं कुछ नाटकों की अंतरवस्तु और उसकी रंग प्रस्तुतियों के माध्यम से इस विमर्श पर अपने आरंभिक विचार प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा। मैंने अपनी स्थापना में लोकतंत्र के प्रमुख तत्व ‘विचार की स्वतंत्रता’ और ‘व्यक्ति की गरिमा का सुनिश्चय’- का नाट्य-साहित्य और नाट्य-आलोचना में चरितार्थ होने की बात की थी। ये दो बड़े लोकतांत्रिक मूल्य साहित्य में जिस बड़े सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्य की स्थापना करते हैं- वह है ‘स्वाधीनता की अवधारणा’। स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी नाटकों में यह मूल्य बोध कई अन्य शाखाओं में ‘ट्रांसमिट’ होकर अलग-अलग चिंताओं के साथ विकसित हुआ है।
हबीब तनवीर |
1954 में ‘‘आगरा बाजार’’ से लेकर 1958 में ‘‘मिट्टी की गाड़ी’’, 1975 में ‘चरनदास चोर’, 2002 में ‘जहरीली हवा’’ तथा 2008 के ‘विसर्जन’ तक, सभी नाटकों में लोक कल्याण की अनुगूंज सुनी जा सकती है। भारतीय लोकतंत्र की एक प्रमुख विशेषता उसकी प्रश्नाकुलता है, जिसे उसने अपनी प्रगतिशील सांस्कृतिक परंपरा से ‘‘एडाप्ट’’ किया है। हबीब के नाटकों में यह ‘‘प्रश्नाकुलता’’ किसी न किसी रूप में मौजूद है। ‘‘बहादुर कलारिन’’ इसी प्रकार का नाटक है, जहां वैयक्तिक अनुभूति और सामाजिक मान्यताओं के बीच का द्वन्द पूरी सतर्कता से उभर कर आया है। एक ‘समझौताविहीन संघर्ष’ ‘बहादुर कलारिन’ में दिखायी देता है। असल में लोकनाट्य परंपरा और आधुनिक रंगमंच के ‘फ्यूजन’ से बना हबीब तनवीर का रंगमंच, रंग-शिल्प के क्षेत्र में चमत्कार बन कर सामने आया। ध्वन्यात्मक अर्थो में ‘लोक-तंत्र’ का ‘लोक’, सही मायने में उनके नाटकों का आधारतंत्र रहा है। वे ‘‘हिरमा की अमर कहानी’ में आदिवासियेां पर होने वाले अत्याचार को उठाते हैं। आदिवासी समाज की ‘कठिनाईयेां और उनके विकास’ के प्रश्न को पूरे तथ्यों के साथ सामने रखते हैं। स्वाधीनता और संघर्ष जैसे मूल्य को उनके भीतर इस तरह उतारते हैं कि वह समाज अपने हक के लिए खड़ा हो जाता है। तथाकथित सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को सीधी चुनौती देता यह नाटक अद्भुत है।
आगरा बाजार के एक दॄश्य में हबीब तनवीर |
हबीब तनवीर प्रयोगधर्मी हैं। उनका पहला नाटक ‘‘आगरा बाजार’’ जब 1953-54 में छत्तीसगढ़ के लोककलाकारों के साथ, इब्राहिम अलका जी के भव्य और आधुनिक रंग-शिल्प के समक्ष खड़ा हुआ, तो उसने रंग-शिल्प की परिभाषा ही बदल दी। आगरा के मशहूर शायर ‘नजीर अकबराबादी’ की 16 नज्मों के माध्यम से तत्कालीन समसामयिक, सामाजिक राजनैतिक आर्थिक वातावरण का ऐसा ‘‘डाक्यूमेंटेशन’’ हिन्दी रंगमंच ने देखा ही नहीं था। लोक तत्वों से भरपूर एक ऐसी लोक शैली का विकास हबीब तनवीर ने किया जो ‘मनुष्य’ को ‘मनुष्य बनाए रखने की जद्दोजहद’ में विकल्पों की संभावनाओं को खोलकर अपने जनतांत्रिक मूलाधार में सहज विवेक के साथ खड़ा है।
(3)
इस चर्चा के अन्तिम हिस्से में नाटक के ‘पात्र’, उसकी ‘ मौलिक स्वतंत्रता’ तथा ‘लेखकीय अधिनायकवाद’ के एकतंत्रात्मक, सृजन-प्रक्रिया पर कुछ आरंभिक शंकाएं प्रस्तुत कर रहा हॅू।
‘लेखकीय स्वतंत्रता’ के साथ-साथ ‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ का प्रश्न समकालीन नाट्य-आलोचना में बार-बार उठाया जाता रहा है।
‘पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता’ क्या है? वास्तविक जीवन में व्यक्ति को मौलिक स्वतंत्रता के जो संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, क्या वैसे ही अधिकार पात्रों को भी रचना में प्राप्त होते हैं? क्या रचना जगत में कोई निश्चित संविधान है?
उपर्युक्त धरातल पर ‘पात्रों की स्थिति’, वास्तविक जीवन के पात्रों से अलग हो जाती है। उनकी यंत्रणा और यातना के नरक द्वार, मानवीय नरक द्वार से कहीं अधिक भीषण और भयंकर हैं।
आज जबकि हम अवधारणात्मक स्तर पर वास्तविक जीवन में एक धर्म-निरपेक्ष संविधान में सुरक्षित है, एक ‘लोकतांत्रिक गणतंत्र’ के आकाश में संवैधानिक दृष्टि से उन्मुक्त सांस ले रहे हैं। हमारे नाटक के पात्र, जो सर्जनात्मक पात्र अधिक हैं, इस पूरी बोध-प्रक्रिया से अलग हैं, वंचित हैं। वे अपनी मौलिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। क्या पात्रों को भी वैसे ही मौलिक अधिकार प्राप्त करने के लिए अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद गढ़ना पड़ेगा? पात्रों की मौलिक स्वतंत्रता की दिशा क्या है? लेखकीय मर्यादा, अनुशासन का प्रत्याख्यान?
मेरा अपना मानना है कि अब बहुत हो चुका। न्यायोक्ति स्थिति की मांग यह है कि पात्रों को मानवीय व्यवहार दिया जाय, उन्हें मानवोचित गरिमा के साथ, कुछ दलगत लेखकीय अधिनायकत्व से बाहर निकालकर ऐसा चरित्र दिया जाय, जहां वे अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, अपने अधिकारों के लिए स्वयं संघर्ष कर सकें। आरोपित लेखकीय अधिकानायकवाद एक दूसरे स्तर पर पात्रों के निरंकुश आचरण की भी पैरवी करने लगता है। समकालीन नाट्य-आलोचना के उपकरणों को इस असहनीय स्थिति पर अंकुश लगाना ही होगा। केवल अनाचार, भ्रष्टाचार, अविचार, कुंठा, असंगति, दमन, मनुष्य की दुर्बलताएं, उसका नैतिक पतन, नाना स्तरों पर अतंरविरोधों का चित्रण-अब इनकी कोई प्रतिक्रिया पाठकों पर नहीं होती। अब ये विषय और इनमें लिप्त पात्र लेखकीय अधिनायकवाद के शिकार हो गए हैं। पात्रों को उन्मुक्त जीवन जीने के पर्याप्त अवसर हमें देने ही होंगे, जिससे वे अपना लोकतांत्रिक संविधान खुद रच सकें। रचनात्मक पात्र और वास्तविक जीवन के पात्र एक दूसरे से बोल-बतिया सकें।
लोकतांत्रिक विमर्श के संदर्भ में नाट्य-आलोचना से इतनी जरूरी और तुच्छ मांग क्या ज्यादा है? इसका निर्णय मैं आप पर छोड़ता हॅू।
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