सांस्कृतिक एवं राजनैतिक जागरण के प्रतीक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी
- महेश आलोक
पद्मभूषण, प्रख्यात गांधीवादी चिंतक न्यायमूर्ति चन्द्रशेखर धर्माधिकारी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में न्यायनिष्ठता, आचरणगत शुचिता तथा गांधीवादी मूल्यों की समकालीन प्रासंगिता एक साथ मौजूद है। हिन्दी भाषा के प्रति अटूट लगाव तथा भारतीय होने का गौरवबोध उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा है। स्वतन्त्रता संग्राम की कठिन लड़ाई व संघर्ष में हिन्दी भाषा को जातीय हथियार के रूप में प्रयोग करके श्री धर्माधिकारी ने गांधी जी के स्वराज की कल्पना को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत सरकार ने श्री धर्माधिकारी का नाम प्रतिष्ठित स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों की सूची में सम्मिलित कर आपके महती योगदान के दशांश को ही रेखांकित करने का प्रयास किया है। आपका कद इससे कहीं बडा है। आप सिर्फ राष्ट्रवादी नहीं है, आपके भीतर राष्ट्र की सजीव कल्पना निरंतर अपने प्रगतिशील रूप में साकार होती रही है।
स्वतंत्र भारत में हिन्दी की गरिमा और सम्मान को अक्षुण्ण रखने, उसकी दशा और दिशा में निरंतर सुधार के लिए कृतसंकल्पित धर्माधिकारी अपने ही घर में अपनी भाषा अर्थात हिन्दी के सार्वजनिक अपमान से आहत हैं। उन्हें लगता है कि बिना सांस्कृतिक और राजनैतिक जागरण के हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित नहीं हो सकती। हिन्दी विश्व की विराट भाषा है। उसकी ऐतिहासिक गरिमा को याद करके खुश और गौरवान्वित हुआ जा सकता है लेकिन इस समय उसका वर्तमान ज्यादा सोचनीय है। अगर वर्तमान नहीं सुधरा तो भविष्य चैपट हो जाएगा। धर्माधिकारी मानते है कि सच्ची हिन्दी की सेवा हिन्दी के पाखण्ड से सम्भव नही है। हमें अपने विचार और संवेदना दोनों में हिन्दी को आत्यंतिक रूप से न सिर्फ शामिल करना होगा बल्कि चरित्र के स्तर पर जीना भी होगा।
उनका एक चर्चित मुहावरा है कि ‘आमलेट पर गंगाजल छिडकने जैसे पाखण्ड से हिन्दी की दशा नहीं सुधर सकती’ । असल में हिन्दी भारतीय चरित्र की भाषा है, सोच और संवेदना की भाषा है, जातीय स्मृति की भाषा है। इन सबसे कटकर हम अपंग हो जाएंगे। धर्माधिकारी यह मानते है कि यदि हमारा हिन्दी चरित्र उज्जवल रहा, हम चरित्रवान रहे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने से कोई नहीं रोक सकता। वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन की नींव में ही हिन्दी है, इसलिए हिन्दी हमारी ‘मां’ है और यह याद दिलाना शायद गलत होगा कि हमें अपनी ‘मां’ का सम्मान करना चाहिए। हमारी नियति यह है कि हम अपनी स्वाभाविक स्थितियों, गतियों और मूल्य निष्ठाओं से पीछे हट रहे है, नहीं तो यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि हिन्दी हमारी ‘मां’ है और उसका हमें सम्मान करना चाहिए। धर्माधिकारी की पीड़ा उस समय ज्यादा मुखरित हो जाती है जब हिन्दी भाषी प्रदेश में ही वे हिन्दी का अपमान होते देखते है।
धर्माधिकारी पर्यावरणविद भी हैं। वे ‘संस्कृति’ और ‘प्रकृति’ को एक साथ लेकर चलने के हिमायती हैं। दोंनों के बीच में उचित सामंजस्य बैठाते हुए उनका व्यक्तित्व लगभग इसी का एक विराट प्रतीक बन गया है। सामाजिक न्याय, स्वदेशी, जातीय भाषा हिन्दी, नारी सशक्तीकरण और वैश्विक मूल्यों को अपनी संदवेना में निरंतर जीवित रखे हुए धर्माधिकारी न केवल वर्तमान पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अजस्र प्रेरणा स्रोत हैं।
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने जो बात गांधी जी के संदर्भ में कही थी, उसी को थोड़ा बदलकर अगर हम यह कहें कि ‘‘आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगीं कि इस पृथ्वी पर चन्द्रशेखर धर्माधिकारी जैसा विलक्षण व्यक्तित्व भी चला था।’’ तो गलत नहीं होगा।
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2 टिप्पणियाँ:
चलिये, अच्छी बात है.. please remove word verification
धर्माधिकारी जी का हिन्दी प्रेम जग जाहिर है। आपके लेख ने उनके ब्यक्तित्व को और खोल दिया है।आपकी भाषा का चमत्कार तो देखने लायक है।
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