डा. चन्द्रकान्त वांदिवडेकर हिन्दी एवं मराठी साहित्य के समर्थ आलोचक के रूप में ख्यात हैं। साहित्य में प्रचलित तमाम खेमेबन्दी से अलग, वादों-प्रतिवादों से दूर चुपचाप साहित्य साधना में रत डा. वांदिवडेकर ने आलोचना के लिए अपने प्रतिमान खुद गढे़ हैं। रचना के प्रति तत्वग्राही दृष्टि, एक अनिवार्य रचनात्मक संवेदनशीलता, सर्जनात्मक कृति को केन्द्र में रखकर ‘पाठ केन्द्रित आलोचना’ के साथ ही ऐतिहासिक विवेक और ‘स्वतन्त्रता’ जैसे बडे़ मानवीय मूल्य के साथ खडे़ होने का दुर्लभ साहस, जातीय और प्रतिबद्ध लेखन के प्रति पूर्वग्रहरहित उदार दृष्टि, रचना के यथार्थ और उसके कलात्मक सौन्दर्य को रचनाकार की आस्था के साथ समझने की कोशिश, यथार्थ सम्प्रेषण की बुनियादी समस्याओं को संरचनात्मक तथा संवेदना की बनावट और बुनावट के स्तर पर पकड़ने की सार्थक पहल- यह सब डा. वांदिवडेकर की सजग आलोचना का अनिवार्य हिस्सा है।
चन्द्रकान्त वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि
- महेश आलोक
- महेश आलोक
असल में समकालीन हिन्दी और मराठी साहित्य में स्वचेतना, निर्वैयक्तिकता, स्वाधीन व्यक्तित्व के निर्माण, विकास और रक्षण के बीच जो द्वंद है और जो आधुनिक साहित्य का प्रमुख लक्षण भी है, उसे डा. वांदिवडेकर पूरे आलोचनात्मक विवेक के साथ पकड़ते हैं और एक नई उत्सुकता, स्वायत्तता और प्रासंगिकता के साथ मूल्यांकन के स्तर पर चरितार्थ कर देते हैं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि ‘स्वायत्तता और प्रासंगिकता’, ‘स्वतंत्रता और प्रतिबद्धता’ के रिश्ते रचना की बनावट में कहीं ज्यादा जटिल होते हैं।
डा. वांदिवडेकर की आलोचना दृष्टि किसी कृति की स्थूल प्रासंगिकता को नकारती है क्योंकि कृति की ताकत उसकी द्विविधात्मक प्रकृति में निहित होती है। रचनात्मक आलोचना इसीलिए निर्णय नहीं लेती, निर्णय लेने की प्रक्रिया में संघर्ष और साहस जैसे बडे़ जीवनमूल्य की ओर उन्मुख कर देती है। उनका आलोचक इसी समझ का इस्तेमाल करता हुआ रचना के भीतर बहुवस्तुस्पर्षी संवेदना और स्वभाव को अपनी आलोचना का प्रमुख हथियार या ‘टूल्स’ बना लेता है। उनका स्पष्ट मानना है कि ‘‘समीक्षा का आधार यही नही होना चाहिए कि समीक्ष्य कृति से किस तात्कालिक प्रयोजनीयता की सिद्धि हो रही है, बल्कि यह होना चाहिए कि जीवन के जिस पक्ष को रचनाकार ने प्रस्तुत करना चाहा है, उसमें कहां तक सफल हुआ है। होमर और शेक्सपीयर की श्रेष्ठता के जो निकष हैं, टॅालस्टाय, बालज़ाक या गोर्की के लिए वे उपयुक्त न होंगे। इसी प्रकार आधुनिक साहित्य की समीक्षा सरणियों से बाल्मीकि, व्यास, कालीदास, भास या तुलसीदास का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसलिए साहित्य समीक्षा में ऐतिहासिक दृष्टि, आलोचनात्मक विवेक और मर्मस्पर्शी सहृदयता का सम्यक समन्वय होना आवश्यक है।’’
डा. वांदिवडेकर की समीक्षा दृष्टि व्यापक, उदार और समावेशी है तथा आलोचना, अस्मिता और अभिव्यक्ति की तलाश का सशक्त माध्यम। उनकी आलोचना रचना में सामाजिक यथार्थ को लेकर व्याप्त सरलीकरणों, रूमानियत और राजनैतिक भोलेपन और नैतिक संवेदनहीनता के विरूद्ध लगातार संघर्ष है। वे साहित्य में स्मृतिहीनता का निरंतर निषेध करते है। इसी निषेध से यह मूल्य-दृष्टि विकसित होती है कि बड़ा साहित्य देश और काल का अतिक्रमण करता हुआ हमारे अपने समय में भी उतना ही प्रासंगिक हो उठता है, जितना अपने रचनाकाल के समय था। इस अर्थ में डा. वांदिवडेकर की आलेाचनतात्मक दृष्टि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय की आलोचना दृष्टियों का रासायनिक प्रतिफलन है।
इसी रासायनिक प्रतिफलन से वह मौलिक दृष्टि निःसृत होती है, जिसके आधार पर वे पूरे भारतीय साहित्य में अटूट जीवनधर्मिता, जीवनानुभूति की समग्रता, गहनता और व्यापकता को लक्षित कर पाते है, जो एक दूसरे स्तर पर भारतीय संस्कृति की अटूट पहचान भी है।
और अन्त में डा. वांदिवडेकर की आलोचना की एक जरूरी और उल्लेखनीय विशेषता की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा, बल्कि इसे रेखांकित करना चाहूंगा अर्थात उसकी पठनीयता और प्रेषणीयता को, जो हमें अज्ञेय, रामविलास शर्मा, अशोक वाजपेयी, देवीशंकर अवस्थी की आलोचना का स्मरण करा जाती है। वह है उनकी सघन, प्रखर, आत्मीय, और धूमिल की तरह सूक्तिपरक नाटकीय भाषा, जहां पारिभाषिक शब्दावली और चमकदार वाक्यविन्यास के साथ सहजता का चमत्कारिक प्रभाव दुर्लभ संयोग की तरह उपस्थित है।
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