आज मैं साहित्य में ’प्रभाव की सार्थकता’ के बारे में सोच रहा था। क्या साहित्य में मौलिक कुछ भी नहीं है?क्या साहित्य रचना एक सांस्कृतिक क्रिया है? जैसा कि ‘मुक्तिबोध’ ने कहा और जब मैं मुक्तिबोध’ के शब्दों में सांस्कृतिक क्रिया कह रहा हूं,तो यह नहीं भूल रहा हूं कि बिना मूल्यदृष्टि के संस्कृति का कोई अर्थ नहीं है और यह मूल्यदृष्टि संस्कृति को हर स्तर पर समय के साथ अपनी परिवर्तनकारी क्रिया-अन्तःक्रिया के साथ प्रभावित करती चलती है।मुझे हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन याद आ रहा है-शुद्ध संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं होती।समय-समय पर विभिन्न संस्कृतियों के परस्पर टकराहट या मुठभेड़ के फलस्वरूप अपनी जड़ों में गहराई तक फैली प्राणवान संस्कृति विभिन्न प्रकार के प्रभावों को अपने प्राकृतिक चरित्र में खपाकर,अपने अनुरूप ढालकर, निरंतर गत्यात्मक ऊर्जा के द्वारा समाज को,परिवार को,सबके आपसी संबन्धों को,श्रम और संपत्ति के विभाजन और उपभोग को प्राणिमात्र से ही नहीं,वस्तुमात्र से हमारे संबन्धों को निरूपित और निर्धारित करती है।’इस तरह संस्कृतियां भी लगातार बदलती हैं।और हम सभी जानते हैं कि केवल भौतिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप संस्कृति का निर्माण नहीं हुआ है,वह अनिवार्य रूप से मानव जगत,जीव जगत,भौतिक जगत के साथ अंतःसम्बन्धों की क्रिया-अन्तःक्रिया-प्रतिक्रिया में निर्मित हुआ है।और निश्चय ही इसमें बदलाव आता है।ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के विस्तार के साथ,परस्पर सम्बन्धों के विस्तार के साथ बदलाव आता है और इस बदलाव का सीधा सम्बन्ध भाषा से है और भाषा साहित्य का अनिवार्य माध्यम है। चूंकि साहित्य में संस्कृति के इस संपूर्ण क्रिया ब्यापार का संवेदनात्मक प्रतिबिम्ब प्रतिलक्षित होता है,इसलिये ‘मुक्तिबोध’ को कहना पड़ा कि ‘ साहित्य एक सांस्कृतिक क्रिया है ’।
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