अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

एक कवि की नोटबुक - महेश आलोक



                         महेश आलोक की डायरी

                                                           (1)

आज महाविद्यालय में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन हुआ। फूहड़ हास्य और ओज के नाम से सांस्कृतिक पुनरुत्थान की गलाफाडू कविताएं सुनाई गयीं। श्रोता मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे। अपनी समझ से वे हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं सुन रहे थे। उन्हें हिंदी कविता की परम्परा का,उसके विकास का ज्ञान नहीं है, इसलिए इन कविताओं को ही वे हिंदी की प्रतिनिधि कविता मान रहे थे, यहाँ तक तो समझा जा सकता है, लेकिन हिंदी के महाविद्यालयी अध्यापक भी उसे ही प्रतिनिधि कविता मान रहे थे, इसे देखना और सुनना किसी कठिन यंत्रणा से गुजरने से कम पीड़ादायक नहीं था।श्यामनारायण पांडे, दिनकर और नवीन की फूहड़ नक़ल वाली तथाकथित कविताएं हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताएं घोषित की जा रहीं थीं और मैं चुपचाप यह तमाशा देख रहा था। न उगलते बन रहा था न निगलते। मंचीय कविता , कविता के नाम पर जिस तरह की कविता परोस रही है उसे देखकर लगता है कि मुख्यधारा के रचनाकारों को संगठित प्रयास करके आम श्रोताओं के मध्य कविता की सही समझ का संस्कार डालना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब अज्ञेय,मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, विनोदकुमार शुक्ल, राजेश जोशी, आलोक धन्वा आदि महज पुस्तकालयों में धूल खा रहे होंगे या कहीं कोर्स में लगकर अपने को धन्य समझ रहे होंगे। आम जनता के बीच तो वही कवि माना जाएगा जो लाल किले पर आयोजित कवि सम्मेलन में गलाफाडू कविताएं पढ़कर आया हो और आयोजकों से मोटी रकम वसूलकर बिना कर चुकाए देश-विदेश की उसी के बल पर यात्रा करा रहा हो और वहाँ भी हिंदी कविता की भोंडी समझ विकसित कर उसकी मंचीय दुर्दशा का प्रचार प्रसार कर रहा हो। सोचकर ही आतंकित हो जाता हूँ कि विश्व मंच पर श्रोताओं के समक्ष हिंदी कविता की कैसी छवि प्रस्तुत की जा रही है।
     इसी मंच पर समर जी जैसे समर्थ रचनाकार भी कविता पढ़कर गए, जिन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव था। पारम्परिक कविता के बड़े कवि।उन्हें कोटिशः नमन।अगर मंच पर कविता जीवित है तो उसका प्रमुख कारण उदय दा(उदयप्रताप सिंह), समर जी, लाखनसिंह भदौरिया, सोम ठाकुर, कुँअर बेचैन, बुद्धिनाथ मिश्र, माहेश्वर तिवारी आदि रचनाकारों की वजह से।
   क्या लंबे समय से इस तरह के विदूषकी कर्म का परिणाम यह नहीं है कि हिंदी बोलने और पढ़ने वालों को लोग गंभीरता से नहीं लेते? मुझे लगता है कि तमाम कारणों में से एक कारण यह भी है। यह तो सही है कि इस चर्चा में मैं अकेला पड़ गया हूँ। महाविद्यालय के अधिकांश लोग मुझे सभ्य भाषा में गाली ही दे रहे हैं। हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं में ये स्थिति नहीं है इसे मैं अपने अनुभव से जानता हूँ। कम से कम बांगला, मराठी और मलयालम के सन्दर्भ में तो कह ही सकता हूँ। उनके अध्यापको ,रचनाकारों और साहित्य प्रेमी जनता से मेरा संवाद रहा है अपने रिसर्च के दौरान।मंच पर पारंपरिक कविता ही पढ़ी जाती है लेकिन वह कविता तो हो। हाँ, अब अगर मेरी कविता समझने की समझ पर ही प्रश्नचिन्ह विद्वान साथी लगाएं तो बात अलग है। अगर हिंदी कविता मजा लेने की चीज है तब तो पूरी चर्चा ही बेकार है।
     समस्या वहां खड़ी होती है जब आपके आसपास के लोग यह समझने लगते हैं कि कविता और उसके फार्म की समझ,समकालीनता की समझ, कविता की समझ और कविता के नाम पर अनर्गल प्रलाप की समझ सिर्फ महेश आलोक और अखिलेश श्रोत्रिय को है और बाकी लोग क्या बेवकूफ है।वे भी तो हिंदी पढ़ते हैं और पढ़ाते हैं। तुकबन्दियाँ वे भी करते हैं , कविता लिखते हैं भले ही 70 साल पहले की भाषा में मंचीय कविता की तरह प्रलाप कर रहे हों। उन्हें सुझाव या सलाह देना उनके ज्ञान को धता दिखाने की तरह होता है जो उनके ‘इगो’ को ठेस पहुंचाता है क्योंकि वे हिंदी के सम्माननीय अध्यापक हैं, कविता पढ़ाते है, उन्हें हम और आप ये बताएंगे कि कविता क्या है? और तब हम अहंकारी और अपमान करने वाले निकृष्ट जन घोषित कर दिए जाते हैं।चूंकि उनकी संख्या ज्यादा है तो वे आपके आसपास का वातावरण इतना कलुषित कर देंगे , व्यंग्य करेंगे कि आपको सांस लेना मुश्किल होने लगे। हिंदी के अध्यापक की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह सर्वज्ञ है और चूंकि हिंदी का अध्यापक है इसलिए वह कवि तो जन्मजात है। उसे ये बेवकूफ, जड़ समझाएंगे कि कविता क्या है?
   हिंदी मात्र सस्ते मनोरंजन की भाषा नहीं है और न ही हिंदी कविता।सस्ते मनोरंजन के और भी साधन उपलब्ध हैं।


                                                                     (2)
   कुछ शेर याद आ रहे हैं



सिर्फ हमको पता नहीं होता,
कोई इतना बुरा नहीं होता.

प्यार करता है टूट कर मुझसे,
वरना इतना खफा नहीं होता,

सरहदें लाख खींच दे दुनिया,
कोई दिल से जुदा नहीं होता.

मंज़िलें और पास लगती हैं,
जब कोई रास्ता नहीं होता.

मेरा अपना ही कोई है वरना,
दूर जा कर खड़ा नहीं होता.

यूं ही दिल टूट टूट जाते हैं,
और शिकवा गिला नहीं होता.

ज़िद है मेरी भी देखता हूँ मैं,
दर्द कब तक दवा नहीं होता.

इतनी उम्मीद पालना भी मत,
कोई इंसां ख़ुदा नहीं होता.


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