अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

बेतरतीब- (एक कवि की नोटबुक)- महेश आलोक


                                              महेश आलोक की डायरी



                                                                  (1)

उसे आग बहुत पसन्द है।जीवन हो या कविता या गद्य- हर जगह उसे आग चाहिये। वह निरन्तर भाग रहा है उस आग के पीछे जो जीवन को सँघर्ष करने की प्रेरणा देता है। मैने पत्नी से कहा- देखो, उसने अपने जीवन को कितना तपा लिया है सँघर्ष की आग में।लोगों के लिये प्रेरणा-स्रोत,एक तपकर निकला हुआ खरा सोना।पत्नी ने शान्त स्वर में उत्तर दिया- ऐसे लोग ठँढ में मर जाते हैं।
मैं अवाक और चुप। ऐसे वाक्य किस अनुभव से निकलते हैं?


                                                                 (2)

प्यार क्या है? मुझे हुआ कि नहीं, कैसे कहूँ। आज पचास की उम्र में जब पीछे देखता हूँ, उन पलों को स्मृति में लाने की कोशिश करता हूँ तो उदास नहीं होता।उस समय जब उसकी प्रतीक्षा में शेव नहीं कर पाता था और दाढ़ी घनी हो जाती थी, तब भी बुरा नहीं दिखता था। माँ कहती थीं-तेरे ऊपर दाढ़ी अच्छी लगती है और मैं अकेला होने से बच जाता था। कभी कभी उसके साथ होते हुए,उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए, केदारनाथ सिंह की कविता याद आती थी- ‘इस दुनिया को इसी तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिये।’और तब मैं बहुत अकेला होता था किसी अँधेरी सुरँग में रोशनी को तलाशता हुआ,उसके साथ होते हुए भी अकेला। क्या प्यार बहुत आत्मीय क्षणों में आपको अकेला कर देता है? आखिर इस रहस्य का रहस्य क्या है? क्या एक पल में मृत्यु का क्षणिक बोध है? या मुक्ति के अनुभव में बन्धन का अनुशासन! क्या है प्यार? या सँभव और असँभव के बीच तनी हुई रस्सी पर चलते हुए मध्य में खड़े होकर ऊपर और नीचे की अनन्त ऊँचाई और अनन्त गहराई का वह अनुभव है जो भय और आसक्ति के अद्भुत सँतुलन से बना है।  


                                                                     (3)

जब मैं कविता नहीं लिख रहा होता हूँ, क्या कर रहा होता हूँ उस समय? क्या शब्दों को पिकनिक पर भेज देता हूँ ?कलम और कागज क्या सोचते हैं उस समय मेरे बारे में। क्या जब मैं कविता नहीं लिख रहा होता हूँ, उस समय सही मायने में रचता हूँ अपने लिये,जीता हूँ अपने लिये अवरोधमुक्त रचाव के साथ।क्या मैं सही मायने में उसी समय रचता हूँ? शब्दों के भीतर भर गये प्रदूषण को साफ करने में ही आधा जीवन निकल गया। क्या वे तमाम कविताएं जो शब्दों के साथ लिखी गयीं, वे मेरे रचाव का एक अँश भी अभिव्यक्त नहीं कर पायीं? क्या मैं मुक्ति के बन्धन में बँधता चला गया? क्यों कागज पर उतारने के बाद भी छटपटाता रहता हूँ मैं?क्या लिखने के बाद शब्द मर जाते हैं? या मरकर नया जन्म लेते हैं वे।

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