अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

सोमवार, 18 जनवरी 2016

बेतरतीब- (एक कवि की नोटबुक)- महेश आलोक




                                                 महेश आलोक की डायरी



आज एक इन्टरमीडियट में लिखा गीत पुरानी डायरी में मिल गया।जाने कैसे डायरी मिल गयी।मैं तो उसे भूल ही गया था।सोच लिया था कि गुम हो गयी। इसमें ग्रेजुएशन तक लिखे गये मेरे कुछ प्रिय गीत दर्ज हैं। आज पढ़ने पर लगता है,इसे और माँजा जा सकता है।लेकिन उस समय का स्वाद तो उसी समय की भाषा और उसके खुरदुरेपन(अगर है तो)में है।मजा तो तभी है।एक गीत का आनन्द लीजिये।




तुम नयन नयन बन जिओ
चाँदनी लहरों में तुम जियो कहीं मैं चाँद चाँद लिखकर
तुमसे बतिया लूँगा

जब पँख फुला गौरैया अँगना नाचेगी।मेरे बोलों में बोल
मिला शरमा लेगी।माथे पर झुकी छाँव तभी हौले-हौले
मेरी पलकों को टोना कर भरमा लेगी
तुम जलन-जलन बन खिलो
चाँदनी रातों में तुम खिलो कहीं मैं दीप दीप लिखकर
कुछ अर्थ चुरा लूँगा

बैठे ठाले यदि अता पता मन पूछेगा।बादल पानी फिर
धूप लिये तन टूटेगा।यूँ चुप्पी वाली नाव और नियरायेगी
फिर ठौर ठिकाने वाला आँचल छूटेगा
तुम पवन-पवन बन बहो
चाँदनी श्वाँसों में तुम बहो कहीं मैं श्वाँस-श्वाँस लिखकर
उसी के तले बदन दुलरा लूँगा

बातें सैलानी बचा-खुचा भ्रम खोलेंगी।दियना-बाती वाली
इच्छायें डोलेंगी। मैं आँख मूँद आखर-आखर पतिया लूँगा
फिर वही तिलस्मी आँखें भेद टटोलेंगी
तुम छनन-छनन छन बजो
चाँदनी पाँवों में तुम बजो कहीं घुँघरु-घुँघरु लिखकर
मैं किसी एक घुँघरु के स्वर
नियरा लूँगा


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