अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

रविवार, 24 जनवरी 2016

बेतरतीब - महेश आलोक




                          एक कवि की नोटबुक(कुछ कवितानुमा टिप्पणियां)        



(45)

बहुत-बहुत लोग कविता लिखते हैं।उन्हे यह नहीं पता कविता कैसे लिखते हैं। समकालीन काव्य भाषा और मुहावरे का भी अपना सर्जनात्मक सँस्कार होता है।उस सँस्कारित चेतना के बिना कविता लेखन सँभव नहीं है। और हाँ- ‘अन्दाज़े-बयाँ’ पर भी रचनात्मक निगाह रखना जरुरी है। ‘प्रतिभा,व्युत्पत्ति और अभ्यास’ के गुणात्मक सँतुलन के बिना तो महज ‘कवि सम्मेलनी’ कविता लिखी जा सकती है।माफ़ करें। ‘कवि सम्मेलनी’ के साथ ‘कविता’ शब्द का इस्तेमाल करना वाक्य दोष है,यह मैं जानता हूँ।

(46)

मैं जब सोता हूँ उस समय
कविता नहीं रच रहा होता हूँ
कविता मुझे थपकी देकर सुलाती है

बन्धु! मैं हमेशा जागती हूँ

रचने के लिये
स्वप्न देखना जरुरी है


(47)


कविता लिखना अन्ततः कला नहीं है।लेकिन बिना कला के कविता लिखी भी नहीं जा सकती, यह भी उतना ही सच और टिकाऊ विचार है।जो लोग इस विचार के विरोध में हैं, उनकी कविता भी इसी रचनात्मक समझ में चरितार्थ होती है।

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