अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

रविवार, 31 जनवरी 2016

बेतरतीब - महेश आलोक

                      एक कवि की नोटबुक(कुछ कवितानुमा टिप्पणियां)         


                                                              (48)

असल में साहित्य,संस्कृति और कला का बुनियादी प्रजातन्त्र इस तात्विक आधार पर निर्भर करता है कि दृष्टि बहुलता का आत्यंतिक संश्लेषण किस समानुपातिक आधार पर संभव हुआ है।उसमें जीवन, समाज और भाषा को समझने और बदलने का जरुरी संघर्ष परिलक्षित हो रहा है या कि नहीं। और उत्तर अगर सचमुच सकारात्मक है तो निश्चय ही परिलक्षण के प्रमुख बिन्दुओं की पहचान भी हमें होगी ही। लेकिन पहचान की प्रक्रिया को हम तब तक पूरा हुआ नहीं मान सकते जब तक अपनी बोलियों से, लोकरुपों से, अपनी विपुल लोक-संपदा से अपनी भाषा का सर्जनात्मक सम्बन्ध सोच और संवेदना के धरातल पर निर्धारित न कर लें। जिस दिन हमारी भाषा प्रदर्शनकारी कलाओं जैसे रंगमंच और रुपंकर कलाओं तथा शास्त्रीय संगीत को भी तात्विक रुप से अंगीकार कर अपनी सर्जनात्मकता का विस्तार कर लेगी, संस्कृति और प्रकृति के उस अक्षय ऊर्जा स्रोत से साक्षात्कार कर लेगी,अपनी जातीय अस्मिता को परिष्कृत करते हुए नयी जीवनदायिनी शक्ति के आत्यंतिक महत्व को आत्मसात कर लेगी ।
वह दिन या समय या क्षण उसकी रचनात्मक यात्रा का अस्तित्व-बोध के स्तर पर सबसे मानीखेज और जीवन्त पल होगा।


                                                        (49)

एक नए कवि ने पूछा- सर,कविता लिखने का नियम क्या है?मेरे मुँह से तपाक से निकला- कविता लिखने का सबसे बड़ा नियम यह है कि इसका कोई नियम नहीं है।लेकिन अन्ततः वह कविता हो।ठीक यही बात जीवन पर भी लागू होती है।अगर सचमुच जीवन जीना है तो।


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