अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं ।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ: ॥
— शुक्राचार्य
कोई अक्षर ऐसा नही है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो , कोई ऐसा मूल (जड़) नही है , जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नही होता , उसको काम मे लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

बेतरतीब- (एक कवि की नोटबुक)- महेश आलोक

                                                             
                                               महेश आलोक की डायरी



                                                              (1)

मैं नींद की तरँगों को फैलते हुए देखता हूँ।मुझे शक है कि वे आकाश में डूबने से पहले किसी चिड़िया की तरह समुद्र के ऊपर परिक्रमा करके लौटी होंगीं। समुद्र जिसमें न जाने कितने रासायनिक हथियार,जँगी जहाज,यात्री जो दुनिया की यात्रा पर निकले थे,आतँकी उनकी नाव जो तबाही के विस्फोटक आदि से भरी होंगी, डूब गयी होंगी।समुद्र जिसके लिये अच्छे और बुरे आदमी और सामान में कोई फर्क नहीं है।नींद की तरँगों ने अपने अदृश्य स्पर्श से उन्हे जरुर छुआ होगा आकाश में डूब गयीं।
मेरी नींद के आकाश में डूब गयीं

मैने लिखा मुझे नींद नहीं आती
     
                                                               (2)                
जब खुशबू के शरीर से हवा थकान की तरह टपक रही हो और लँगड़ाकर चल रही हो।नींद के दरवाजे पर सपने अनशन किये बैठे हों और पानी तक न पी रहे हों यानी नींद को आने के लिये मिल न रहा हो रास्ता

तब नींद नहीं आती मैने लिखा

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